कूड़ेदान की आत्मकथा

Edited By Updated: 12 Jan, 2018 05:20 PM

autobiography of trash

नमस्ते ! पहचाना मैं कूड़ेदान, देखा होगा आपने मुझे अपने गली या मोहल्ले में, डस्टबिन से तो जान ही गए होंगे ? वो क्या है न आज कल मुझे कूड़ेदान के नाम लोग कम जानते है। वैसे नाम में क्या रखा है, मेरा इतिहास तो तब का है जब लोग नाम लिखना भी नहीं जानते थे,...

नमस्ते ! पहचाना मैं कूड़ेदान, देखा होगा आपने मुझे अपने गली या मोहल्ले में, डस्टबिन से तो जान ही गए होंगे ? वो क्या है न आज कल मुझे कूड़ेदान के नाम लोग कम जानते है। वैसे नाम में क्या रखा है, मेरा इतिहास तो तब का है जब लोग नाम लिखना भी नहीं जानते थे, 4500 साल पुराना इतिहास है हमारा। सिंधु घाटी सभ्यता के घरों में रहा करते थे हमारे परदादा 'चैम्बर' वो उस वक़्त काफी प्रसिद्ध हुआ करते थे, घर के ठोस कचड़े का निस्तारण तो करते ही थे, भूल बस अगर कोई कीमती वस्तु नाले में गिर जाए तो लोग हमारे परदादा को ही याद किया करते थे। हमारे दादा ने तो दयाराम साहनी और कई अंग्रेज खोजकर्ताओं को भी हैरत में दाल दिया की मानवीय सभ्यता की इस शुरुआत में इतना बेहतर प्रबंधन। 

 

हड़प्पा हो या मोहनजोदड़ो उसकी सुंदरता में हमारे परदादा 'चैबर' और परदादी 'नाले' का बड़ा योगदान था। हमारे परदादा और परदादी तात्कालिक अन्य सभ्यताओं में पूरे विश्व भर में कही नहीं दिखते ये तो बस भारतीयों की खूबी थी जिसने स्वच्छ्ता को सभ्यता के शुरुआत में ही आत्मसात कर लिया था। किन्तु समय बदला और लोग और उसके साथ सोच दोनों बदलते चले गए, ये देश जैसे-जैसे बढ़ता गया हमारी महत्ता छीन होती गई। किन्तु हमारी पतन का असर इंसानो पर भी पड़ा, सड़के गन्दी होती गई, इधर-उधर हर जगह कचड़े का अंबार सा लगता गया और उससे फैली बीमारियां जो इंसानी विकास को धीमा कर दिया, ये बीमारियां महामारियां में भी बदली। कई लोगो ने जान भी गवाए लेकिन फिर भी लोगों ने हमे आत्मसात करने के वजाय उस बीमारी को फैलने से रुकने के वजाय उपचार में दवाईयां बनाने में ज्यादा भरोसा दिखया, जबकि इनके पूर्वज बचाव को ज्यादा प्राथमिकता देते थे। हमारी उपेक्षा से हम तो पीड़ित थे ही हमसे ज्यादा आम लोग, जो बेवजह काल के गाल में समाहित होते जा रहे थे।

 

एक दिन सहसा देश के माननीय प्रधानमंत्री ने स्वच्छ्ता के लिए मुहीम का एलान किया लोगो को इससे जुड़ने का आह्वाहन किया, हम ख़ुशी से झूम उठे, देर ही सही किन्तु हमारे भी अच्छे दिन आने वाले थे, अब हम भी दिखेगे फिर से गलियों, मोहल्लों में, सड़कों के किनारे, पब्लिक पार्को में। और वो दिन आया भी हम न सिर्फ शहरों में वल्कि गाँवो तक जा पहुँचे एक सपना लिए की अब फिर से लोग हमारे महत्ता को जानेगे हमें सम्मान देगे, बच्चे अपने प्रिय प्रधानमंत्री की बातों से प्रेरणा लेकर हमसे प्यार करेगे हमारा सही इस्तेमाल करेंगे। 

 

हम भी लोगों के साथ मिलकर देश को स्वच्छ बनाने में मदद करेंगे और सही मायने में सारा दारोमदार तो हम पर ही साथ अगर हम नहीं रहेंगे तो लोग गंदगी कहा फेकेंगे उसका सही निस्तारण कैसे होगा। लेकिन मेरा ये भ्रम कुछ दिनों में ही टूट गया, पहले-पहल तो लोगों ने उत्सुकता में मुझमें कूड़े भी डाले और सफाईकर्मी से सही वक़्त पर आकर मुझे साफ़ भी किया, किन्तु एक दिन सहसा मेरा दिल डर से कांप गया जब अपनी पड़ोस के मोड़ वाले भाई को यूँ सुबह सड़को पर पाया, जिसपर मेरे ही तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की ऐनक थी और स्वच्छ्ता अभियान का श्लोगान लिखा था, वो दर्द से कहराता दर-दर के ठोकरे खा रहा था शायद किसी असामाजिक व्यक्ति ने उसे जगह से निकल दिया था और वो सड़को पर लुढ़कता आ गया था, किन्तु कोई उसे अपनी सही जगह नहीं पंहुचा रहा था, शाम होते-होते बच्चो ने उसे अपना फुटबॉल बना लिया और सवेरे जब मेरी नींद खुली तो उसके परखच्चे उड़ चुके थे, रात को किसी गाड़ी वाले उसपे अपनी गाड़ी चढ़ा दी। 

 

मेरी सारे सपने एक ही झटके में उजड़ गए, जिन लोगों की सेवा करने जिनके मोहल्ले को साफ़ सुथरा रखने को, जिन्हें बीमारियों से बचाने को हम आये थे आज उन्ही लोगों ने हमे ठोकर मार दिया, वे हमारे मौत का कारण बन बैठे थे। चंद महीनों में ही सारे आस पड़ोस के कूड़ेदानों का स्वर्गवास हो गया, कल रात्रि एक भूखी गौ माता ने अपनी भूख शांत करने के लिए लोगो के फेंके कचड़ों को खाने के प्रयास में मुझे अपने स्थान से गिरा दिया है, शायद मेरा भी वही हाल हो जो मेरे भाइयो को हुआ, गौ माता का कोई कसूर नहीं वो भी हमारे ताराहभी अभागी है, उनके लिए भी लोग हो हल्ला मचाते है, लेकिन जमीनी स्तर पर उन्हें भी कोई नहीं देखने वाला। शायद मैं कल ना रहूँ, आपके मोहल्ले या शहर में दिखूं या न दिखूं एक बात कहकर जाना चाहता हूँ, ''उस समाज और उस देश के विकसित या विकासशील होने का कोई अर्थ नहीं होता जो स्वच्छ्ता और अपनी राष्ट्रीय सम्पति का सम्मान नहीं करते।''

 


संदीप सुमन
 

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