उच्च शिक्षण संस्थानों में बिगड़ते हालात; एक गंभीर समस्या

Edited By ,Updated: 31 Mar, 2024 05:40 AM

deteriorating conditions in higher educational institutions a serious problem

किसी भी विकसित राष्ट्र का आधार वहां की शिक्षा प्रणाली होती है, परंतु इस 21वीं सदी में भी भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था से आज लगभग सभी तबकों को शिकायत है। अभिभावक, छात्र और अध्यापक सभी शिक्षा व्यवस्था में सुधार चाहते हैं, परंतु सुधार की आकांक्षा का...

किसी भी विकसित राष्ट्र का आधार वहां की शिक्षा प्रणाली होती है, परंतु इस 21वीं सदी में भी भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था से आज लगभग सभी तबकों को शिकायत है। अभिभावक, छात्र और अध्यापक सभी शिक्षा व्यवस्था में सुधार चाहते हैं, परंतु सुधार की आकांक्षा का अभिप्राय: सबके लिए एक सा नहीं है। 

पढ़ाई के लिए अवसरों की कमी यानी प्रवेश, शिक्षण की गुणवत्ता का ह्रास, अध्ययन-अध्यापन की परिस्थितियों में सुधार, रोजगार के अवसरों का अभाव और महंगा होता शिक्षण-प्रशिक्षण ऐसे खास मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर वर्षों से चिंता व्यक्त की जा रही है। इन्हें लेकर सरकारी तंत्र के कामचलाऊ रवैये के कारण छात्रों, अभिभावकों, शिक्षाविदों और नीति-निर्धारकों सभी में असंतोष है। देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक शिक्षण पद्धति को लेकर अजीब भ्रम, विरोधाभास और दुविधा की स्थिति बनी हुई है। 

इन सभी मुसीबतों से बाहर आने के अब तक जितने भी उपाय सोचे गए, वे शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण पर जाकर सिमटते रहे हैं। हालांकि नई शिक्षा नीति में सुधार के अनेक उपाय किए गए हैं, लेकिन बीते 3 वर्षों में उनके अनुकूल परिणाम नहीं निकले। इसे उच्च शिक्षण संस्थानों की विडंबना ही कहा जाएगा कि इनमें बड़ी संख्या में छात्र बीच में पढ़ाई छोड़ और खुदकुशी कर रहे हैं। आंकड़ों की मानें तो वर्ष 2019 से लेकर अभी तक 32 हजार छात्र उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई छोड़ चुके हैं। वहीं इन्हीं 5 वर्षों में 98 छात्रों ने खुदकुशी कर ली। 2023 में ही अब तक आत्महत्या की 20 घटनाएं घट चुकी हैं। किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की कामयाबी इसमें है कि शुरूआती से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के मामले में एक निरंतरता हो। 

अगर किसी वजह से आगे की पढ़ाई करने में किसी विद्यार्थी के सामने अड़चनें आ रही हों तो उसे दूर करने के उपाय किए जाएं। लेकिन बीते कई दशकों से यह सवाल लगातार बना हुआ है कि एक बड़ी तादाद में विद्यार्थी स्कूल-कॉलेजों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और उनकी आगे की पढ़ाई को पूरा कराने के लिए सरकार की ओर से ठोस उपाय नहीं किए जाते। इस मसले पर सरकार से लेकर शिक्षा पर काम करने वाले संगठनों की अध्ययन रिपोर्टों में अनेक बार इस चिंता को रेखांकित किया गया है, लेकिन अब तक इसका कोई सार्थक हल सामने नहीं आ सका है। तमाम सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं से शिक्षा महंगी होती जा रही है, प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, स्तर के स्कूलों एवं कालेजों में प्रवेश असंभव होने से निजी स्कूलों एवं कालेजों में बच्चों को पढ़ाना विवशता बनती जा रही है। कोई परिवार हिम्मत करके निजी स्कूलों एवं कालेजों में प्रवेश दिलाते भी हैं तो आर्थिक मजबूरी के कारण उन्हें बीच में बच्चों को स्कूल से निकाल लेने को विवश होना पड़ता है। सरकार की बड़ी-बड़ी योजनाओं के बीच छात्रों के स्कूल-कालेज छोडऩे की स्थितियों को गंभीरता से लेना होगा। शिक्षा को पेचीदा बनाने की बजाय सहज, निष्कंटक, कम खर्चीली एवं रोचक बनाना होगा। 

शिक्षा को रोचक बनाना भी जरूरी है ताकि कुछ बच्चों को स्कूल-कालेज बोरिंग न लगे, 9वीं और 10वीं कक्षा तक आते-आते कई बच्चों को स्कूल-कालेज बोरिंग लगने लगता है। इस कारण वे स्कूल-कालेज देरी से जाना चाहते हैं, क्लास बंक कर देते हैं और लंच ब्रेक में बैठे रहते हैं। पढ़ाई से लगाव न होने की वजह से अक्सर छात्र स्कूल-कालेज छोड़ देते हैं। किसी भी वजह से छात्रों का पढ़ाई छोडऩे का मन करना, अभिभावकों के लिए एक बड़ी परेशानी है, लेकिन यह शिक्षा की एक बड़ी कमी की ओर भी इशारा करता है। 3 साल पहले लागू हुई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उत्साहजनक असर किसी भी शिक्षण संस्थान पर शत प्रतिशत पड़ा हो, ऐसा कहना मुश्किल है। कोटा के कोचिंग संस्थानों में निरंतर छात्रों द्वारा की जा रही खुदकुशी की पड़ताल करने से पता चलता है कि छात्रों को अभिभावक अपनी इच्छा के अनुसार बड़ा बनाने की होड़ में लगे हैं। 

कुछ समय पूर्व केरल के रहने वाले एक छात्र ने आत्महत्या से पूर्व पत्र में लिखा था, ‘माफ करना मम्मी-पापा, आपने मुझे जीवन दिया, लेकिन मैंने इसकी कद्र नहीं की।’ यह पीड़ादायी कथन उस किशोर का था, जो आई.आई.टी. की तैयारी में जुटा था। ये संस्थान प्रतिभाओं को निखारने का दावा अपने विज्ञापनों में खूब करते हैं। मगर युवाओं को महान और बड़ा बनाने का सपना दिखाने का इस उद्योग का दावा कितना खोखला है, इसका पता यहां बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति से चलता है। शिक्षा के इस उद्योग का गोरखधंधा देशव्यापी है। यहां करीब एक लाख बच्चे हर साल कोचिंग लेने के अलावा 10वीं, 11वीं और 12वीं में नियमित छात्र के रूप में पढऩे आते हैं। अब तो हमने केवल व्यावसायिक शिक्षा को ही जीवन की सफलता की कुंजी मान लिया है।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा      

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