पापी हो या पुण्यात्मा, सबका रक्षक है संविधान

Edited By ,Updated: 27 Apr, 2024 05:14 AM

whether a sinner or a virtuous soul the constitution is everyone s protector

बहुत ही सोच-विचार के बाद बाबा साहेब अंबेडकर के नेतृत्व में भारत का भाग्य विधाता संविधान रचा गया। यह लचीला और समावेशी तथा सब को साथ लेकर अर्थात समाहित करने के उद्देश्य से बना है।

बहुत ही सोच-विचार के बाद बाबा साहेब अंबेडकर के नेतृत्व में भारत का भाग्य विधाता संविधान रचा गया। यह लचीला और समावेशी तथा सब को साथ लेकर अर्थात समाहित करने के उद्देश्य से बना है। 

संविधान की विशेषता : सबसे पहले इस तथ्य पर आते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक संशोधन हमारे ही संविधान में हुए हैं। जब से यह लागू हुआ, औसतन हर साल इसे 2 बार मतलब 106 बार संशोधित किया जा चुका है। जब यह है तो समझा जा सकता है कि इसे बदलने का जोखिम मतलब नए सिरे से लिखवाने का काम कोई सिरफिरा ही सोच सकता है। इसे कोई खतरा नहीं है, न लोकतंत्र को और न ही इसके अंतर्गत रखे गए किसी भी प्रावधान को क्योंकि इसमें कुछ भी जोड़ा या घटाया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधानों से लिए गए महत्वपूर्ण और राजकाज भली-भांति चलाने वाले सिद्धांतों और नियमों पर आधारित हमारा संविधान निर्मित हुआ है। इसका लचीलापन इसकी विशेषता है लेकिन यह भी सच है कि कुछ नेताओं और उनके दल की सरकारों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इसी बात का फायदा उठाया और अनेक संशोधनों के जरिए कुछ ऐसी बातें इसमें शामिल करा लीं जिनका खमियाजा पूरे देश को चुकाना पड़ रहा है। 

सबसे पहले आरक्षण की ही बात करें। इसे लेकर बहुत भ्रम है कि इसे समाप्त किया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि इसकी व्यवस्था एक नियत और सीमित अवधि के लिए की गई थी। इसका उद्देश्य यही था कि आॢथक रूप से कमजोर और पिछड़े तथा गरीब वर्ग को कुछ समय के लिए राहत मिले और वे शीघ्रातिशीघ्र अपने पैरों पर खड़े होकर राष्ट्र की मुख्य आॢथक धारा से जुड़ सकें। हुआ यह कि अपना उल्लू सीधा करने में माहिर नेताओं ने न केवल हमेशा के लिए इसे लागू करने में सफलता पाई बल्कि एक बहुत बड़ी आबादी के लिए सशक्त और आत्मनिर्भर बनने के सभी रास्ते बंद कर दिए। लालच का ऐसा मकडज़ाल बुना कि उससे बाहर निकला ही न जा सके और वे सदैव उन पर निर्भर रहें। यह गुलामी से भी बड़ी दासता है। 

हर जरूरी और गैर-जरूरी बात में आरक्षण के कारण एक बड़े वर्ग में निराशा फैलती गई और एक-दूसरे से नफरत करने का कारोबार कुछ इस तरह चला कि लोगों के जीवन में शत्रुता का जहर घुलता गया। विडंबना यह कि सरकारी नौकरियों में रिजर्व कैटेगरी के बहुत से पद भरे ही नहीं जाते क्योंकि योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते। जो योग्य हैं वे इनके लिए आवेदन नहीं कर सकते। अफसोस होता है कि हमारे तथाकथित कर्णधारों ने इसे क्या से क्या बना दिया! इसकी कहीं गुहार भी नहीं लगा सकते क्योंकि संविधान में किया संशोधन बीच में आ जाता है। 

आरक्षण का मुद्दा इतना व्यापक है कि आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के शांतिप्रिय पड़ोसी भी जब तब अशांत होकर अभद्र भाषा से लेकर मारपीट तक पर उतर आते हैं। दोनों को लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। इस तरह यह वर्ग संघर्ष जाति संघर्ष में बदल दिया गया। इसका भयानक स्वरूप सामने आने लगा है और ऐसी घटनाएं देश के विभिन्न भागों में अक्सर होती रहती हैं जब लोग इसकी आड़ में हिंसा, आगजनी और समाज में अफरा-तफरी का माहौल बनाकर एक दूसरे से लड़ाने का काम करते दिखाई देते हैं। जो आरक्षण आर्थिक आधार था, उसे स्वार्थी लोगों ने इतना विखंडित कर दिया कि आज यह अपने सबसे विकृत रूप में देश के सामने एक महादैत्य के रूप में खड़ा है। अब जाति ही नहीं धर्म का आधार भी इसमें जोड़ दिया है या जोड़े जाने की कवायद चल रही है। इसका स्वरूप इतना विकराल हो गया है कि अब इसकी भूख कभी शांत नहीं होती दिखाई देती। राजनीतिक दल उसे कभी तृप्त होने ही नहीं देते। 

समस्या संविधान के दुरुपयोग की है : संविधान की धाराओं का दुरुपयोग कर और उसके अंतर्गत मिले अधिकारों के नाम पर छोटे बड़े सभी कानूनों का उल्लंघन करने की आजादी मानो उन्हें मिल जाती है जो समाज हो या देश सब को कमजोर और तोडऩे का काम करते हैं ताकि उनका मनचाहा होता रहे। इसी कारण आतंकी अफजल की फांसी के खिलाफ माहौल बन जाता है। आधी रात को सुप्रीम कोर्ट को खुलवा दिया जाता है। कितने ही उदाहरण हैं जिनमें किसी न किसी अधिकार का हवाला देकर अपराधियों की बचाने की जुगत लगाई जाती है। किसी माफिया डॉन या घोषित आतंकवादी की मृत्यु पर चाहे जेल में हो या बाहर पुलिस की गोली लगे, इतना बवाल खड़ा हो जाता है जैसे मानो वह एक शहीद हो। जुर्म किया, सजा पाई लेकिन पाक दामन बने रहने की हर कोशिश की क्योंकि संविधान की किसी न किसी धारा का दुरुपयोग कर ऐसा करना संभव है। 

संविधान में मिली आजादी के गलत इस्तेमाल के ढेरों उदाहरण हैं। बहुत सी बातें इतनी सामान्य हैं कि हंसी आती है कि यह कैसे हो सकता है! पैदल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर कब्जा हो, सड़क पर वाहन निर्धारित गति से अधिक दौड़ाना हो, गलत ड्राइविंग के कारण दुर्घटना का कारण बन जाना हो, कचरा फैला कर गंदगी करनी हो, अपनी सुरक्षा की दुहाई देकर सार्वजनिक स्थलों पर बैरीकेड लगाकर रास्ता बंद करना हो, जैसी घटनाएं प्रतिदिन देखने को मिल जाती हैं। 

हालात ऐसे हो गए हैं कि अपनी मेहनत से अर्जित पूंजी पर उन लोगों का हक मानने के लिए कानून बनाने की सोच चल रही है जिनका उस संपत्ति पर कोई अधिकार ही नहीं है। कुछ लोग माक्र्सवादी होने की दुहाई देकर कहते हैं कि चाहे किसी ने कमाया हो, समाज के हर व्यक्ति का उस पर हक है और यह बांटा जाना ही चाहिए। पूंजीवादी कहते हैं कि जिसने अपनी मेहनत, लगन और कौशल से अर्जित किया, यह केवल उसका है। अब यहां गांधीवादी विचारधारा आती है जो कहती है कि हमने जो संसाधन निर्मित किए वे भविष्य में आने वाली पीढ़ी की धरोहर हैं। यही सही भी है और सत्य भी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह बढ़ती रहे और प्रत्येक नागरिक समृद्धि की ओर बढ़े और राष्ट्र का निर्माण करे, इससे बेहतर और क्या हो सकता है! इससे न किसी से कुछ छीनने की जरूरत पड़ेगी और न ही एक हाथ में अधिकांश संसाधन आ पाएंगे। 

यह बात समझ से परे है कि आज भी क्यों कुछ लोग या राजनीतिक दल अमरीका, रूस, चीन या किसी अन्य देश की व्यवस्था को अपने देश के लिए सही मानते हैं जबकि हकीकत यह है कि कभी भी उधार के शस्त्र से कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अपने लोगों, अपने देश और अपने संविधान पर विश्वास होना चाहिए। बापू गांधी का यही मानना था। 

जरूरत किस बात की है : अब हम इस बात पर आते हैं कि चाहे संविधान में संशोधनों के जरिए कोई भी कानून बना हो, मूल तत्व यह है कि भारत की धरती और उसके सभी स्रोत जैसे जल, जंगल, जमीन सबके हैं। उन पर किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म, संस्थान का अधिकार नहीं हो सकता। हमारे संविधान का अनुच्छेद 48-ए स्पष्ट शब्दों में पर्यावरण संरक्षण तथा वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा का संबंध सीधे नागरिकों के जीवन के अधिकार से जुड़ा हुआ दर्शाता है। फिर कैसे कोई इनका बंटवारा करने की सोच सकता है। इसका एक उदाहरण देना होगा। एक व्यक्ति मुहम्मद अब्दुल कासिम ने भ्रष्ट अधिकारियों के साथ मिलकर आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले के कोंपल्ली गांव की वन भूमि पर अपने निजी उपयोग के लिए कब्जा जमा लिया। ध्यान रहे यह 40 से भी ज्यादा साल पहले हुआ था और फैसला अब आया है और तेलंगाना सरकार पर 5 लाख का जुर्माना और गैर-कानूनी ढंग से कब्जाई जमीन को मुक्त कराने का आदेश हुआ है। 

यह देश और इसकी धरती किसी व्यक्ति के लिए नहीं है बल्कि हर व्यक्ति इस धरती का है। संविधान में संशोधन कर और न्यायपालिका को गुमराह कर कैसे कोई अपनी मनमानी कर सकता है? हमारे संविधान में अगर कहीं ढिलाई है तो बस यही कि इसके दुरुपयोग करने की हिम्मत करने से किसी को नहीं रोका जा सकता। बहुमत हो तो कुछ भी करने का अधिकार मिल जाता है। यहां तक कि एमरजैंसी लगाकर मूलभूत अधिकारों से भी वंचित किया जा सकता है। संसाधन चाहे हमारे प्राकृतिक स्रोतों से हमें मिले हों या हमने अपने पुरुषार्थ, व्यापार और आर्थिक समझ से जमा किए हों, उन पर किसी सरकार के आदेश से कैसे किसी दूसरे का अधिकार हो सकता है? 

जरूरी है कि कोई ऐसा नेतृत्व मिले जो संविधान के इस लूपहोल को बंद कर सके। यह कैसी मजबूरी है कि बहुमत के बल पर कुछ भी संशोधित कराया जा सकता है और नागरिक कुछ कर भी न सकें? दूसरी बात यह कि कानून में एक सीमित समय में अंतिम निर्णय करने की व्यवस्था हमारी न्यायपालिका के लिए हो। यदि निर्णय में अनावश्यक देरी हो और समय समाप्त हो जाए तो इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति चाहे वह शासन या प्रशासन का हो, चाहे कार्यपालिका और न्यायपालिका का अथवा ब्यूरोक्रेसी का हो या सांसद और विधायक हो, सब पर संविधान के अंतर्गत बने कानून का डंडा समान रूप से चलना चाहिए।-पूरन चंद सरीन 
 

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