ऐसा है हमारे देश के सरकारी अस्पतालों का हाल

Edited By ,Updated: 13 Jan, 2020 01:06 AM

such is the condition of government hospitals of our country

इन दिनों देश के विभिन्न राज्यों के बड़े अस्पतालों में बड़ी संख्या में उपचाराधीन बच्चों की मृत्यु के चलते देश की चिकित्सा सेवाओं पर प्रश्र चिन्ह लगा है। राजस्थान में कोटा स्थित जे.के. लोन अस्पताल में एक महीने के भीतर 110 , गुजरात के राजकोट के सरकारी...

इन दिनों देश के विभिन्न राज्यों के बड़े अस्पतालों में बड़ी संख्या में उपचाराधीन बच्चों की मृत्यु के चलते देश की चिकित्सा सेवाओं पर प्रश्र चिन्ह लगा है। राजस्थान में कोटा स्थित जे.के. लोन अस्पताल में एक महीने के भीतर 110 , गुजरात के राजकोट के सरकारी अस्पताल में 111, जोधपुर में 146 और बीकानेर के अस्पताल में 162 बच्चों ने दम तोड़ा। जहां तक राजस्थान संभाग के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल जे.के. लोन अस्पताल का संबंध है, एक ओर इस अस्पताल में बच्चों की मौतों के लिए घटिया चिकित्सा उपकरणों के इस्तेमाल और उनकी कमी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है तो दूसरी ओर यह अस्पताल कुछ अन्य गम्भीर अनियमितताओं का भी शिकार बताया जाता है जिसकी ओर संभवत: लोगों का ध्यान नहीं गया है। 

अस्पताल के पूर्व अधीक्षक एच.एल.मीणा तथा शिशु रोग विभाग के प्रमुख अमृत लाल बैरवा जिन्हें कुछ समय पूर्व हटाया गया था, के बीच तनातनी के बारे में सबको पता है। अस्पताल के कर्मचारियों का कहना है कि दोनों ही एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे रहते और अस्पताल में शिशुओं को भगवान भरोसे छोड़ देते। बैरवा किसी ‘गैस्ट आफ ऑनर’ की तरह बर्ताव करते और शायद ही कभी अस्पताल में आते वहीं मीणा ने कभी अस्पताल के जीवनरक्षक उपकरणों की दयनीय हालत पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। सीनियर डॉक्टर वार्डों से दूर रहते और गंभीर रोगियों, जिनमें नवजात शिशु भी शामिल थे, को मैडीकल प्रशिक्षुओं की दया पर छोड़ दिया जाता। यहां तक कि अधिकतर प्रशिक्षु भी हर समय फोन पर बातचीत करने में ही व्यस्त रहते और जब रोगी नर्सों को गुहार लगाते तो उन्हें बिना किसी कारण उनके गुस्से का शिकार बनना पड़ता। कई बार तो उन्हें खुद ही अपने बच्चों की ड्रिप और आक्सीजन चैक करने को कह दिया जाता। 

महज 5 महीने के अपने बच्चे को खो देने वाली एक मां पद्मा के अनुसार, ‘‘जब मेरा बेटा अस्पताल के एमरजैंसी वार्ड में सांस लेने के लिए जूझ रहा था तो मेरी पीड़ा और मेरी गुहार सुनने वाला कोई डाक्टर वहां मौजूद नहीं था। जब मैंने स्टाफ को बुलाया तो वे मुझ पर ही चिल्ला पड़े और मुझे ही यह देखने को कहा कि बच्चे को ठीक से ऑक्सीजन जा रहा है या नहीं? भला एक बीमार बच्चे की मां किस तरह ऑक्सीजन सप्लाई को चैक कर सकती है जिसे इसके बारे में कोई भी तकनीकी जानकारी नहीं है।’’ अस्पताल के एक अधिकारी ने कहा,‘‘कितने ही ऐसे जरूरी उपकरण हैं जो मात्र 2 रुपए का तार न मिलने की वजह से बेकार पड़े हैं परंतु इन बातों पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है क्योंकि संबंधित विभागों के प्रमुख अपनी-अपनी रोटियां सेंकने में ही लगे रहे।’’ 

देश भर के अस्पतालों के आंकड़ों पर गौर करें तो ऐसे हालात हर ओर नजर आते हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सार्वजनिक चिकित्सा सेवाओं में 82 प्रतिशत शिशु रोग विशेषज्ञों की कमी है। राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक कमी है जिसके बाद तमिलनाडु, गुजरात, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल का नम्बर आता है। इसके साथ ही अन्य विशेषज्ञों की भी भारी कमी है। जैसे कि 40 प्रतिशत तक लैबोरेट्री तकनीशियन तथा 12 से 16 प्रतिशत तक नर्सें एवं फार्मासिस्ट कम हैं। देश भर में कुल मिला कर केवल 25 हजार शिशु रोग विशेषज्ञ हैं जबकि जरूरत 2 लाख की है। यह स्थिति इसलिए इस तथ्य को देखते हुए और भी गम्भीर है कि नवजात मृत्यु दर के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है। 

यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘एवरी चाइल्ड अलाइव’ के अनुसार दुनिया भर में नवजात बच्चों की होने वाली कुल मृत्यु दर में एक-चौथाई भारत में ही होती हैं जहां हर साल लगभग 6 लाख शिशुओं का निधन जन्म के 28 दिनों के भीतर हो जाता है। सबसे बड़ी दुख की बात तो यह है कि इन मौतों में से 80 प्रतिशत बिना किसी गम्भीर रोग से ही हो जाती हैं। ऐसे रोगों की वजह से ये मौतें होती हैं जो उपचार योग्य हैं अथवा उन्हें टाला जा सकता है। उदाहरण के लिए देश में साल 2018 में ही 1,27,000 बच्चों की मौत निमोनिया से हुई जो उपचार योग्य रोग है। इसे होने से वैक्सीन से रोका जा सकता है तथा सही डायग्नोज़ होने पर सस्ती एंटीबायोटिक दवाओं से उसका उपचार सम्भव है। जब हमारे अस्पताल इस तरह की बदहाली के शिकार होंगे तो फिर वहां से रोगियों के स्वास्थ्य लाभ की आशा करना ही व्यर्थ है। 

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