Edited By ,Updated: 03 Aug, 2023 04:43 AM
हाल ही में मेरी भेंट हिमाचल प्रदेश की रहने वाली एक बहन से हुई, जिन्होंने मुझे हिमाचल प्रदेश के गद्दी समुदाय की कुछ रोचक बातें बताईं। इसके बाद मैंने इस बारे जानकारी प्राप्त की तो कुछ रोचक तथ्य सामने आए जो मैं पाठकों के साथ यहां सांझे कर रहा हूं
हाल ही में मेरी भेंट हिमाचल प्रदेश की रहने वाली एक बहन से हुई, जिन्होंने मुझे हिमाचल प्रदेश के गद्दी समुदाय की कुछ रोचक बातें बताईं। इसके बाद मैंने इस बारे जानकारी प्राप्त की तो कुछ रोचक तथ्य सामने आए जो मैं पाठकों के साथ यहां सांझे कर रहा हूं :
देवभूमि के नाम से विख्यात हिमाचल प्रदेश में विभिन्न समुदायों और जातियों के लोग प्रेमपूर्वक मिलजुल कर जीवन यापन करते हैं। इन्हीं में से एक है गद्दी समुदाय। जानकारों के अनुसार वर्षों पहले ये लोग अफगानिस्तान से लाहौर के रास्ते राजस्थान आए थे, परंतु वहां की आबोहवा गर्म होने के कारण ये हिमाचल प्रदेश में आकर बस गए। हालांकि जम्मू संभाग के पहाड़ी इलाकों में भी इनका बड़ा कुनबा रहता है।
हिमाचल के चंबा, भरमौर और कांगड़ा के सरहदी इलाकों में बसे ये लोग अपनी पौराणिक विरासत के साथ-साथ अपने परंपरागत भोजन, पहनावे व संस्कृति की विशेष पहचान कायम रखे हुए हैं। इस समुदाय के बुजुर्गों के अनुसार, पुश्तैनी भेड़ पालन व्यवसाय के साथ-साथ अपने हुनर और योग्यता के बूते इस समुदाय के अनेक सदस्य उच्च राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर पहुंच गए हैं।
इस समुदाय के लोग जन्म और परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की मृत्यु को उत्सव की तरह मनाते हैं तथा अपनी बिरादरी के लोगों के आॢथक और सामाजिक उत्थान में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। परंपरागत रीति-रिवाजों से इस समुदाय के लगाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिमाचल से बाहर बसे गद्दी समुदाय के लोगों ने लुधियाना, दिल्ली, चंडीगढ़ और मुंबई जैसे बड़े शहरों में अपने संगठन बना रखे हैं, जिनके माध्यम से वे अपने लोगों और अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़े रहते हैं। मृत्यु जैसी शोक की घड़ी में समूची गद्दी बिरादरी शोक संतप्त परिवार के साथ खड़ी होती है। मृतक का अंतिम संस्कार सम्पन्न करने वाला परिवार का सदस्य 10 दिनों तक भूमि पर सोता है।
इस दौरान उसके सामने चादर बिछाई जाती है। शोक व्यक्त करने आने वाले लोग यथासंभव आर्थिक सहयोग करते हुए चादर पर अपनी क्षमता के अनुसार रुपए-पैसे चढ़ाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बरतन’ कहते हैं। 10 दिन बाद चादर उठाकर एकत्रित राशि शोक संतप्त परिवार को दी जाती है। इस दौरान शोक संतप्त परिवार की बहुएं पारंपरिक परिधान ‘लुआंचड़ी’ पहनती हैं तथा कोई भी जेवर नहीं पहनतीं। गद्दी समुदाय में विवाह समारोह के अवसर पर दूल्हे को बारात से पहले ‘जोगी’ बनाया जाता है। इस परंपरा में धोती-कुर्ता के साथ उसे चोला-डोरा पहना कर हाथों में धनुष-बाण दिया जाता है। मान्यता है कि इस दौरान यदि दूल्हा घर की दहलीज से बाहर चला जाए तो ‘जोगी’ बन जाता है। हालांकि इस रस्म को परंपरा के रूप में निभाया जाता है, परन्तु कभी ऐसा कोई मामला नहीं हुआ।
विवाह संपन्न होने के बाद पारंपरिक नुआला (जागरण) का आयोजन किया जाता है, जिसमें समुदाय के ब्राह्मण सारी रात भगवान शिव का स्तुतिगान करते हैं। इस दौरान पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुनों से समूचा इलाका गूंज उठता है और समुदाय के लोग पारंपरिक परिधानों में नाचते-गाते हैं। शुभ अवसरों पर गद्दी महिलाएं पारंपरिक परिधान ‘लुआंचड़ी’, कुर्ता, डोरा पहनती हैं। महिलाओं के गहनों में मुख्यत: और ज्यादातर चांदी से बने चिड़ी, चंद्रहार, संगली, सिंगी, क्लइपड़ू, चक, कंडडू, कंगन और मरीजड़ी होते हैं। ज्यादातर महिलाएं कमर पर चांदी का छल्ला लटकाना नहीं भूलतीं। आशा करनी चाहिए कि जिस प्रकार गद्दी समुदाय ने अपनी परंपराओं को कायम रखा है, उसी प्रकार यह भविष्य में भी उन पर चलते हुए जीवन में और तरक्की करेगा, जिससे इस समुदाय और देश दोनों का भला होगा।-विजय कुमार