भारत में गठबंधन की राजनीति

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2017 02:46 PM

coalition politics in india

भारतीय लोकतंत्रा संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जहाँ जमीनी सच्चाई देश को गठबंध्न ...

भारतीय लोकतंत्रा संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जहां जमीनी सच्चाई देश को गठबंधन की राजनीति की ओर ध्केल रही है। पिछले दशक से लगभग हर चुनावों के बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण विभिन्न दलों की मिली जुली सरकार केन्द्र व राज्यों में निर्मित हो रही है। जिसे गठबंधन सरकार या कई दलों की मिली जुली मिश्रित सरकार कहा जाता है। संसदीय लोकतंत्रा में सरकार का गठन, उसका संचालन, पुनर्निर्माण, विशिष्ट संसाध्नों की उपलब्ध्ता, सहयोगियों की निश्चित संख्या, सुनिश्चित राजनीतिक आधर एवं राजनीतिक निपुणता आदि कारकों पर आधरित होता है। गठबंधन की राजनीति परिस्थितियों के गर्भ से उत्पन्न होती है। संसदीय शासन प्रणाली में उसी राजनीतिक दल को सरकार के गठन का अध्किार मिलता है जिसके पास विधयिका के निचले सदन में आधे  से अध्कि सदस्यों का समर्थन प्राप्त होता है।

ऐसी सरकार राजनीतिक सत्ता का प्रमुख केन्द्र होती है। इसके सभी सदस्य अथवा मंत्राीगण सामान्यतया एक ही राजनीतिक दल अथवा विचारधरा के प्रति प्रतिब( होते हैं इसलिए ऐसी सरकारों पर दलीय एकाध्किार होता है। लेकिन यदि आम चुनाव के पश्चात सदन में किसी राजनीतिक दल अथवा गुट को साधरण बहुमत हासिल नहीं हुआ है तो परिस्थिति गठबंधन राजनीति के निर्माण का आधर बनती है। जिसमें शामिल प्रत्येक घटक दल अपनी प्राथमिकताओं के निर्धरण एवं विकल्पों का चुनाव करते समय दलीय हित्त को सर्वोपरि महत्व देते हैं। हमारा देश गठबंधन सरकारों के युग में प्रवेश कर चुका है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी जैसे दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों के अतिरिक्त क्षेत्राीय दल भी भारतीय राजनीति का अटूट हिस्सा बन चुके हैं। भारत एक बहुभाषी, बहुध्र्मी और बहुजातीय समाज है। छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्राीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं।

हमारा देश समृृ( विविधताओं से भरपूर हैं। ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्रा में अभिव्यक्त होती हैं। हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की आवश्यकता है ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें। वास्तव में कोई भी राजनीतिक गठबंधन उसमें भागीदार राजनीतिक दलों के कार्यक्रम तथा उनकी सामाजिक एवं वर्गीय अध्रिचना के आधर पर निर्मित होता है। लेकिन कभी-कभी राजनीतिक विवशताएँ भी रानीतिक दलों को गठबंधन करने के लिए मजबूर कर देती हैं। उदाहरणस्वरूप वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में जाति की प्रभावशीलता चरम पर होने के बावजूद अकेले सत्ता प्राप्त करने में सक्षम नहीं है। इसलिए इसकी प्रतिपूर्ति या तो दल परिवर्तन के द्वारा अथवा सरकार के निर्माण के लिए दलों के आपसी गठबंधन के रूप में होती है।

संक्रमण के दौर से गुजरती भारतीय लोकतंत्रा की जमीनी सच्चाई देश को गठबंधन की राजधनी की ओर ध्केल रही है। किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों की मिली-जुली सरकार बनती है, जिसे संयुक्त सरकार, गठबंधन सरकार, संविदा सरकार जैसे कई नामों से जाना जाता है। वर्तमान समय में गठबंध्न सरकार का विकल्प तेजी से बढ़ रहा है। मिली-जुली सरकार के गठन और जीवन के कार्यकरण के लिए जिस प्रतिमा और संस्कृति की आवश्यकता होती है, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभी तक वस्तुतः उसका अभाव रहा है। राजनीतिक दलों के लिए गठबंधन करना आसान होता है लेकिन निभाना उतना ही कठिन होता है जिससे गठबंधन की सरकार विकास के वादे तो करती है। परन्तु विकास उस क्षेत्रा का होता है जहाँ के दल गठबंधन की सरकार में होते हैं।

स्पष्टतः गठबंधन की राजनीति एक मिली-जुली सरकार को जन्म देती है जिसमें दल अथवा गुट बुनियादी राजनीतिक सवालों पर एकमत होते हुए पूर्व निर्धरित कार्यक्रमों पर समझौता करते हैं। जातीय, धर्मिक, क्षेत्राीय एवं भाषायी आधर पर विभाजित समूहों को जोड़ने के लिए विचारधराएं पहले फेविकोल की तरह कार्य करती थी। वैचारिक शास्त्रों से लैस कार्यकर्ता वैचारिक विचलन के सवाल पर अपने नेतृत्व को घेरने में भी संकोच नहीं करते थे, लेकिन आज की राजनीतिक परिस्थिति इसके एकदम विपरीत है। आज भारत में कोई भी राजनीतिक दल वैचारिकता के ध्रातल पर ईमानदार नहीं है। इसके अतिरिक्त सामाजिक और क्षेत्राीय आधर पर विकास की गैरबराबरी भी भारत में छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के अस्तित्व में आने और उनके दिन-प्रतिदिन मजबूत होने का प्रमुख कारण बनती जा रही है।

राष्ट्रीय संदर्भ में गठबंध्न राजनीति का सूत्रापात प्रथम स्वतंत्राता संग्राम के समय हुआ। जब ब्रिटिश भारत के हिन्दू एवं मुस्लिम सिपाहियों ने कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी के प्रयोग के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरू( संयुक्त रूप से संघर्ष का शंखनाद किया था। भारत भूमि पर अलग-अलग दो ध्र्म के लोगों का ऐसा पहला गठजोड़ था जो राष्ट्र को विदेशी आध्पित्य से मुक्त कराने के लिए किया गया था। कालान्तर में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के गठबंध्न ने इस अभियान को और अध्कि तीव्रता प्रदान की। पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में गठित अन्तरिम सरकार गठबंध्न राजनीति की कोख से पैदा हुई सरकार थी। जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा जैसे राजनीतिक दलों ने मिलकर जन्म दिया था। भारत में गठबंध्न सरकार की स्थापना राज्य स्तर पर सर्वप्रथम 1953 में शुरू हो गई। 1953 में आन्ध् प्रदेश में संयुक्त मंत्रिमंडल का गठन, लेकिन 13 माह के बाद ही मंत्रिमंडल विघटित हो गया। इसी तरह उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश,  प. बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में मिली -जुली सरकार का निर्माण किया, लेकिन जनता की आशा मिथ्या साबित हुई और गठबंध्न सरकार से विभिन्न घटकों में इतनी अध्कि खींचतान हुई कि उनका अस्तित्व समाप्त हो गया।

राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम गठबंध्न सरकार की शुरूआत 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार के गठन के साथ मानी जाती है। 1 मई, 1977 के दिल्ली के ‘हाॅल आॅफ नेशन्स’ के भव्य समारोह में संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी तथा लोकतांत्रिक कांग्रेस के साथ मिलकर जनता पार्टी को जीवन प्रदान किया। संघीय स्तर  पर कांग्रेस के एक छत्रा शासन को पहली बार 1977 में जनता पार्टी की सरकार के रूप में सशक्त चुनौती मिली तथा डाॅ. राममनोहर लोहिया के द्वारा दिए गए गैर कांग्रेसवाद के नारे को स्वीकार करते हुए आम भारतीय मतदाता ने निर्वाचन के माध्यम से जनता पार्टी को शासन की बागडोर सौंप दी। परन्तु जनता पार्टी के घटक दल जनसाधरण के विकास एवं स्वयं के दलीय आधर को सुदृढ़ करने की अपेक्षा गठबंध्न के अन्दर अपने महत्व को लेकर अध्कि संघर्षरत रहे, जिससे जनता की आकांक्षाओंकी पूर्ति नहीं हो सकी, परिणामस्वरूप पार्टी और सत्ता दोनों की अकाल मृत्यु हो गई।

देश में संघीय स्तर पर इस तरह के अवसरवादी गठबंध्न के प्रयोग को 2 दिसम्बर, 1989 को राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार के गठन के रूप  में फिर से दोहराया गया। राष्ट्रीय मोर्चा की इस गठबंध्न सरकार में प्रमुख रूप से जनता दल, तेलगूदेशम्, असम गण परिषद, कांग्रेस ;एस.द्ध आर डी.एम.के. जैसे क्षेत्राीय राजनीतिक दल भागीदार थे। ये सभी दल गठबंध्न में सहयोगी होते हुए भी विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों पर परस्प्र विरोधी और तीक्ष्ण मतभेद रखते थे। जनता दल की तरह जनता पार्टी के घटकों के नेताओं की महत्वकांक्षा ने आगे चलकर सरकार की कार्य पति को गहराई से प्रभावित किया। जो अन्ततः गठबंध्न सरकार के पतन की प्रमुख वजह बनी। प्रधनमंत्राी पद के लिए वी.पी. सिंह के नाम को अस्वीकार करते हुए चन्द्रशेखर द्वारा स्वयं को प्रधनमंत्राी घोषित करना और चैध्री देवीलाल द्वारा वी.पी. सिंह का खुलकर समर्थन करना, इस प्रकार के घटनाक्रम से यह राजनीतिक गठबंध्न असमय बिखर गया।

राजीव गांधी की मृत्यु के बाद उपजी राष्ट्रव्यापी सहानुभूति के सहारे 10वीं लोकसभा चुनाव के पश्चात सबसे बड़े दल के रूप में उभरी कांग्रेस के नेता पी.वी. नरसिम्हाराव ने छोटे-छोटे राजनीतिक दलों एवं कुछ निर्दलीय सांसदों का समर्थन लेकर गठबंध्न सरकार का गठन किया। बाद में व्यापक पैमाने पर दल परिवर्तन कराकर कांग्रेस ने अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत की सरकार बना लिया। 28 जुलाई, 1979,1989, 1990 और 1991 तक कई बार गठबंधन सरकार की स्थापना हुई और अपना कार्यकाल पूरा करने में पहले ही गिर गई । 1996 व 1997 में क्रमशः वाजपेयी व देवगौड़ा की गठबंधन की सरकार बनी जो कार्यकाल पूरा करने से पूर्व की गिर गयी। ये सब देखकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज भारतीय राजनीति में छोटे-छोटे क्षेत्राीय दलों की भरमार ने देश को राजनैतिक अस्थिरता के दौर में पहुंचा दिया है। क्योंकि ये दल राष्ट्रीय हित नहीं बल्कि अपना क्षेत्राीय हित देखते हैं। वास्तविक रूप से त्रिशंकु सरकार का गठन 11वें लोकसभा चुनाव के बाद हुआ, इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी दलों को 194 स्थान, कांग्रेस को 140 स्थान और क्षेत्राीय दलों को 150 स्थान प्राप्त हुए और भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंध्न की सरकार मात्रा 13 दिन चली।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंध्न में शामिल घटक दलों के दबाव के कारण भाजपा को अपने विवादास्पद राजनीतिक मुद्दे गोवध् निषेध् अनुच्छेद 370 को हटाना, समान नागरिक संहिता एवं राम मंदिर निर्माण आदि को सरकार की कार्यसूची से बाहर रखना पड़ा। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्राीय दलों के प्रभाव में भारी वृद्धिहुई। 12वीं लोकसभा चुनाव के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 253 स्थान प्राप्त कर सरकार का गठन किया। गठबंध्न में सम्मिलित विभिन्न राजनीतिक दलों के पूर्वाग्रह व्यक्तिगत रूझान एवं महत्वपूर्ण काक्षाएं अन्ततः 13 माह बाद ही वाजपेयी सरकार को ले डूबी।

13वें लोकसभा चुनाव 1999 में एक बार फिर त्रिशंकु लोकसभा का गठन जिसमें भारतीय जनता पार्टी को सर्वाध्कि 182 स्थान,कांग्रेस को 114 स्थान एवं क्षेत्राीय दलों को 162 स्थान प्राप्त हुए। केन्द्र में एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 24 दलों की गठबंधन सरकार का गठन किया गया। इस सर्वाध्कि घटक दलों वाली सरकार ने 5 वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया। 14 वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी पूर्व की एकाध्किारवादी राजनीतिक दल की धरणा को छोड़करगठबंधन राजनीति की आवश्यकता को गंभीरता से लिया और राष्ट्रीय स्तर पर छोटे-छोटे राजनीतिक दलों का गठबंधन करके डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंध्न की सरकार बनाई और 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा किया। 15 वीं लोकसभा चुनाव 2009 में पहली बार दो प्रमुख राजनीतिक गठबंध्न राष्ट्रीय जनतांत्रिक एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन  के बीच लड़ा गया और एक बार पुनः डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। जिसे इतिहास में घोटालों की सरकार के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

16 वीं लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व करिश्माई नेता श्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा और संयुक्त प्रगतिशील गठबंध्न ने सोनिया और राहुल गांधी को आगे रखा। श्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के पिछले कार्यकाल में हुए बड़े-बड़े घोटालों - कोयला घोटाला, 2 जी स्पैक्ट्रम स्कैम, राष्ट्रमंडल खेल स्कैम, राॅबर्ट वडेरा लैण्ड डील आदि को जनता के सामने रखा और साथ ही श्री मोदी जी ने अपने विजन में जनता के दिल को छू लेने वाली बातों को रखा जिसका जनता ने भरपूर समर्थन करते हुए भारतीय जनता पार्टी अकेली को 282 स्थान प्राप्त हुए और लम्बे समय बाद केन्द्र में किसी एक राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ, जो किसी करिश्मे से कम नहीं था। विपक्ष में कांग्रेस को प्रतिपक्ष के नेता के चयन के लिए निर्धरित 10 प्रतिशत स्थान प्राप्त नहीं हुए केवल 44 स्थान मिले और अन्ना द्रविड़ मुनेत्रा कडगम, तुणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, शिवसेना को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्राीय दलों का सफाया हो गया और खींचतान व लूटपाट वाली गठबंधन का दौर समाप्त हो गया, जो भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत है।

भारतीय समाज जाति, पंथ, मजहब, वर्ग एवं क्षेत्राीय संकीर्णताओं में बंटा हुआ है। यहां प्रत्येक राजनीतिक दल का अलग जातीय आधर है तो जातियों की अलग राजनीतिक पार्टियां हैं। यदि क्षेत्रावादी पार्टियाँ हैं तो राजनीतिक दलों की प्रभावशीलता के कुछ खास क्षेत्रा भी हैं। सामाजिक एवं राजनीतिक आधर पर इच्छाओं, अपेक्षाओं, आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के इस विखण्डन से आम चुनावों में किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त करना कठिन है। फलस्वरूप सरकार के निर्माण एवं उसके संचालन के लिए गठबंध्न राजनीति प्रारम्भ होती है।

देश में प्रायः दो प्रकार का राजनीतिक गठबंधन का स्वरूप देखने को मिलता है। प्रथम- वे गठबंधन जो कुछ विशेष राजनीतिक दलों के द्वारा एक निश्चित कार्यक्रमों के आधर पर आम चुनाव के पूर्व बना लिए जाते हैं। द्वितीय- वे गठबंध्न जो चुनाव के पश्चात् बनता है और परिस्थितिजन्य होता है। यह उस समय अस्तित्व में होता है जब आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है। चुनाव के पूर्व जो गठबंधन बनते हैं उनमें अवसरवादिता के तत्व कम होते हैं और साथ ही साथ कार्य करने का आधर बन जाता है। लेकिन चुनाव के बाद और चुनाव से उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए जो गठबंधन बनाये जाते हैं, उनमें इस प्रकार की अवसरवादिता के तत्व अध्कितर अंशों में विद्यमान रहते हैं और यही बात इस गठबंध्न को कमजोर कर देती है।

गठबंधन सरकार के अब तक के अनुभव से स्पष्ट है कि यह हमारे देश के लिए उचित नहीं हैं विगत कुछ वर्षोे से राष्ट्रीय राजनीति में जो बिखराव आया है। उससे गठबंधन सरकार से मुंह नहीं मोड़ा जो सकता है। आज कोई भी राजनीतिक दल अपने बूते पर केन्द्र में या राज्य में सरकार नहीं बना सकता। अनचाही गठबंधन सरकार देश की नीति बन चुकी है। भारतीय राजनीति में पिछले दो दशकों से सांझा सरकारों का स्वरूप विकसित होकर सामने आया है। यहां गठबंधनकी राजनीति सिर्फ सतही नहीं है बल्कि उसकी जड़े गहरे रूप में जम चुकी हैं। भारत में गठबंधन की राजनीति सिर्फ भौंक ही नहीं सकती बल्कि गहरे तरीके से काट भी सकती है।

वस्तुतः राजनीतिक गठबंधन बेशक सत्ता सुख सुलभ कराते हैं। लेकिन इसमें शामिल घटक दलों की बार-बार की दोस्ती धेखाध्ड़ी एवं सौदेबाजी ही गठबंधन राजनीतिक की कड़ी सच्चाई बन गई है। यह राष्ट्रीय और राजनीतिक दायित्वों के प्रति गैर जिम्मेदार और गैर जवाबदेह होता है। ऐसे गठबंध्नों का कोई राष्ट्रीय चरित्रा नहीं होता । ये केवल सत्ता की बंदर बांट के लिए किए जाते रहे हैं। अस्वाभाविक गठबंधन भारतीय राजनीति की व्यावहारिक सच्चाई है। गठबंधन निर्वाचन के पहले या पश्चात् कार्यक्रम व नीतियों में समानता रखने वाले दलों के बीच होता है। गठबंध्न के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों में नेतापद व मंत्राीपद के लिए तनाव उत्पन्न हो जाता है। ऐसे में संभव है कि क्षुब्ध् राजनीतिक दल गठबंधन से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा देते हैं और देश पर पुनः आम चुनाव को थोप देते हैं, उसके परिणाम अत्यन्त भयानक होते हैं।

भारत में गठबंधन व्यवस्था राजनीतिक अस्थिरता का प्रमुख कारण है जो हमारे देश के लिए उचित नहीं है। परन्तु गत वर्षो में भारत की राजनीति में जो नया मोड़ आया है उसमें गठबंधन की सरकार को नकारा भी नहीं जा सकता। क्षेत्राीय दल स्थानीय मुद्दों को बहुत ही प्रमुख स्थान देते हैं और सरकार की गलत नीतियों एवं मनमानी पर रोक लगाते हैं। मिली-जुली सरकार की सफलता के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल अहंवादी व्यक्तित्व और अनुशासनहीनता का त्याग कर सार्वजनिक नैतिकता के भाव को ग्रहण करें। भारतीय संविधन एवं राजव्यवस्था के विद्वानों तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच मिली-जुली सरकार के गठन और कार्य कारण की समस्त प्रक्रिया पर गंभीर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। इस बात पर विचार करना होगा कि राज्य व केन्द्र में मिली-जुली सरकार की राजनीति से उत्पन्न राजनीतिक अस्थायित्व को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सके। जिससे राजनीतिक दल व्यक्तिगत हितों को त्यागकर सामाजिक हितों को महत्व दें और भ्रष्टाचार को खत्म करने का प्रयास करें।

हमें अपने देश की राजनीतिक परिस्थितियोें और राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप मार्ग खोजना होगा। इस प्रकार गठबंध्न सरकार विभिन्न राजनीतिक दलों के परस्पर सहयोग से बनती हैं। इसमें विभिन्न मतों और नीतियों को मानने वाले दल सम्मिलित होते हैं। जब गठबंधन की नीतियों का निर्धरण किया जाता है, तब उसमें सम्मिलित सभी राजनीतिक दलों द्वारा विचार-विमर्श किया जाता है। सभी दलों के विचारों को मिश्रण ही नीति का रूप ग्रहण करता है। गठबंधन सरकार साझा कार्यक्रम बनाती है और उसका सामूहिक उत्तरदायित्व होता है।

सरकार द्वारा लिए गए निर्णय उसके विभिन्न घटक दलों के निर्णय माने जाते हैं। गठबंधन सरकार राजनीतिक समुदायों अथवा समुदायों अथवा शक्तियों का गठजोड़ है, जो अस्थायी तथा कुछ विशिष्ट प्रयोजनों के लिए होता है। जिन दलों के सहयोग के परिणामस्वरूप गठबंधन सरकारों का निर्माण होता है, वे एक बुनियादी राजनीतिक कार्यक्रम के ऊपर एकमत होती हैं। क्या गठबंधन सरकारों का प्रयोग विफल रहा है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ या ना में देना कठिन है। मिली जुली सरकारों का अनुभव भी मिला-जुला है। गठबंधन सरकार सहयोगी दलों से बहुत अध्कि मात्रा में सहनशीलता और कर्तव्य परायणता की मांग करती है।

-डॉ लाखा राम चौधरी

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