Edited By Punjab Kesari,Updated: 08 Jun, 2017 11:29 PM
जहां केरल में मॉनसून ने दस्तक दे दी है वहीं उत्तर भारत भीषण गर्मी से झुलस रहा....
जहां केरल में मॉनसून ने दस्तक दे दी है वहीं उत्तर भारत भीषण गर्मी से झुलस रहा है। कॉलम लिखते समय उत्तर और मध्य भारत के अधिकतर स्थानों पर तापमान 45 से 48 डिग्री सैल्सियस रिकॉर्ड किया गया। विश्व में निरंतर बढ़ता तापमान पर्यावरण और समस्त मानव सभ्यता के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। चूंकि इस मुसीबत की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है इसलिए दुनिया के कई देशों ने संयुक्त रूप से इस समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया परंतु अभी हाल ही में इस अभियान को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पलीता लगा दिया, जिससे विश्व के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है।
पैरिस समझौते से बाहर निकलते हुए ट्रम्प ने दावा किया कि इस समझौते से चीन और भारत को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई है। ट्रम्प के अनुसार जहां भारत को इस समझौते के माध्यम से 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की छूट मिल गई है, जिससे भारत अमरीका पर वित्तीय बढ़त प्राप्त कर लेगा वहीं चीन को सैंकड़ों अतिरिक्त कोयला संयंत्र लगाने की स्वीकृति मिली है किन्तु अमरीका को यह छूट नहीं दी गई है। ट्रम्प ने कहा, ‘‘पैरिस समझौते के अंतर्गत जो पाबंदियां अमरीका पर लगाई गई हैं जिनसे 2025 तक उनके देश में 27 लाख नौकरियां खत्म हो जाएंगी और कोयले से जुड़ी नौकरियां दूसरे देशों में चली जाएंगी।’’ ट्रम्प के इस निर्णय की अधिकतर देश निंदा कर रहे हैं।
अमरीका सहित 195 देशों ने पैरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें इस शताब्दी के अंत तक तापमान को 2 डिग्री सैल्सियस के नीचे रखने का मुख्य लक्ष्य निर्धारित किया गया है। पैरिस समझौते के अंतर्गत अमरीका को 2025 तक कार्बन उत्सर्जन को 26-28 प्रतिशत तक कम करना था इसलिए समझौते में सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले अमरीका जैसे देशों को कहा गया है कि वे वर्ष 2020 तक कार्बन उत्सर्जन के लिए विकासशील व पिछड़े देशों की वित्तीय सहायता करें किन्तु सच यह भी है कि आॢथक सहायताभर से धनी देशों को उनके पिछले पापों के लिए दोषमुक्त नहीं किया जा सकता।
वर्ष 1974 से प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। दुनिया के अनेक मंचों से ‘पृथ्वी बचाओ’ का नारा बुलंद होता है। यह सत्य है कि विश्व के सभी देश पृथ्वी को बचाना चाहते हैं किन्तु अपने त्याग के बल से नहीं बल्कि दूसरों के त्याग और प्रतिबंध के भरोसे। विकसित देशों की इस अवधारणा के कारण भू-मंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वाॄमग) के खिलाफ चल रहे वैश्विक अभियान को आज तक अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जून, 2016 की विश्व ऊर्जा सांख्यिकी समीक्षा के अनुसार चीन विश्व में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला देश है, जिसका दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में 27.3 प्रतिशत हिस्सा है। अमरीका 16.4 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है जबकि भारत मात्र 6.6 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करता है। जहां भारत में प्रति व्यक्ति सालाना कार्बन उत्सर्जन 0.5-1 टन के बीच है वहीं अधिकतर विकसित और विकासशील औद्योगिक देशों का उत्सर्जन 12-17 टन प्रति व्यक्ति रहा है।
अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया सहित कई पश्चिम यूरोपीय देशों की जनसंख्या वैश्विक आबादी का 22 प्रतिशत है जबकि वे 88 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों और 73 प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यही नहीं, विश्व की 85 प्रतिशत आय पर उनका नियंत्रण भी है। दूसरी ओर विकासशील देशों और अन्य पिछड़े देशों की जनसंख्या विश्व में 78 प्रतिशत है जबकि वे 12 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों तथा 27 प्रतिशत ऊर्जा का ही इस्तेमाल करते हैं। उनकी आय विश्व की आय का केवल 15 प्रतिशत है। अमरीका का एक नागरिक औसतन ब्रिटेन के नागरिक की तुलना में संसाधनों का दोगुना और कई एशियाई व अफ्रीकी नागरिकों की तुलना में लगभग 24 गुना अधिक उपयोग करता है।
3 नवम्बर, 2016 को संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार स्वेच्छा से कटौती करने के अब तक प्राप्त प्रस्तावों से तापमान को 2 डिग्री सैल्सियस नीचे रखने में मदद नहीं मिलेगी। वर्ष 2030 में सुरक्षित स्तर से 25 प्रतिशत अधिक गैस उत्सर्जन होगा। इससे तापमान 3.4 डिग्री बढ़ जाएगा। विश्व मौसम विज्ञान संगठन चेतावनी दे चुका है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 400 पी.पी.एम. के पार हो गया है, जो कई पीढिय़ों तक कम नहीं हो सकेगा।
विश्व जिस तीव्रता के साथ विकास (या कुछ मायनों में विनाश!) की ओर अग्रसर है, उससे कहीं अधिक तेजी से दुनिया में प्रदूषण और उससे जनित समस्याएं बढ़ रही हैं। विश्व का तापमान औद्योगीकरण के पूर्व ही एक डिग्री सैंटीग्रेड बढ़ चुका था। अब यदि इसमें आधा डिग्री भी वृद्धि हुई तो विश्व के कुछ भागों में अति भयावह परिणाम सामने आएंगे। कई वैज्ञानिकों का मत है कि पैरिस संधि में तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कमी के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उनके परिपालन के बाद भी विश्व का तापमान 2 डिग्री और बढ़ जाएगा।
पर्यावरण की समस्या का मूल कारण वह मान्यता या मानसिकता है, जिसके अंतर्गत केवल मनुष्य को ही प्रकृति का दोहन (या शोषण) करने की स्वतंत्रता है। अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस का सिद्धांत कहता है, ‘‘लालच हमेशा बुरा नहीं होता। वह आॢथक प्रगति में तीव्रता ला सकता है इसलिए मानव समाज की उन्नति के लिए आवश्यक है कि वह उपभोग और भौतिक आनंद में संयम को तिलांजलि दे।’’ पूंजीवाद (अमरीका जैसे देश) और साम्यवाद (चीन), दोनों के ही भौतिकवादी व्यवस्था में सर्वसम्मत विचार हैं कि जीवन का उद्देश्य विशुद्ध रूप से भौतिकता है इसलिए उपभोग में कोई संयम या निषेध नहीं होना चाहिए। इसी विकृत चिंतन और मानसिकता ने पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है, जो आज भी इन देशों द्वारा जारी है।
भारत के मूल दर्शन में पर्यावरण का विशेष महत्व है। पर्यावरण विज्ञान में भले ही 20वीं या 21वीं शताब्दी की बात हो किन्तु भारत के वेद-आरण्यक-उपनिषदों में इसकी सम्यक चर्चा है। ऋग्वेद की रचनाएं तो प्रमुखत: प्रकृति और उसके रक्षक देवताओं को ही समॢपत हैं किन्तु भारत का चिंतन भी कालांतर में पश्चिम से इतना अधिक नियंत्रित होने लगा कि हम अपनी श्रेष्ठ परंपराओं और संस्कारों से कटते जा रहे हैं। ईसाइयत और इस्लाम जैसे एकेश्वरवादी मतों-पंथों की मान्यताओं के कारण इस ङ्क्षचतन को ग्रहण लगा। ईसाइयत ने प्रकृति को दोहन योग्य और मानव को उसका नियंता बताया। वहीं हिन्दू संस्कृति एक संतुलित, वैज्ञानिक और स्वस्थ नवीनताओं से भरपूर लोक कल्याण के लिए जीवन यापन करने की आदर्श शैली है।
हिन्दुत्व के अनुसार आवश्यकता से अधिक संसाधनों का संग्रह नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे समाज में उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव हो सकता है। धनी और विकसित देशों ने भौतिक सुख के लिए प्रकृति का निरंतर शोषण करते हुए अंधाधुंध उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया है। यही कारण है कि बिगड़े हुए पर्यावरण और इस्लामी आतंकवाद ने विश्व को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। दोनों समस्याओं पर विजय प्राप्त करने हेतु ईमानदार विवेचना, खुली बहस और संकल्प शक्ति की आवश्यकता है किन्तु अभी तक इस लड़ाई में इन तथ्यों को प्राथमिकता नहीं मिली है।