Edited By ,Updated: 02 Jun, 2015 09:24 AM
सद्गुरु कबीर साहब पहली बार पालनहार माता नीमा को कमल दल के गुच्छ पर लहरतारा के पावन सरोवर पर दिखे थे। उसी स्थान पर कबीर चौरामठ की ओर से बाद में एक मंदिर बनवाया गया है।
सद्गुरु कबीर साहब पहली बार पालनहार माता नीमा को कमल दल के गुच्छ पर लहरतारा के पावन सरोवर पर दिखे थे। उसी स्थान पर कबीर चौरामठ की ओर से बाद में एक मंदिर बनवाया गया है। यह प्राचीन मंदिर ही कबीर साहब का प्राकट्य स्थल है। आज यह पवित्र स्थल और कबीर जी को समझने और जानने के लिए महातीर्थ हो गया है। मूलगादी कबीर साहब की कर्मभूमि है तो लहरतारा का यह मंदिर उनकी प्राकट्य भूमि। लहरतारा क्षेत्र को कबीर साहब के प्राकट्य ने परमसिद्ध और महातीर्थ बना दिया। गंगा जो सदियों पहले यहीं से होकर बहती थी और समय के साथ गंगा की धारा का रुख तो बदल गया पर जो उसकी लहरें पीछे छूट गईं उन्हीं से यहां एक ताल बना लहरतारा।
कबीर साहब का आविर्भाव वि.स. 1456 ईस्वी सन् 1398 की ज्येष्ठ पूर्णिमा को सोमवार के दिन हुआ। इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहिता नीमा का गौना करा के अपने घर लौट रहे थे। लहरतारा सरोवर के पास गुजरते समय नीमा को प्यास लगी और पानी पीने के लिए तालाब पर गई। नीमा अभी चुल्लू भर पानी अपने होंठों पर लगाने वाली थी कि किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी और देखा तो नवजात शिशु मिला जो कि आगे चल कर कबीर हुए।
यही जगह आज कबीर प्राकट्य स्थल है जिसके दर्शन करने के लिए हर वर्ग, हर धर्म और देश-विदेश से लोग आते हैं। नीरू टीले पर कबीर जी का लालन-पालन हुआ जो कि नीरु-नीमा का निवास था और जिसे कबीर का घर भी कहा जाता है। नीरू नीमा कपड़ा बुनने का कार्य करते थे। कबीर जी भी बड़े होकर कपड़ा बुनने का काम करने लगे। कबीर जी सत्संग की पाठशाला भी चलाते थे और श्रद्धालु उनका सत्संग सुनने के लिए तत्पर रहते थे।