पैसे खर्च किए बिना मिलेगा तीर्थयात्रा का पुण्य, जो चार धाम यात्रा से भी नहीं मिलता

Edited By ,Updated: 07 Feb, 2017 11:18 AM

virtue of pilgrimage

एक साधु की तीर्थयात्रा की इच्छा हुई। वह दिन-रात पैसा इकट्ठा करने की जुगत में लगे रहते। एक दिन

एक साधु की तीर्थयात्रा की इच्छा हुई। वह दिन-रात पैसा इकट्ठा करने की जुगत में लगे रहते। एक दिन उन्होंने स्वप्न में देखा कि यदि किसी व्यक्ति में परोपकार की भावना हो तो घर बैठे ही उसे तीर्थयात्रा का पुण्य मिल सकता है, जैसे कि हिमाचल के एक गांव में जूता गांठकर आजीविका चला रहे श्यामू भक्त को। नींद खुलने पर साधु ने श्यामू भक्त से मिलने की ठानी। खोजते-खोजते वह श्यामू भक्त के घर पहुंचे और उनसे तीर्थयात्रा न करने का कारण पूछा। श्यामू ने बताया कि तीर्थयात्रा पर जाने की तो मन में तीव्र इच्छा थी। कुछ पैसे भी जमा कर लिए थे लेकिन एक घटना ऐसी घटी कि तीर्थयात्रा पर जाने का विचार त्यागना पड़ा।


उसकी पत्नी गर्भवती थी। एक दिन उसे पड़ोस से मेथी के साग की सुगंध आई। उसे यह साग खाने की इच्छा हुई। उसने पड़ोसी के घर जाकर उनसे पत्नी के लिए थोड़ा साग मांगा। पड़ोसी सकुचाते हुए बोला कि 4 दिन से बच्चे भूखे थे, इसलिए आज ही श्मशान से मेथी की पत्तियां तोड़कर साग बनाया है। उसकी ऐसी दयनीय दशा देखकर उसने वे रुपए उसे दे दिए जो उसने व उसकी पत्नी ने पेट काटकर तीर्थयात्रा के लिए जोड़े थे। 


यह सुन साधु के जीवन की दिशा ही बदल गई। किसी जरूरतमंद की मदद करने से तीर्थयात्रा का वह पुण्य मिल जाता है, जो चारों धाम की यात्रा से भी प्राप्त नहीं होता।
इस संसार में हम अद्वितीय हैं इसलिए अपनी तुलना किसी से न करें। अपनी निंदा से विचलित न हों अपितु अपनी कमजोरियां जानकर उन्हें दूर करने का प्रयास करें। अपनी समस्याओं के समाधान का क्रम तय करें। जो पहले जरूरी है, उसे उसी क्रम में सुलझाएं। अपनी छोटी-छोटी चिंताओं का रोना छोड़कर अन्य लोगों का सहयोग करें। उनकी मदद करना तीर्थाटन से किसी मायने में कम नहीं।


प्रेम, सहानुभूति और क्षमा-भाव मानवीय भावों में सबसे महान हैं। कुछ परिस्थितियां अत्यंत विषम होती हैं। ऐसी स्थिति में यह ध्यान रखें कि परिवर्तन जगत का शाश्वत नियम है। सुख-दुख तथा रोग-शोक हमारे द्वारा किए गए कर्मों का प्रतिफल है। इनके लिए कोई अन्य नहीं, हम ही जिम्मेदार हैं। अत: इन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करें। 

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