Edited By ,Updated: 02 Jan, 2024 06:09 AM
हमारी सुप्रीमकोर्ट में 7 सालों तक न्यायमूर्ति रह कर जस्टिस संजय किशन कौल 26 दिसम्बर 2023 को न्यायालय से विदा हुए। जस्टिस कौल 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में जज बने थे तथा वहीं स्थानापन्न चीफ जस्टिस भी रहे।
हमारी सुप्रीमकोर्ट में 7 सालों तक न्यायमूर्ति रह कर जस्टिस संजय किशन कौल 26 दिसम्बर 2023 को न्यायालय से विदा हुए। जस्टिस कौल 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में जज बने थे तथा वहीं स्थानापन्न चीफ जस्टिस भी रहे। फिर पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट तथा मद्रास हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस रहे। 2017 में वे सुप्रीमकोर्ट पहुंचे। वे वहां कॉलेजियम के सदस्य भी रहे तथा हमारे दौर के कई अत्यंत संवेदनशील मामलों के फैसलों में, जिनमें निजता का अधिकार, समान यौन विवाह, राफेल सौदा, धारा 370 आदि शामिल हैं, जस्टिस कौल की भागीदारी रही। ये सारे ही मामले ऐसे हैं जिसने सुप्रीमकोर्ट की गहरी परीक्षा ली है और देश को ऐसा लगा है कि सुप्रीमकोर्ट ऐसी परीक्षाओं में सफल नहीं रहा है।
इन मामलों में अदालती फैसले जिनके हित में गए उन्हें भारी राहत भी मिली और उन्होंने हमारी न्याय-व्यवस्था में गहरी आस्था भी प्रकट की लेकिन सुप्रीमकोर्ट का अपना क्या हुआ ? जस्टिस कौल ने न्यायपालिका से मुक्ति के बाद एक अखबार को लंबा इंटरव्यू दिया है जिसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए। उस इंटरव्यू से पता चलता है कि हमारी न्यायपालिका और हमारे न्यायाधीश किस बीमारी के शिकार हैं और क्यों उनकी भूमिका से देश को बार-बार निराश होना पड़ता है।
सुप्रीमकोर्ट जब दीवानी या फौजदारी मामलों में हाथ डालता है तब उसके फैसलों को जांचने की कसौटी भी और उनका परिणाम भी वक्ती होता है। जब वही सुप्रीमकोर्ट संवैधानिक मामलों की जांच करता है तब उसके फैसलों को जांचने की एक ही, मात्र एक ही कसौटी होती है और वह कसौटी है भारतीय संविधान! भारत के नागरिकों ने आपको यही एक किताब पहनने-ओढऩे-बिछाने के लिए दी है। यह जो आपकी किताब है श्रीमान, उसे आपने कितनी शिद्दत से पढ़ा और कितनी गहराई से समझा है, इसे जांचने व समझने का भी हमारे पास एक ही जरिया है। आपके फैसले! मैं यह भी कहना चाहता हूं कि आपके पास अपने फैसलों का संदर्भ खोजने व बनाने के लिए इस किताब से अलग दूसरी न कोई किताब है, न होनी चाहिए। यह किताब ही आपकी गीता, बाइबल या कुरान है। आपने इस किताब के अलावा क्या-क्या पढ़ा है, इसे जानने में देश को कोई खास दिलचस्पी नहीं है।
जस्टिस कौल ने अपने इंटरव्यू में एक जज की हैसियत से संवैधानिक व्यवस्था के बारे में जिस तरह की बातें कही हैं, जिस तरह की मुश्किलों व युक्तियों का जिक्र किया है, उनसे न केवल मैं निराश हूं बल्कि गहरी शंका से भी घिरा हूं कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर समझ, सोच व चुनौतियों को पहचानने के संदर्भ में ऐसी धुंधली छाया है?शताब्दियों तक राजनीतिक-मानसिक-सांस्कृतिक व बौद्धिक गुलामी में रहने वाला एक नवजात मुल्क जब ‘नियति से एक वादा करता हुआ’ अपनी आंखें खोलता है, तब हम उसके हाथ में एक किताब धर देते हैं - हमारा संविधान ! यह उन सपनों का संकलन है जो अपने लंबे स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न दौरों से गुजरते हुए हमारी चेतना ने देखा-समझा और अंतर्मन में बसा लिया। उन सपनों को किसी हद तक आकार व आत्मा गांधी जी ने दी।
हमारा यह संविधान जैसे लोकतंत्र की कल्पना करता है, उसके विकास की दिशा उसने राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में स्पष्ट दर्ज कर रखी है। सुप्रीमकोर्ट का यह सारा तामझाम और इसका पूरा बोझ देश ने इसलिए ही उठा रखा है कि यह किताब हमारे लोकतंत्र को जिस दिशा में ले जाना चाहती है, उस दिशा से कोई भटकाव या उसकी दिशा में ही कोई विपरीत परिवर्तन न कर सके।
इसका सीधा मतलब है कि हमारे संविधान ने सुप्रीमकोर्ट को एक सतत व अखंड विपक्ष में रहने की भूमिका सौंपी है। ऐसे सुप्रीमकोर्ट की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे जस्टिस कौल ऐसी भ्रमित अवधारणा में जीते हैं कि ‘अदालत विपक्ष नहीं हो सकती है।’ अदालत कभी भी विपक्षी दल नहीं हो सकती है, यह बात तो संविधान का ककहरा जानने वाला भी समझता है लेकिन जस्टिस कौल जैसे लोग यह कैसे नहीं समझते हैं कि एक लिखित संविधान के शब्द-शब्द व शब्दों के पीछे बसने वाली उसकी आत्मा की पहरेदारी जिसे सौंपी गई है, जिसके प्रति वह सार्वजनिक तौर से वचनबद्ध हुआ है, वह सतत विपक्ष की भूमिका को स्वीकार है?
संविधान की दूसरी सारी व्यवस्थाएं अपनी भूमिका बदल सकती हैं, आज का विपक्ष कल सत्ता पक्ष बन सकता है लेकिन न्यायपालिका को हर हाल में, हर वक्त विपक्ष में ही रहना है। जस्टिस कौल जैसे लोग यह तो कह सकते हैं कि ऐसी भूमिका का निर्वहन हमसे नहीं हो सकेगा। वे ईमानदारी व हिम्मत से यह कहेंगे तो संविधान उन्हें इस भार से मुक्त हो जाने की छूट भी देता है, लेकिन सालों-साल उस जगह बैठ कर, उस जगह की बुनियादी चुनौती से मुंह मोडऩा संवैधानिक अपराध है।
विधायिका में किसका कितना बड़ा बहुमत है, यह बात न्यायपालिका के लिए कैसे मतलब की हो सकती है ? वह अल्पमत की सरकार हो या दानवी बहुमत की, सुप्रीमकोर्ट के पास उसको तौलने का तराजू तो एक ही है : संविधान ! उस वक्त की सरकार का हर वह फैसला सुप्रीमकोर्ट को स्वीकार होगा जो संविधान के शब्द व उसकी आत्मा के अनुरूप है; जो फैसला ऐसा नहीं है वह कितने भी बहुमत से लिया गया हो, सुप्रीमकोर्ट की नजर में वह धूल बराबर भी नहीं होना चाहिए. सुप्रीमकोर्ट को इसके लिए न कोई लड़ाई लडऩी है, न कोई नारेबाजी करनी है, न किसी की पक्षधरता करनी है। उसे बस संवैधानिक भाषा में घोषणा करनी है।
हमारे संविधान में एक ही संप्रभु : भारत की जनता, बाकी जितनी भी संवैधानिक संरचनाएं हैं उनकी उम्र संविधान में तय कर दी गई है और उनमें से कोई भी संप्रभु नहीं है- न न्यायपालिका, न विधायिका, न कार्यपालिका और न प्रैस ! संविधान ने इन सबको एक हद तक स्वायत्तता दी है लेकिन इन सबका परस्परावलंबन भी सुनिश्चित कर दिया है। सबकी चोटी एक-दूसरे से बंधी है। इतना ही नहीं, संवैधानिक व्यवस्था ऐसी बनी है कि एक अपने दायित्व के पालन में कमजोर पड़ता है तो दूसरा आगे बढ़ कर उसे संभालता भी है और पटरी पर लौटा भी लाता है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति में इंदिरा-कांग्रेस की मनमानी, प्रैस पर अंकुश लगाने की लगातार की कोशिशें, आपातकाल की घोषणा आदि संसद की विफलता के कुछ उदाहरण हैं, तो आपातकाल का संवैधानिक समर्थन करने में सुप्रीमकोर्ट का पतन भी हमने देखा है; उसी दौर में हमने यह भी देखा है कि भारतीय प्रैस के मन में अपनी स्वतंत्रता का कोई मान नहीं है। सामाजिक दायित्व के बोध से शून्य व बला की भ्रष्ट कार्यपालिका को एकाधिकारशाही की धुन पर नाचते भी हमने देखा। और फिर हमने इन सबको किसी हद तक पटरी पर लौटते भी देखा है जिसमें सबने एक-दूसरे की मदद की है।
जस्टिस कौल की सोच-समझ पर इन सारे अनुभवों की कोई छाप नहीं दिखाई देती है लेकिन वे यह कहते जरूर मिलते हैं कि ‘नैशनल ज्यूडिशियल एप्वाइंटमैंट कमीशन’ को खारिज कर सुप्रीमकोर्ट ने गलती की। जस्टिस कौल की चिंता यह नहीं है कि जो कॉलेजियम व्यवस्था पूरी तरह सुप्रीमकोर्ट के हाथ में है, उसे सुधारने तथा पारदर्शी बनाने की दिशा में पर्याप्त काम क्यों नहीं किया गया जबकि वे तो स्वयं ही कॉलेजियम के सदस्य भी रहे हैं। तब उन्होंने इस व्यवस्था के साथ कैसा सलूक किया था? अपने हाथ मजबूत कैसे बनें, इसकी जगह जस्टिस कौल की चिंता यह है कि सरकारों के साथ तालमेल कैसे बने!
अब चुनाव आयोग की जैसी संरचना संसद ने पारित की है, उस बारे में जस्टिस कौल क्या करेंगे? अब तो चुनाव आयोग के चयन का काम, किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी नियुक्त करने जैसा बना दिया गया है। क्या ऐसा चुनाव आयोग संविधान की उस भावना का संरक्षण कर सकेगा जो कहती है कि चुनाव आयोग स्वतंत्र व स्वायत्त होना चाहिए? संसद का यह कानून यदि सुप्रीमकोर्ट पहुंचा तो वह इसकी समीक्षा किस आधार पर करेगा? सरतोड़ बहुमत वाली सरकार का यह फैसला है, इस आधार पर या जिस संविधान के संरक्षण का दायित्व सुप्रीमकोर्ट के पास है, उसकी भावना के आधार पर? हम जस्टिस कौल का जवाब जानना चाहते हैं।-कुमार प्रशांत