माया का बड़ा खेल है चुनावी चंदा

Edited By ,Updated: 09 Apr, 2024 05:53 AM

election donations are a big game of maya

चुनावी ‘चंदा’ के माध्यम से विभिन्न कार्पोरेट घरानों, बड़ी कम्पनियों और बड़े व्यवसायियों द्वारा राजनीतिक दलों को भारी मात्रा में धन दिए जाने की हकीकत सामने आने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं है कि वर्तमान लोकतंत्र संरचना सभी के लिए आसान नहीं है।

चुनावी ‘चंदा’ के माध्यम से विभिन्न कार्पोरेट घरानों, बड़ी कम्पनियों और बड़े व्यवसायियों द्वारा राजनीतिक दलों को भारी मात्रा में धन दिए जाने की हकीकत सामने आने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं है कि वर्तमान लोकतंत्र संरचना सभी के लिए आसान नहीं है। राजनीतिक दल चुनाव लडऩे का समान अवसर प्रदान नहीं करते हैं। निचले एक प्रतिशत अमीर, जिनके पास देश की 40 प्रतिशत आबादी के बराबर सम्पत्ति है, अपने झूठे हितों को पूरा करने के लिए अपने पसंदीदा राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा देते हैं। ऐसी स्थिति में, बेहद सीमित संसाधनों के साथ, जनता के हितों की रक्षा के लिए चुनाव में उतरने वाले राजनीतिक दल माया के इस खेल में कोई सफलता हासिल करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
उल्लेखनीय बात यह है कि चुनाव आयोग और उसके कर्मचारी करोड़ों रुपए खर्च कर राज्य के सभी सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाकर चुनावी जनादेश जारी करने वाले बड़े दलों की अनैतिक गतिविधियों को रोकने की बजाय जनता के वास्तविक मुद्दों को गौण तरीके से संबोधित कर रहे हैं। वे चुनावी युद्ध में शामिल छोटे दलों से अधिक पूछताछ और निगरानी करते हैं। 

कार्पोरेट और फर्जी कम्पनियों द्वारा मुख्य रूप से भाजपा और कई अन्य दलों को अपने काले कारोबार के रास्ते में आने वाली किसी भी संभावित बाधा को दूर करने के लिए दिए गए ‘चंदे’ का खुलासा सुप्रीम कोर्ट के शानदार फैसले से हो गया है , जो मोदी-शाह सरकार कभी नहीं चाहती थी। ‘आय-व्यय’ का ब्यौरा देने पर कानूनी रोक के कारण शायद यह अनुमान लगाना भी मुश्किल है कि संघ परिवार के पास कितनी सम्पत्ति है, हालांकि, आजादी के तुरंत बाद सत्ताधारी दल को अमीरों का समर्थन मिलना शुरू हो गया। लेकिन मौजूदा सत्ताधारी दल ने चुनावी ‘चंदे’ के नए-नए आविष्कार के जरिए जिस तरह से सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर कार्पोरेट घरानों और कम्पनियों से ‘जजिया’ वसूला है, वह आश्चर्यजनक भी है और चिंताजनक भी। 

यदि चुनावों में माया के अक्षम हस्तक्षेप के माध्यम से अपना हित साधने की इस अलोकप्रिय राजनीतिक घटना पर किसी न किसी रूप में कोई रोक नहीं है, तो भारत की जनता की राजनीतिक व्यवस्था, जो पहले से ही ‘सत्तावादी लोकतंत्र’ में है, को बदल दिया गया है। देर-सवेर इसका खात्मा होना तय है। जब आम लोग आसमान छूती महंगाई, रिकॉर्ड तोड़ बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा की कमी, आबादी के बड़े हिस्से के स्वास्थ्य और शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित होने की बात करते हैं तो उन्हें वास्तविक कारणों का पता नहीं चलने दिया जाता। कठिनाइयों से जूझ रहे मेहनतकश लोग, जिन्हें मेहनत की कमाई से भी दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती, इस त्रासदी के लिए या तो किसी ‘बुरी शक्ति’ को दोषी मानते हैं या फिर उन लोगों को, जिनका  चरित्र उस समय के शासकों जैसा ही है। 

जनता गंभीर मंथन कर सब कुछ लुट जाने की हकीकत का सामना करने की बजाय सरकार की मुफ्त आटा-दाल योजना और मुफ्त बिजली आदि से संतुष्ट है। समाज की समस्याओं की जड़ आॢथक नीतियां हैं, जिन्हें तत्कालीन सरकारें ‘चुनावी चंदा’ जैसे दान लेकर लागू करती हैं। लोग अमीरों के हितों की पूर्ति करने वाली मौजूदा सरकारी व्यवस्था और कॉर्पोरेट मुनाफे के लिए काम करने वाली सरकार के जनविरोधी प्रदर्शन से कुछ भी न मिलने की कड़वी सच्चाई का सामना करने के लिए मजबूर हैं। अमीरों के हितों की पूर्ति तथा उनके मुनाफे के लिए काम करने वाली मौजूदा सरकार की राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जनविरोधी प्रदर्शन से कुछ न मिलने की कड़वी सच्चाई का सामना करने वाले मजबूर लोगों के मन में पैदा हुई परेशानी और हताशा कम नहीं होती दिखाई देती है।खासकर ऐसे समय में जब सामाजिक परिवर्तन के लिए लडऩे वाली उन्नत राजनीतिक ताकतें शासकों के खिलाफ जनता के बीच फैली अशांति को सही दिशा में संगठित करने और सकारात्मक बदलाव करने में सक्षम लोगों की शक्ति को आकार देने में सक्षम नहीं हैं, तब दबंग नेता सत्ता पर काबिज रहते हैं। 

याद रखें, फासीवादी राजनीतिक व्यवस्था में जनता के बुनियादी मुद्दों के समाधान की कोई संभावना नहीं है। देश की मौजूदा राजनीतिक-आॢथक स्थिति मजबूत होने और जनपक्षधर राजनीतिक दलों की कमजोर स्थिति के कारण 2024 के लोकसभा चुनाव में मुख्य रूप से 2 पार्टियां आमने-सामने हैं। एक ओर जहां धर्म के आधार पर गैर-जन राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश कर रही भाजपा और एन.डी.ए. का गठबंधन लगातार तीसरी जीत हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है तो दूसरी ओर, सीमित वर्ग सीमाओं के साथ उदार लोकतंत्र के ढांचे के साथ संविधान की रक्षा करने वाली धर्मनिरपेक्ष और जनवादी राजनीतिक ताकतों का गठबंधन ‘इंडिया’  है। दोनों मोर्चों के बीच युद्ध में तटस्थ रहने का दिखावा करने वाली बसपा समेत किसी भी अन्य राजनीतिक समूह के दावे कोरे दिखते हैं। यह पैंतरेबाजी वास्तव में भाजपा विरोधी वोटों के वितरण के माध्यम से गुप्त रूप से भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन करने के लिए है। 

निस्संदेह, अपने सीमित जनाधार और आर्थिक संसाधनों की भारी कमी के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी दल इन चुनावों में संख्या की दृष्टि से बड़ी भूमिका नहीं निभा सके। लेकिन वैचारिक स्पष्टता, सिद्धांतवादिता और परिपक्व आचरण के मामले में संघ परिवार को हराने में वामपंथी दलों की भूमिका अहम रहेगी। चुनाव आयोग की मौन सहमति से भाजपा द्वारा सरकारी एजैंसियों के घोर दुरुपयोग और विपक्षी दलों पर की जा रही दमनात्मक कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप इन दलों के कई नेता धड़ाधड़ भाजपा में शामिल हो रहे हैं। इन नेताओं का यह संयमित व्यवहार किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता या जनता के प्रति वफादारी के कारण नहीं है, बल्कि निजी हितों की पूर्ति की चाहत या सरकारी मशीनरी के डर का नतीजा है। यह वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी है कि अधिकांश राजनेता राजनीति को ‘लाभ का धंधा’ मानते हैं। यह गर्व की बात है कि दल-बदल की घातक बीमारी से काफी हद तक वामपंथी बच गए हैं। 

आज मुस्लिम विरोधी प्रचार और पिछड़े विचारों के आधार पर बना भ्रष्ट संगठनात्मक ढांचा देश के धर्मनिरपेक्ष और जनता के राजनीतिक ढांचे के अस्तित्व के लिए एक वास्तविक चुनौती बन गया है। कमियों के बावजूद, देश की वामपंथी पार्टियां अभी भी लोकलुभावन विचारधारा के स्तर पर एक संगठनात्मक तंत्र के साथ ‘संघीय विचारधारा’ का मुकाबला करने में एक जुझारू और विश्वसनीय शक्ति हैं। इसीलिए संघ परिवार और भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकारें वामपंथी बुद्धिजीवियों और कार्यकत्र्ताओं के खिलाफ बेहद दमनकारी रवैया अपना रही हैं। गरीबी से पीड़ित विशाल मानवतावादी हिन्दू आबादी के हितों की रक्षा के साथ-साथ देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए मजबूत आवाज उठाने के लिए वामपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों की ताकत और जनाधार बहुत महत्वपूर्ण है। वाम दलों की मजबूत उपस्थिति के बिना, शाही और कॉर्पोरेट घरानों की लूट को बनाए रखने के लिए काम करने वाली सरकारों के खिलाफ लंबे और मजबूत संघर्षों की सफलता का सपना भी नहीं देखा जा सकता है। इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव में साम्प्रदायिक  ताकतों की हार और धर्मनिरपेक्ष व लोकलुभावन ताकतों की जीत के लिए वाम दलों की एकता जरूरी है।-मंगत राम पासला  

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