पर्यावरण सुधारक एवं किसान हितैषी ज्योतिष शास्त्र

Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Jun, 2018 03:10 PM

environmentalist  farmer friendly astrology

ज्योतिष शास्त्र प्राचीन काल से ही मानव के सर्वविध कल्याण में सदैव तत्पर रहा है, एक ज्योतिषी को नक्षत्र-वृक्षों व धार्मिक वृक्षों का ज्ञान रहता है। एक कुशल कर्मकाण्डी पुरोहित को यज्ञीय-वृक्षों व समिधाओं का ज्ञान रहता है, परन्तु 4 शताब्दी मे हुए...

ज्योतिष शास्त्र प्राचीन काल से ही मानव के सर्वविध कल्याण में सदैव तत्पर रहा है, एक ज्योतिषी को नक्षत्र-वृक्षों व धार्मिक वृक्षों का ज्ञान रहता है। एक कुशल कर्मकाण्डी पुरोहित को यज्ञीय-वृक्षों व समिधाओं का ज्ञान रहता है, परन्तु 4 शताब्दी मे हुए ज्योतिष के प्रसिद्ध आचार्य वराहमिहिर का वृक्ष ज्ञान इन सबसे अधिक विस्तृत एवं विलक्षण था। इस बारे में आचार्य वराह मिहिर ने ज्योतिष के सर्वांगीण पहलुओं पर विस्तार से अध्ययन व अध्यापन किया है. उनके द्वारा संहिता शास्त्र पर लिखी गई 'बृहत्संहिता' उनकी सर्वोत्तम प्रौढ़ रचना है।


 
1. वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता वराहमिहिर

 

वनस्पति शास्त्र का लक्षण व विषय सभी प्रकार के जंगली वृक्ष, लताएं, पुष्प, वनौषधि एवं यज्ञीय वनस्पति जगत् का विषय है। मनुस्मृति के अनुसार जिनके पुष्प नहीं लगतेः किन्तु फल लगते हैं उन्हें ‘वनस्पति’ कहते हैं जैसे पीपल और बिल्ववृक्ष। आयुर्वेद ग्रन्थ ‘भाव प्रकाश’ के अनुसार नन्दीवृक्ष, अश्वत्थ, प्ररोह, गजपादप, स्थालीवृक्ष, क्षयतरू और क्षीरीवृक्ष वनस्पति की श्रेणी में आते है। परन्तु मेदनी कोष के अनुसार पृथ्वी पर उत्पन्न वृक्षमात्र वनस्पति की श्रेणी में आते है। पृथ्वी पर उत्पन्न वृक्षमात्र फूल, पौधे व पन्ती व फल की उत्पन्ति, विकास व लय का ज्ञान, पौधों, लताओं व धान्यों के बीज, उनके गुण-धर्म, उत्पन्ति के साधन एवं मौसम का ज्ञान, वनस्पति-शास्त्र का विषय है।

 

2. बगीचे की सार्थकता हेतु भूमि का शोधन

वृक्षायुर्वेदाध्याय के प्रारम्भ में ही वराहमिहिर कहते हैं कि वापी, कूप, तालाब आदि जलाशयों के किनारे पर बगीचा लगाना चाहिए क्योंकि जलयुक्त स्थल यदि छायारहित हो तो शोभा नहीं पाता। बगीचे की स्थापना हेतु कोमल भूमि अच्छी होती है। जिस भूमि में बगीचा (बहुत सारे वृक्ष) लगाना हो उसमें पहले तिल बोवें, जब वे तिल फूल जायें, तब उनको उसी भूमि में मर्दन कर दे। यह भूमि का प्रथम संस्कार है।

 

3. बगीचे में लगाने योग्य वृक्ष सबसे पहले बगीचें में या घर के समीप चाहर दिवारी में अशोक, पुन्नाग, शिरीष, प्रियंगु (कुकुनी) के वृक्ष लगाने चाहिएं। इससे शुभ होता है। वराहमिहिर के अनुसार ये सभी अरिष्टनाशक एवं मंगल फलदायक वृक्ष है।

 

अरिष्टाशोक पुन्नागशिरिषाः सप्रियंगव:।
मंगल्या पूर्वमारामे रोपणीया गृहेषु वा।।

 

4. वृक्ष रोपण की ऋतु

विभिन्न प्रकार के वृक्षों को लगानें के काल व ऋतु का निर्धारण करते हुये वराहमिहिर कहते हैं कि अजातशाखा अर्थात् कलमी से भिन्न वृक्षों को शिशिर ऋतु (माघ-फाल्गुण) में, कलमी वृक्षों को वर्षा ऋतु (श्रावण - भाद्रपद) में लगावें।

 

5. वृक्ष रोपण के नक्षत्र

वराहमिहिर कहते है कि तीनों उत्तरा (उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद), रोहिणी, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, मूल, विशाखा, पुष्य, श्रवण, अश्विनी और हस्त ये नक्षत्र दिव्यदृष्टि वाले मुनियों ने वृक्ष रोपने के लिये श्रेष्ठ कहे है।

 

6. वृक्ष रोपने के नियम एवं विधि

वराहमिहिर वृक्षारोपण को एक पवित्र कार्य मानते है, इसलिये वे कहते हैं कि वृक्ष लगाने के पहले व्यक्ति स्नान करके पवित्र होकर, चन्दन आदि से वृक्ष की पूजा करे। फिर उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगावे। एक स्थान से वृक्ष को दूसरे स्थान पर ले जाने के पूर्व घृत, प्वस, तिल, शहद, वायविडंग, दूध, गोबर इन सबको पीसकर मूल से लेकर अग्र पर्यन्त लेपकर वृक्ष को एक स्थन से दूसरे स्थान पर ले जा सकते हैं। ऐसा करने से पत्रों से युत वृक्ष लग जाता है अर्थात् वृक्ष सूखता नहीं।

 

7. वृक्ष सींचने का प्रकार एवं क्रम

वराहमिहिर कहते है कि लगाये हुये वृक्षों को ग्रीष्म-ऋतु में सुबह-शाम एवं शीत ऋतु में एक दिन के बाद एक दिन छोड़ कर, वृक्षों में जल सींचना चाहिए। वर्षा ऋतु में भूमि सूखने पर ही वृक्षों को जल देना चाहिए। अधिक जल वाले वृक्षों को लगाने के उपक्रम की जानकारी देते हुये वराहमिहिर कहते हैं कि जामुन, वेत, वानीर, कदम्ब, गूलर, अर्जुन, बिजौरा, दाख, बडहर, दाडिम, पन्जुल, मक्तमाल , तिलक, करहल, तिमिर, अटबाज ये सोलह प्रकार के वृक्ष, जलप्रद (अधिक जल वाले देश) भूूमि पर लगाने चाहिए। वृक्ष लगाने के क्रम का विवरण देते हुये वराहमिहिर बताते है कि एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष के बीच, बीस हाथ का अन्तर होना चाहिए, सोलह हाथ का अन्तर मध्यम और बारह हाथ का अन्तर अधम माना गया है। वराहमिहिर कहते है कि यदि एक वृक्ष दूसरे वृक्ष के समीप होगा तो दोनों परस्पर स्पर्श करेंगे और दोनों की जड़े इकट्ठी होगीं। ऐसे में वृक्ष पीड़ित होते है तथा अच्छी तरह से फल नहीं देते।


 
8. कलमी वृक्ष लगाने का विधान

कलम लगाने के प्रकार व विधि को बतलाते हुये वराहमिहिर ने कहा कि कटहर, अशोक, केला, जामुल, बडहर, दाडिम, दाख, पालीवत, बिजौरा, अतिमुक्तक, इन वृक्षों की शाखाओं को लेकर गोबर में लीप कर कटे हुये विजातीय वृक्ष की मूूल या शाखा पर लगाकर जोड़ दें। वहाॅं नया वृक्ष उत्पन्न हो जायेगा। यही कलम लगाने का विधान है।

 

09. एक दिन में फलयुक्त पौधा लगाना

वराहमिहिर ने ‘वृक्षायुर्वेदाध्याय’ में चमत्कारी वृक्ष-प्रकरण पर भी प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि लसोडे के बीज केा अंकोल फल के भीतर के जल से भावना देकर छाया में सुखा दें। यह प्रक्रिया कुल सात बार करें। फिर उस बीज को भैंस के गोबर से घिसकर, भैंस के सूखे गोबर के ढेर पर रख दें। तत्पश्चात् ओलों से भीगी हुई मिट्टी में उन बीजों को बोवें तो एक दिन में फलयुक्त पौधा लग जायेगा। इतना ही नहीं वराहमिहिर ने तत्काल तत्क्षण पौधा उत्पन्न करने की विधि बतोते हुये कहा है कि अंकोल वृक्ष के फल के कल्क (सार) या तेल से अथवा श्लेष्मातक (लसोड़े) के फल के कल्क या तेल से सौ बार भावना देकर, ओलों से भीगी हुई मिट्टी में जिस बीज को बोवें, वह उसी क्षण पैदा हो जाता है, तथा उसकी शाखा फलों के भार से झुक जाती है। बुद्धिमान् लोगों केा इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिऐ। 

 

10. वृक्षों में रोगोत्पत्त्ति के कारण व उनकी चिकित्सा इस सन्दर्भ में वराहमिहिर कहते है कि अधिक शीत, वायु और अधिक धूप लगने से वृक्षों केा रोग हो जाता है। रोगी वृक्षों के पत्ते पीले पड़ जाते है। अंकुर नहीं बढ़ते, डालियाॅं सूख जाती है और रस टपकने लगता है। वराहमिहिर लिखते हैं कि इन रोगी वृक्षों की चिकित्सा करनी चाहिये। पहले वृक्ष का जो अंग पूर्वोक्त विकार से युत हो, उसकेा शस्त्र के काट डालें, फिर वाय विडंग, घृत और पक (कीचड़) को मिलाकर वृक्षों में लेप करें, बाद में मिश्रित जल से सीचें तो वृक्ष रोग मुक्त हो जायेगा। वृक्ष पर यदि फल न लगे या फल लगकर नष्ट हो जाये, तो कुलथी, उड़द, मूंग, तिल, जौ इन सब को दूध में डालकर औटावें, फिर उस दूध को ठंडा करके, उससे वृक्ष में सीचें तो निश्चय ही उस वृक्ष के फल और फूलों में वृद्धि होगी। 

 

भेड़ और बकरी की मेंगन (भेड़ारी) का चूर्ण दो आठक, तिल एक आठक, सत्तू (सतुआ) एक प्रस्थ, जल एक द्रोण, गौ-मांस एक तुला, इन सबको मिला कर एक पात्र में सात दिन तक रखें और तत्पश्चात् उससे वृक्ष गुल्म व तलााओं को सींचे, निश्चय ही फल-फूल की वृद्धि होगी। यदि किसी वृक्ष पर पुष्प कठिनाई से लगते हों तो उस वृक्ष के बीज केा घृत लगाये हुये हाथ से चुपड़ कर दूध में डाल दें। इस तरह दस रोज तक करता रहे। बाद में उस बीज केा गोबर में अनेक बार मलकर छाया में सुखा दें। सूखने पर सूअर और हिरण के मांस का धूप देवें। उस बीज केा तिल बोकर शुद्ध-संस्कारित ही हुई जमीन पर लगावें एवं दूध मिश्रित जल से सींचे तो पुष्प युत वृक्ष उत्पन्न होगा। इसके साथ ही इमली के वृक्ष, कपित्थ के वृक्ष एवं अन्य अनेक प्रकार के वृक्षों को लगाने की विधि इस अध्याय मे भली-भाॅंति समझाई गई है।

 

निष्कर्ष

बृहत्संहिता के अध्याय 54 दकार्गलाध्याय में वराहमिहिर ने 86 वृक्षों का वर्णन किया है तथा अध्याय 55 के वृक्षायुर्वेदाध्याय में 50 प्रकार के वृक्षों का वर्णन किया है। इस प्रकार से कुल 136 प्रकार के वृक्षों का वर्णन बृहत्संहिता में हुआ है जिनके नाम इस प्रकार हैं- वेदयजनूॅं जामुन, जम्बूवृक्ष, गूलर, अर्जुन, सिन्दुवार, निर्गुण्डी, बेर, पलाश (ढ़ाक), बेल, फल्गु (काकोदुम्बरिका), कपिल (कम्पिल्ल), शोणाक (सरिवन), कुमुदा, बहेडा, सप्तपूर्ण, कन्जक (करंजक), महुए, तालखााना (तिलक), कदम्ब, ताड़ (ताल), कपित्थ (कैथ), अश्यंतक, हरिद्र, वीरण (गाॅंडर), दूब, भंगरैया, निसोत, इन्द्रदन्ती, दतिया (जयपाल), सूकरपादी, लक्ष्मणा, आक्रातक (अम्बाडा), वरूणक (बरण), भिरवा, बेल, तन्दु (तेन्दुआ), अंकोल, पिण्डार, शिरीष, परूषक (फालसा), अशोक अतिवला, नीम्ब, व्रजदन्ती, कटेरी, खजूर, कर्णिकार, पीलु, करीर, रोहितक, धन्तूरा, लाल करन्ज, कुश, शमी, श्वेत, कण्टक, स्निग्ध, बड़, पीपल, अश्वकर्ण (संखुआ), सर्ज, श्रीपर्णी, निचुल, नीप, आम, पिलखन, बकुल, कुखक, तार, मौलसरी, मोथा, रवस, राजकोशाातक, आॅंवला, कतक, पुन्नाग, प्रियंगु, कटहर, वसा, सूर्यमुखी, निसोत, लसोडा, वच, अरलू। 

 

उपर्युक्त नामावली वृक्षमाला की एक ग्रन्थावली सी प्रतीत होती है। इन वृक्षों की जानकारी एक कुशल वैद्य तो क्या एक वनस्पति शास्त्रज्ञ को नहीं हो सकती। इनमें से कई प्राचीन वृक्षों के नाम आज भी वनस्पति शास्त्रज्ञों के लिये समस्या बने हुये है। वराहमिहिर ने इन वृक्षों को उत्पन्न करने की विधि, इन वृक्षों के उपयोग व प्रयोग करने की विधि भी बतलाई है। निश्चय ही यह विषय ज्योतिष एवं वैद्यक-शास्त्र से हटकर है। एक वैद्य को वनस्पतियों, लताओं व औषध-वृक्षों का ज्ञान रहता है। अपने वनस्पति-ज्ञान के सन्दर्भ में वराहमिहिर ने वृक्षायुर्वेदाध्याय में सारस्वत नामक विद्वान् का बार-बार उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त किसी अन्य पूर्वाचार्य का नाम नहीं मिलता है। सारस्वत किस विषय के विद्वान् थे? कब हुये? यह ज्ञान नहीं हो पाया। फलतः येे महापुरूष भी कालातीत ही प्रतीत होते है। न केवल वृक्ष के ऊपरी सतह पर खिले फल-फूल, पुष्प-पत्ते व शाखाओं के बारे में, अपितु वाराहमिहिर को वृक्ष के भीतर, उसकी जड़ों के नीचे की वस्तु स्थिति का भी ज्ञान था। 

 

अमुक वृक्ष को खोदने पर कितने हाथ नीचे, क्या समस्या मिलेगी? वराहमिहिर ने इसका सम्पूर्ण वर्णन इन अध्यायों में किया है। इससे यह सहज ही प्रतीत हो जाता है कि वराहमिहिर का व्यावहारिेक परीक्षण कितना विलक्षण एवं श्रमजन्य था। एक व्यक्ति की सम्पूर्ण आयु इस प्रकार के परीक्षण एवं सर्वेक्षण में ही व्यतीत हो जाय तो भी वह इतनी दृढ़ता से नहीं कह सकता कि अमुक वृक्ष के इतने हाथ छोड़कर अमुक दूरी तक खुदाई करने पर इस प्रकार की सामग्री मिलेगी। वराहमिहिर की धारणा शक्ति तेज थी। उसके अनुभवजन्य ज्ञान का अधार ठोस था। वह यह जानते थे कि वृक्षों को किस कारण किस प्रकार के रोग हो सकते है? और उन रोगों की चिकित्सा क्या है? यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग की देन समझे जाने वाले वर्णसंकर पौधे का प्रचलन एवं विजातीय कमलों की स्थापना वराहमिहिर के काल में हो चुकी थी। वनस्पति के प्रबुद्ध ज्ञाता के रूप में वराहमिहिर युगों तक याद किये जाते रहेंगे।

 


ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद 

Related Story

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!