सामाजिक विभाजन का कारण न बने एससी और एसटी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 13 Apr, 2018 02:42 PM

the reason for social division was not made by st or sc

भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दी गई समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। इस तस्वीर...

भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दी गई समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। इस तस्वीर का दूसरा पहलु भी है, वंचितों व शोषितों को बचाने के लिए बनाए गए कानूनों का दुरुपयोग भी हो रहा है। समाज को जोडऩे के उद्देश्य से लाए गए कानून उसी समाज को बांटते दिखने लगे हैं। इस बात के के पक्ष में दो उदाहरण दिए जा सकते हैं। धनरूआ पुलिस ने 2017 में दो दंगाईयों को गिरफ्तार किया। इस हंगामे को कराने में मसौढ़ी की विधायक रेखा देवी के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया। इस पर विधायक ने मसौढ़ी डीएसपी सुरेंद्र कुमार पंजियार के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने की प्राथमिकी दर्ज करा दी। इससे पुलिस प्रशासन में खलबली मच गई लेकिन आरोपों की जांच की गयी, तो गलत मिले। दूसरी ओर वंचित व शोषित वर्गों पर तो हर रोज कहीं न कहीं उत्पीडऩ की खबरें सुनने व पढऩे को मिल जाती हैं। इससे साफ है कि एससी एसटी एक्ट की आवश्यकता पहले जितनी ही है परंतु जरूरत है इसका दुुरुपयोग रोकने की, जिस तरफ एक सकारात्मक कदम देश की सर्वोच्च अदालत ने उठाया है। अदालत के इस फैसले से उक्त एक्ट और मजबूत व प्रभावी बनने वाला है।


 
महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून के दुरुपयोग पर विचार करते हुए न्यायालय ने आदेश दिया कि इसके तहत दर्ज ऐसे मामलों में फौरन गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की पीठ ने कहा कि किसी भी लोकसेवक की गिरफ्तारी से पहले न्यूनतम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के अधिकारी द्वारा प्राथमिक जांच जरूर होनी चाहिए। लोक सेवकों के खिलाफ दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसके तहत दर्ज मामलों में सक्षम अधिकारी की अनुमति के बाद ही किसी लोक सेवक को गिरफ्तार किया जा सकता है। 1989 में इस कानून को एक खास जरूरत के कारण बनाया गया था। 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही वंचितों पर अत्याचार रुके। देश की चौथाई आबादी इन समुदायों से बनती है और आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद खराब है। इस अधिनियम के तहत अनुसूचित वर्गों के विरुद्ध किए जाने वाले नए अपराधों में जूते की माला पहनाना, उन्हें सिंचाई सुविधाओं तक जाने से रोकना या वन अधिकारों से वंचित करने रखना, मानव और पशु कंकाल को निपटाने, कब्र खोदने के लिए तथा बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति, इन वर्गों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना,जाति सूचक गाली देना,जादू-टोना अत्याचार को बढ़ावा देना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करना, चुनाव लडऩे से रोकना, महिलाओं को वस्त्र हरण करना, किसी को घर, गांव और आवास छोडऩे के लिए बाध्य करना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, यौन दुव्र्यवहार करना दंडनीय अपराध है।

 

इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कानून से वंचित व शोषित समाज को सम्मान के साथ जीने में बहुत बड़ा सहारा मिला है और उत्पीडऩ की घटनाओं पर विराम लगाने में काफी मदद भी मिली परंतु वर्तमान में देखने में यह आने लगा कि यह कानून सामान्य वर्ग के लोगों के उत्पीडऩ व ब्लैकमेलिंग का हथियार भी बनने लगा। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख महाराष्ट्र के आए केस से ही साफ हो जाता है कि कुछ गलत मानसिकता के लोग इसका दुरुपयोग समाज को बांटने व लोगों को डराने में कर रहे हैं। राज्य के दो अधिकारियों ने आरक्षित वर्ग के कर्मचारी के काम पर प्रशासनिक टिप्पणी की, जिस पर कर्मचारी ने अपने वरिष्ठों पर इस एक्ट की शिकायत दर्ज करवा दी। यह केवल महाराष्ट्र का मामला नहीं, सामान्यत: सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है कि कोई अधिकारी अपने जूनियर आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनके कामकाज के बारे में कहने से भी कतराते हैं कि कहीं उसके खिलाफ इस तरह की शिकायत न कर दे। यह क्रम यूं ही चलता रहा तो हमारा प्रशासनिक ढांचा कितनी देर तक ठहर पाएगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, इस एक्ट के तहत दर्ज होने वाले 16 प्रतिशत केस आरंभ में ही बंद हो जाते हैं और 75 प्रतिशत केसों में या तो आरोपी छुट जाते हैं या बाहर ही समझौता हो जाता है। अंतत: बड़ी मुश्किल से 2.4 प्रतिशत केसों में ही किसी को सजा होपाती है। इसके दो अर्थ निकाले जा सकते हैं, एक या तो कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपना काम सही तरीके से नहीं करतीं दूसरा कि इस तरह की अधिकतम शिकायतें झूठी होती हैं।

 

सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है उससे इन दोनों कारणों से छुटकारा मिलने वाला है। डीएसपी स्तर के सक्षम अधिकारी द्वारा केस फाइल करने से जहां केस में तथ्यात्मक मजबूती आएगी वहीं प्रारंभिक जांच में झूठी शिकायतें स्वत: निरस्त हो जाएंगी। जहां तक आरोपी को अग्रिम जमानत देने की बात है वह उसका संवैधानिक अधिकार है। जमानत जब हत्या व बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में दी जा सकती है तो इस कानून में क्यों नहीं मिलनी चाहिए? न्यायालय के निर्णय पर बेवजह हल्ला मचाने वालों को समझना चाहिए कि किसी कानून को समाप्त नहीं किया गया बल्कि यह सामयिक सुधार का प्रयास है। हर कानून में समय-समय तत्कालिक जरूरतों के अनुसार बदलाव व सुधार हुए हैं। अदालत के इस कदम से जहां इस कानून को लेकर समाज में भय का वातावरण समाप्त होगा वहीं यह और भी प्रभावी रूप में सामने आएगा। वंचितों व शोषितों की उन सच्ची व वाजिब शिकायतों का निपटारा होगा जो आज फर्जी केसों के बीच दबी कराह रही हैं।

 

राकेश सैन

097797-14324
 

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