‘हर्बल सम्पदा’ की चोरी और तस्करी से विनाश

Edited By ,Updated: 22 Feb, 2020 05:05 AM

destruction by theft and smuggling of  herbal wealth

हमारा देश कुछ इस प्रकार की भौगोलिक स्थिति से बना है कि हम अनेक मामलों में दुनिया के सभी देशों से भाग्यशाली कहे जा सकते हैं। हमारा प्रहरी हिमालय पर्वत है और इससे जुड़ी समस्त पर्वतमाला विशाल प्राकृतिक स्रोतों का भंडार है। हमारे वन इतने घने हैं कि...

हमारा देश कुछ इस प्रकार की भौगोलिक स्थिति से बना है कि हम अनेक मामलों में दुनिया के सभी देशों से भाग्यशाली कहे जा सकते हैं। हमारा प्रहरी हिमालय पर्वत है और इससे जुड़ी समस्त पर्वतमाला विशाल प्राकृतिक स्रोतों का भंडार है। हमारे वन इतने घने हैं कि उनमें प्रवेश करना बहुत खतरनाक और असंभव जैसा है। कदाचित प्रकृति ने हमारे वन्य प्रदेशों की रचना इतनी जटिल और कठिन इसलिए ही की है क्योंकि इनमें ऐसे खजाने छुपे हैं जो विश्व में और कहीं नहीं हैं। 

अनमोल सम्पदा
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू -कश्मीर, लद्दाख, उत्तर पूर्व के  प्रदेश, महाराष्ट्र तथा दक्षिण राज्यों के वन्य प्रदेश ऐसी अनमोल सम्पदा अपने अंदर समाए हुए हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी वन्य प्रदेश से नहीं की जा सकती। यही कारण है कि हमारी वन सम्पदा हमेशा से विदेशियों की नजर में खटकती रही है और वे किसी भी कानूनी और ज्यादातर गैर कानूनी तरीके से उस पर कब्जा करने में सफल होते जा रहे हैं। जिन्हें हम जड़ी-बूटी और वन्य उपज के नाम से जानते हैं, वह कितनी उपयोगी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी भयानक रोग के इलाज में इनका इस्तेमाल दुनिया की बड़ी-बड़ी फार्मेसी कम्पनियां करती हैं और क्योंकि उनके लिए इन्हें सही रास्ते से पाना आसान नहीं है इसलिए वे ऐसे सभी हथकंडे अपनाती हैं जिनसे उनकी चाल कामयाब हो जिसके लिए वे छल, बल और धन तीनों का इस्तेमाल करती हैं। 

यदि आप वनों में घूमने के शौकीन हैं या आप कोई शोध करने के लिए इन स्थानों पर जाते हैं तो आपको वहां सैलानियों की तरह व्यवहार करते कुछ देशों, खास तौर से चीन, जापान, ब्रिटेन के लोग घूमते मिल जाएंगे। ये पर्यटक नहीं बल्कि इन देशों के वैज्ञानिक हो सकते हैं जो चोरी-छिपे हमारे पेड़-पौधों और उनसे मिलने वाले फल, फूल, छाल और दूसरी सामग्री की पहचान कर उनकी चोरी और तस्करी करने के लिए यहां आते हैं। 

वन्य प्रदेशों में रहने वाले अधिकतर आदिवासी होते हैं और वे स्वभाव से सीधे होते हैं। इसी के साथ जो आसपास के गांव हैं वहां सरपंच, स्थानीय विधायक और सांसद इस बात से पूरी तरह परिचित होते हैं कि उनका क्षेत्र कितना मूल्यवान है और इसकी कितनी कीमत वसूली जा सकती है। अब क्योंकि हमारे वनवासी गरीबी, अज्ञानता और साधनहीनता के कारण इनके प्रलोभन में आ जाते हैं तो वे अनजाने में तस्करी नैटवर्क का हिस्सा बन जाते हैं। उनका जबरदस्त शोषण होता है और इस तरह जीवनदायिनी वन्य सम्पदा उनसे छीन ली जाती है। अनेक पौधे लुप्त होते जा रहे हैं। इसके लिए तस्करों द्वारा जिस विधि का इस्तेमाल होता है उसे हत्या कहना सही होगा। होता यह है कि तस्कर उन पौधों को जड़ से उखाड़ देते हैं और उस जगह को समतल कर देते हैं ताकि वे दोबारा पनप न सकें और वे अपने देश ले जाकर उन्हें रोप दें और अपना कह  सकें और बड़े पैमाने पर उसकी खेती कर मालामाल हो जाएं और अगर हमें या किसी और को उनका किसी दवाई बनाने में इस्तेमाल करना है तो मनमानी कीमत वसूल सकें। 

जीवन रक्षक औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधनों के बाजार पर कुछ विदेशी कम्पनियों का कब्जा है और विडंबना यह है कि इनके बनाने में जिन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल होता है, वे भारत के अतिरिक्त कहीं और उग नहीं सकतीं। एक उदाहरण है। हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा पौधा है जो वहां लगभग 6 महीने बर्फ में दबा रहता है और जब बर्फ  पिघलती है तब ही बाहर किसी को दिखाई देता है। अनेक देशों और हमारे वैज्ञानिकों ने यह कोशिश की कि उसे अपने यहां उगा लें, यहां तक कि फ्रिज में उगाने की भी कोशिश हुई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। हिमालय की बर्फ में ही वह गुण है जो उसे अनोखा बनाता है। 

हर्बल सम्पदा का संरक्षण
औषधीय और सौंदर्य प्रसाधनों के लिए इस्तेमाल होने वाले पौधों और उनसे प्राप्त सामग्री को संरक्षण देने के लिए तथा इसके साथ ही विदेशियों द्वारा इनका कॉपीराइट अपने नाम पर कराने की चाल को रोके जाने के लिए करना यह होगा कि इनका व्यापक प्रचार हो और बड़े पैमाने पर इनकी खेती करने के लिए आवश्यक प्रबंध किए जाएं। आदिवासी क्षेत्रों में रहने वालों को इनकी रक्षा करने और उन्हें लुप्त होने से रोकने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और इनकी उपज में गुणात्मक सुधार करने के लिए आधुनिक तकनीकों को उन तक पहुंचाया जाए। इससे आदिवासी और वनवासी समुदाय की आमदनी भी बढ़़ेगी और वे इनका महत्व समझेंगे। 

90 प्रतिशत उत्पादक यह नहीं जानते कि इन जड़ी-बूटियों को कहां बेचा जाए और उसी कारण वे तस्करों के जाल में फंसकर अपना और देश का नुक्सान कर लेते हैं। अगर उनकी रक्षा करनी है और हर्बल उद्योग को विकसित करना है तो इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है कि सरकार उत्पादक को प्रोत्साहित करे, प्रोसैसिंग की सुविधाओं का आदिवासी क्षेत्रों में विकास करे और बिक्री का पारदर्शी तरीके से इंतजाम करे। हमारे वन्य क्षेत्रों में इतनी क्षमता है कि वे किसी भी बीमारी का इलाज करने की औषधि दे  सकते हैं, मनुष्य को लम्बी आयु का वरदान दे सकते हैं और उसे चिरकाल तक स्वस्थ और सुंदर बनाए रख सकते हैं।-पूरन चंद सरीन

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