अध्यक्ष के कार्यालय का राजनीतिकरण न करें

Edited By ,Updated: 14 Feb, 2024 05:56 AM

do not politicize the office of the speaker

यह आया राम गया राम और इनाम लपकने का मौसम है। विशेष रूप से महाराष्ट्र और बिहार में, जहां कांग्रेस के तीन दिग्गजों- पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा और बाबा सिद्दीकी द्वारा पार्टी छोड़ देने के बाद राजनीतिक क्षेत्र एक स्पैनिश बुल-रिंग जैसा...

यह आया राम गया राम और इनाम लपकने का मौसम है। विशेष रूप से महाराष्ट्र और बिहार में, जहां कांग्रेस के तीन दिग्गजों- पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा और बाबा सिद्दीकी द्वारा पार्टी छोड़ देने के बाद राजनीतिक क्षेत्र एक स्पैनिश बुल-रिंग जैसा दिखता है। पटना में जद (यू)-राजद-कांग्रेस गठबंधन सरकार के निधन और नीतीश के 9वीं बार फिर से मुख्यमंत्री बनने के साथ पुराने भाजपा-जद (यू) संबंधों का पुनरुत्थान हो गया। 

नई एन.डी.ए. सरकार ने पूरी ताकत से खेलते हुए सोमवार को अपने विश्वास मत से पहले अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विधानसभा अध्यक्ष राजद के चौधरी, जिन्होंने पद छोडऩे से इंकार कर दिया था, को हटाकर भावनाओं से भरा राजनीतिक-नाटक किया। 2022 की याद ताजा हो गई, जब महागठबंधन ने भाजपा के विधानसभा अध्यक्ष को पद से हटा दिया था। इसे यह कहकर उचित ठहराया गया कि विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा स्पीकर को हटाया जा सकता है। पिछले महीने भी, महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर को यह निर्णय लेने में 18 महीने लग गए, कि 40 विधायकों के साथ मुख्यमंत्री शिंदे वाली शिवसेना थी, न कि ठाकरे गुट वाली, लेकिन उन्होंने अपने 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने से इंकार कर दिया और गेंद वापस सुप्रीम कोर्ट के पाले में फैंक दी। 

2020 में, ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में 22 कांग्रेस विधायकों ने मध्य प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष को अपना इस्तीफा भेजा, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा फ्लोर टैस्ट का आदेश देने से केवल एक दिन पहले उनके इस्तीफे स्वीकार कर लिए, जिसके परिणामस्वरूप कमलनाथ की सरकार गिर गई। जुलाई 2019 में कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष ने 11 कांग्रेस और 3 जद (एस) विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया, जिस कारण कुमारस्वामी की सरकार गिर गई। 2015-16 में भाजपा के पास अरुणाचल में केवल 11 विधायक थे और 2 निर्दलीय विधायकों का समर्थन था लेकिन 60 सदस्यीय विधानसभा में 47 कांग्रेस विधायकों में से 21 को दलबदल करवाया गया। स्पीकर ने 14 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया, साथ ही भाजपा ने एक असाधारण सत्र आयोजित किया जिसमें बागी कांग्रेस-भाजपा विधायकों ने स्पीकर को हटा दिया, जबकि गोहाटी उच्च न्यायालय ने अयोग्यता को बरकरार रखा, सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्यता पर फैसला देने से इंकार कर दिया लेकिन जुलाई 2016 में कांग्रेस सरकार को बहाल कर दिया। 

उत्तराखंड में भी ऐसा ही हुआ, जहां विधानसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के 9 बागी विधायकों को विनियोग विधेयक के खिलाफ मतदान करने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया, जबकि उन्होंने कांग्रेस नहीं छोड़ी थी या विधानसभा में इसके खिलाफ मतदान नहीं किया था। विधायक भाजपा में शामिल हो गए और 2016 में कांग्रेस सरकार को उखाड़ फैंका। मुद्दा यह नहीं कि हर मामले में स्पीकर के फैसले में राजनीति लिखी होती है या वह इस्तीफा दे देते हैं अथवा हटा दिए जाते हैं। किसी राजनीतिक नियुक्त व्यक्ति को विधायकों के दल-बदल में मध्यस्थ बने रहने, पाॢटयों द्वारा किसी पार्टी कार्यकत्र्ता को पुरस्कृत और उपकृत करने के लिए स्पीकर के पद को लॉलीपॉप के रूप में इस्तेमाल करने से एक संवैधानिक संस्था की मौत की एक और घंटी बज रही है। लेकिन संवैधानिक व्यवस्था में स्पीकर इतना महत्वपूर्ण क्यों है? 

मुख्य रूप से, चूंकि वह सदन, उसकी गरिमा, स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि विपक्ष को अपनी बात कहने का अधिकार है, जबकि सरकार का अपना तरीका है और अध्यक्ष से अपेक्षा की जाती है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर हो, न कि सरकार की कठपुतली। यदि कोई पार्टी विभाजित होती है, तो अध्यक्ष निर्णय लेता है कि यह ‘विभाजन’ या दलबदल का मामला है या नहीं। उनका फैसला बाध्यकारी है। इस एक कृत्य से वह एक पार्टी को ‘नष्ट’ कर सकते हैं और दूसरी के शासन को सुविधाजनक बना सकते हैं। उनका वोट डालना संतुलन को किसी भी तरफ मोड़ सकता है। याद कीजिए, चंद्र शेखर का प्रसिद्ध विभाजन, जिसके कारण वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई थी। 

इसके अलावा, दल-बदल विरोधी अधिनियम का उपयोग या दुरुपयोग करने की उनकी शक्तियां, जो यह तय करने की ताकत प्रदान करती हैं कि क्या कोई प्रतिनिधि अयोग्यता का पात्र हो गया है, स्पीकर को अपने विवेक का इस्तेमाल करने और अधिनियम की भावना की अनदेखी करते हुए राजनीतिक पसंदीदा भूमिका निभाने की पर्याप्त गुंजाइश मिलती है। वहीं, सत्ताधारी दल के मंत्री, सांसद और विधायक केवल अधिक राजनीतिक लाभ के लिए इस पद का फायदा उठाने के लिए अध्यक्ष पद स्वीकार करते हैं। 

दूसरे स्पीकर अय्यंगार से जो अपने कार्यकाल की समाप्ति पर बिहार के राज्यपाल बने, जी.एस. ढिल्लों और मनोहर जोशी तक, जो मंत्रियों से स्पीकर बन गए, बलराम जाखड़ ने कभी कांग्रेसी के रूप में अपनी पहचान नहीं छिपाई, रबी रे अपनी जनता पार्टी की उम्मीदों पर खरे उतरे और शिवराज पाटिल, जो स्पीकर पद पर रहे, पुन: चुनाव हार गए लेकिन कांग्रेस द्वारा उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित और गृह मंत्री नियुक्त किया गया। यू.पी.ए. प्रथम में कांग्रेस मंत्री मीरा कुमार यू.पी.ए. द्वितीय में लोकसभा अध्यक्ष बनीं। आज तो भौंहें तक नहीं तनीं। अध्यक्ष के संपूर्ण निर्णय भी दुरुपयोग के लिए प्रेरित हो सकते हैं। शीतकालीन सत्र में संसद से 149 से अधिक विपक्षी सांसदों के निलंबन का उदाहरण, 2016 में विरोध प्रदर्शन के दौरान लगभग सभी द्रमुक विधायकों को तमिलनाडु विधानसभा से सामूहिक रूप से बाहर निकाल दिया गया था, जो हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य और इसके लोकतांत्रिक चरित्र के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। 

सर्वोत्कृष्ट स्थिति में यह भुला दिया गया है कि अध्यक्ष, जो अनिवार्य रूप से सदन का सेवक है, प्रक्रिया के नियमों के कारण तेजी से सदन का स्वामी बन गया है, जो संसद और विधानसभाओं में विधायी कामकाज के संचालन में गिरते मानकों पर प्रकाश डालता है। निस्संदेह, अध्यक्ष की स्थिति विरोधाभासी है। वह संसद या राज्य विधानसभा चुनाव और बाद में पार्टी के टिकट पर पद के लिए लड़ता है और फिर भी उससे गैर-पक्षपातपूर्ण तरीके से आचरण करने की अपेक्षा की जाती है, जबकि वह अगले चुनाव के लिए टिकट हेतु पार्टी का आभारी रहता है। इस पृष्ठभूमि में और हमारे ‘आया राम गया राम’ राजनीतिक परिवेश में अध्यक्ष का काम न केवल महत्वपूर्ण और मांग वाला हो गया है, बल्कि आज यह सभी की निगाहों का आकर्षण है क्योंकि एक स्वतंत्र अध्यक्ष का मुद्दा महत्वपूर्ण है। 

स्पीकर की शक्तियों पर नए सिरे से विचार करने, उनके कार्यालय का अराजनीतिकरण करने, तटस्थता को बढ़ावा देने का समय आ गया है। एक तरीका ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र का पालन करना है, जिसके तहत एक सांसद स्पीकर चुने जाने के बाद अपनी पार्टी से इस्तीफा दे देता है और बाद के चुनावों में निॢवरोध निर्वाचित हो जाता है। दो, अध्यक्ष को कड़ी निगरानी रखनी चाहिए, खुद को न्यायाधीश के पद पर रखना चाहिए, पक्षपातपूर्ण नहीं बनना चाहिए, ताकि किसी विशेष दृष्टिकोण के पक्ष या विपक्ष में अचेतन पूर्वाग्रह से बचा जा सके और इस प्रकार सदन के सभी वर्गों में उनकी ईमानदारी और निष्पक्षता के बारे में विश्वास पैदा हो सके। 

अध्यक्ष के संवैधानिक पद का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए नियमों में भारी बदलाव करना होगा क्योंकि यह पवित्र है। विधायकों और सरकारों को सरकार के संवैधानिक विस्तार के लिए उनके पद को कम करने से बचना चाहिए। याद रखें, अध्यक्ष एक सम्मानित, एक स्वतंत्र पद है और इस पर हमेशा उत्कृष्ट क्षमता और निष्पक्षता वाले व्यक्तियों का कब्जा होना चाहिए क्योंकि महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं बल्कि संस्थाएं हैं।-पूनम आई. कौशिश 
 

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