Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Jun, 2017 01:25 PM
माधि की सर्वोच्च अवस्था
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छह ध्यानयोग
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। 31।।
समाधि की सर्वोच्च अवस्था
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छह ध्यानयोग
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। 31।।
शब्दार्थ : सर्व-भूत-स्थितम्—प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित; य:—जो; माम्—मुझको; भजति—भक्तिपूर्वक सेवा करता है; एकत्वम्— तादात्म्य में; आस्थित:—स्थित; सर्वथा—सभी प्रकार से; वर्तमान —उपस्थित होकर; अपि—भी; स:—वह; योगी—योगी; मयि—मुझमें; वर्तते—रहता है।
अनुवाद : जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझ में सदैव स्थित रहता है।
तात्पर्य : जो योगी परमात्मा का ध्यान करता है वह अपने अंत:करण में श्री कृष्ण के पूर्ण रूप में शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किए चतुर्भुज विष्णु का दर्शन करता है। योगी को यह जानना चाहिए कि विष्णु कृष्ण से भिन्न नहीं हैं।
परमात्मा रूप में कृष्ण जन-जन के हृदय में स्थित हैं। यही नहीं असंख्य जीवों के हृदयों में स्थित असंख्य परमात्माओं में कोई अंतर नहीं है। न ही कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर व्यस्त व्यक्ति तथा परमात्मा के ध्यान में निरत एक पूर्णयोगी के बीच कोई अंतर है।
कृष्णभावनामृत में योगी सदैव कृष्ण में ही स्थित रहता है भले ही भौतिक जगत में वह विभिन्न कार्यों में व्यस्त क्यों न हो। योगाभ्यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था कृष्णभावनामृत है।
केवल इस ज्ञान से कि कृष्ण प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं योगी निर्दोष हो जाता है। वेदों से (गोपालतापनी उपनिषद् 1.21) भगवान की इस अचिन्त्य शक्ति की पुष्टि इस प्रकार होती है।
एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति
यद्यपि भगवान एक है किन्तु वह जितने सारे हृदय हैं उनमें उपस्थित रहता है।
(क्रमश:)