संन्यास आनंद का निर्णय

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Mar, 2018 04:13 PM

importance of renunciation

संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र  धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसे निर्णय...

संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है-इंद्रियों की, वासनाओं की,  इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।


तो जो व्यक्ति ध्यान को जीवन के और कामों में एक काम की तरह करता है, चौबीस घंटों में बहुत कुछ करता है, घंटेभर ध्यान भी कर लेता है- निश्चित ही उस व्यक्ति की बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान को समॢपत करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रात में सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चौबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।


निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा और ध्यान संन्यास के लिए गति देता है। ये संयुक्त घटनाएं हैं और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरू कर देता है। मन आपका गुलाम है।


जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि मन संन्यास के लिए सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। निर्णय की क्षमता ही मन से मुक्ति हो जाती है। वह जो निर्णय है, संकल्प है, बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है और मन से हम बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं।


संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है। संन्यास के बाद तो होगा ही, निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर बड़ी कठिनाई होती है मन को।


संन्यास ऐसी घटना है जिसमें सिर्फ तुम ही जिम्मेदार हो, और कोई नहीं।  इसलिए निर्णय करने में बड़ी मुश्किल होती है। अकेले ही हैं, किसी दूसरे पर जिम्मेदारी डाली नहीं जा सकती।


कई बार लोग कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत तो मेरा मन तैयार है संन्यास लेने के लिए, दस प्रतिशत नहीं है तो जब पूरा हो जाएगा मेरा सौ प्रतिशत मन तब मैं संन्यास ले लूंगा, लेकिन इस आदमी ने कभी विवाह करते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है?चोरी करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है? क्रोध करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है? गाली देते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है? सिर्फ संन्यास के समय यह कहता है कि सौ प्रतिशत मन तैयार होगा तब। यह अपने को धोखा देे रहा है। यह भली-भांति जानता है कि सौ प्रतिशत मन कभी तैयार नहीं होगा, इसलिए बचाव की सुविधा बनाता है। अगर यही धारणा है कि सौ प्रतिशत मन जब तैयार होगा तभी कुछ करेंगे तो ध्यान रखना, आपका सब करना आपको बंद करना पड़ेगा। सौ प्रतिशत मन आपका कभी किसी चीज में तैयार नहीं होता है, लेकिन बाकी सब काम आदमी जारी रखता है।


और यह भी मजे की बात है कि जब आप तय करते हैं कि नब्बे प्रतिशत मन तो कहता है, दस प्रतिशत अभी नहीं कहता है, तो आपको पता नहीं है कि आप संन्यास नहीं ले रहे हैं तो आप दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को इन्कार करते हैं। असल में न लेने में ऐसा लगता है कि जैसे कोई बात ही नहीं हुई। संन्यास न लेना भी निर्णय है। दस प्रतिशत के पक्ष में निर्मय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को छोड़ देते हैं तो आपकी जिंदगी बहुत दुविधा भरी हो जाएगी। अगर निर्णय लेना है तो इक्यावन प्रतिशत भी हो तो निर्णय ले लेना चाहिए, उनचास प्रतिशत को छोड़ देना चाहिए।


संन्यास आनंद का निर्णय है। अब मैं आनंद चाहता हूं इतना ही नहीं, आनंद को पाने के लिए कुछ करूंगा भी। संन्यास इस बात का निर्णय है कि अब मैं सिर्फ आनंद की चाह ही नहीं करूंगा, उस चाह को पूरा करने के लिए जीवन दाव पर भी लगाऊंगा। संन्यास इस बात की भी अपने सामने घोषणा है कि अब मैं दुख से बचने की कोशिश ही नहीं करूंगा, दुख जिन-जिन चीजों से पैदा होता है उनको छोडऩे का सामथ्र्य और साहस भी जुटाऊंगा।


यह निर्णय लेते ही आपकी जिंदगी नए केंद्र पर रूपांतरित होती है और स्वभावत: ध्यान फैलना शुरू हो जाता है क्योंकि ध्यान तो सिर्फ एक विधि है, जिसने भी धर्म की ओर जाना शुरू किया, उसे ध्यान की विधि के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता, लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि दौड़ते हैं हम धन की तरफ और ध्यान की विधि का उपाय करना चाहते हैं।


संन्यास इस बात की घोषणा है जगत के प्रति और अपने प्रति भी कि मैं अब परमात्मा की तरफ जाने का सचेतन निर्णय लेता हूं। निश्चित ही उस निर्णय को लेने के बाद उस यात्रा में जाने के लिए जो साधन है उसको करना आसान हो जाता है। संन्यास लेते ही रूपांतरण हो जाता है। जब कुछ करेंगे तब की तो बात अलग, निर्णय लेते ही बहुत कुछ बदल जाता है लेकिन यह निर्णय लेना भी बहुत कुछ करना है। एक निर्णय पर पहुंचना, एक दाव लगाना, एक साहस जुटाना, एक छलांग की तैयारी भी छलांग है। आधी छलांग तो तैयारी में ही लग जाती है।

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