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‘मीडिया की आजादी और अंकुश की सीमा’

Edited By ,Updated: 23 Jan, 2021 04:22 AM

freedom of media and limits of curb

एक बार फिर गंभीर विवाद। प्रिंट, टी.वी. चैनल, सीरियल, फिल्म,  सोशल मीडिया, को कितनी आजादी और कितना नियंत्रण? सरकार, प्रतिपक्ष और समाज कभी खुश, कभी नाराज। नियम-कानून, आचार संहिताएं,पुलिस, अदालत  के सारे निर्देशों

एक बार फिर गंभीर विवाद। प्रिंट, टी.वी. चैनल, सीरियल, फिल्म,  सोशल मीडिया, को कितनी आजादी और कितना नियंत्रण? सरकार, प्रतिपक्ष और समाज कभी खुश, कभी नाराज। नियम-कानून, आचार संहिताएं,पुलिस, अदालत  के सारे निर्देशों के बावजूद समस्याएं कम होने के बजाय बढ़ रही हैं। 

सूचना संसार कभी सुहाना, कभी भूकंप की तरह डगमगाता, कभी ज्वालामुखी की तरह फटता दिखाई देता है। आधुनिकतम टैक्नोलॉजी ने नियंत्रण कठिन कर दिया है। सत्ता व्यवस्था ही नहीं अपराधी-माफिया, आतंकवादी समूह से भी दबाव , विदेशी ताकतों का प्रलोभन और प्रभाव सम्पूर्ण देश के लिए खतरनाक बन रहा है। इन परिस्थितियों में विश्वसनीयता तथा भविष्य की  ङ्क्षचता स्वाभाविक है। बाम्बे हाईकोर्ट ने पिछले दिनों मीडिया को लेकर लगभग ढाई सौ पृष्ठों का ऐतिहासिक फैसला दिया है, जिस पर स्वयं मीडिया ने प्रमुखता से नहीं बोला, दिखाया और प्रकाशित किया। 

सिने कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की आत्म हत्या की घटना के संबंध में आशंकाओं एवं दो टी.वी. न्यूज चैनलों के कवरेज पर दायर जनहित याचिका पर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस जी.एस. कुलकर्णी ने महत्वपूर्ण फैसला दिया है। सबसे अच्छी बात यह है कि मीडिया के कवरेज पर कई आपत्तियों को रेखांकित करने के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता पर प्रहार कर कोई सजा नहीं दी। उन्होंने मीडिया की स्वतंत्रता और सीमाओं की विस्तार से व्याख्या कर कुछ मार्गदर्शी नियम भी सुझाए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सुशांत सिंह प्रकरण में मीडिया के व्यापक कवरेज से प्रामाणिक तथ्यों के लिए सी.बी.आई. की जांच संभव हुई। पुलिस के कामकाज और राजनेताओं की विश्वसनीयता कम होने से परिवार और समाज ऐसे मामलों में विस्तार से जांच चाहता है। 

पिछले दशकों में जेसिका लाल और प्रियदॢशनी हत्या कांड में मीडिया कवरेज से अपराधियों को दंडित करवाने में सहायता मिली। आरुषि तलवार के घृणित हत्या कांड को भी मीडिया ने बहुत जोर से उठाया, लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने जांच एजैंसी और अदालत से पहले निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी भी कर दी। यही बात भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में लगातार हो रही है। समुचित प्रमाणों के बिना सीधे किसी नेता, अधिकारी अथवा व्यक्ति और संस्था को दोषी बताना अदालत कैसे उचित मानेगी? हाल के वर्षों में सत्ताधारियों द्वारा कुछ खास लोगों, पूंजीपतियों और कंपनियों को लाभ पहुंचाने के कई गंभीर आरोप सामने आए। संभव है कुछ सही भी हों। पर्याप्त प्रमाण अदालत तक पहुंचने पर दोषियों को दंडित भी किया गया है। अन्यथा लालू यादव, ओमप्रकाश चौटाला जैसे नेता जेल में नहीं बैठे होते। 

इन्हें सजा मिलने में देरी अवश्य हुई और वे आज भी अपने अपराध स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। यही नहीं हम जैसे पत्रकारों ने उनके कारनामों को प्रमाण सहित उजागर किया था , तो हमें ही पूर्वाग्रही बताकर उनके समर्थकों ने हमले किए थे। नीरव मोदी देश से भाग जरूर गया, लेकिन ब्रिटेन की जेल में बंद है। लेकिन इन दिनों भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर राफेल विमान खरीदी से लेकर किसानों के लिए संसद से पारित कानूनों के आधार पर केवल चार-पांच पूंजीपतियों को सारा मुनाफा, किसानों की सारी जमीन देने, हर निर्माण में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप निरंतर कुप्रचारित करने का माध्यम बनने से न केवल सामान्य जनता के बीच, वरन पूरी दुनिया में भारतीय व्यवस्था को बदनाम किया जा रहा है। 

केवल प्रतिपक्ष के बयान कहकर क्या मीडिया अपनी मर्यादा और आचार संहिता के पालन से बच सकता है? यह वैसा ही है जैसे कोई डाक्टर किसी नेता के बयान या सलाह के आधार पर क्लीनिक में आए व्यक्ति का ऑपरेशन और इलाज करने लगे अथवा अदालतें प्रमाण के बिना सजा सुनाने लगें। अपने देश में अधिकांश सूचनाएं किसी पक्ष या व्यक्ति विशेष के अपने निहित उद्देश्य से मिली होती हैं अथवा जांच पड़ताल के लिए समय और धन खर्च नहीं किया जाता है। यही कारण है कि सुशांत  सिंह मामले में न्यायाधीशों ने मृत व्यक्ति के चरित्र हनन जैसे आरोपों के प्रसारण को अनुचित बताया। उनका यह निर्देश सही है कि ऐसे मामलों में तथ्य सार्वजनिक किए जा सकते हैं, लेकिन उन पर लोगों को बिठाकर टी.वी. पर बहस, आरोपबाजी अनुचित है। उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया कि ब्रिटेन में केबल टी.वी. एक्ट का प्राधिकरण है। 

भारत में जब तक ऐसी नियामक संस्था नहीं हो तब तक भारतीय प्रैस परिषद् द्वारा निर्धारित नियमों, आचार संहिता का पालन टी.वी. डिजिटल मीडिया में भी  किया जाए। संभवत: माननीय अदालत को यह जानकारी नहीं होगी कि फिलहाल प्रिंट मीडिया का प्रभावशाली वर्ग ही प्रैस परिषद् के नियम-संहिता की परवाह नहीं कर रहा है, क्योंकि उसके पास दंड देने का कोई अधिकार नहीं है। जबकि प्रैस परिषद् के अध्यक्ष सेवा निवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश ही होते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में हर नागरिक के लिए है। पत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैं। समाज में हर नागरिक के लिए मनुष्यता, नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी के साथ कत्र्तव्य के सामान्य सिद्धांत लागू होते हैं। 

पत्रकारों पर भी वह लागू होने चाहिएं। सरकार से नियंत्रित कटाई नहीं हो, लेकिन संसद , न्याय पालिका और पत्रकार बिरादरी द्वारा बनाई गई  पंचायत यानी मीडिया परिषद् जैसी संस्था के मार्गदर्शी नियम लक्ष्मण रेखा का पालन तो हो। न्याय पालिका के सामने एक गंभीर मुद्दा भी उठाया जाता रहा है कि मानहानि कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है, जिससे ईमानदार मीडियाकर्मी को नेता, अधिकारी या अपराधी तंग करते हैं। अदालतों में मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं  इसलिए जरुरत इस बात की है कि समय रहते सरकार, संसद, न्याय पालिका, मीडिया नए सिरे से मीडिया के नए नियम कानून, आचार संहिता को तैयार करे।-आलोक मेहता
 

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