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टैक्स वसूली पर ध्यान हो तो वित्तीय गड़बड़ होना तय है

Edited By ,Updated: 21 Jun, 2025 05:23 AM

if the focus is on tax collection then financial mess is certain

हमारे देश में जो कर वसूली है, वह सरकार की तरफ  से इस तरह की जाती है जैसे करदाता एक करवंचक या अपराधी हो। अपेक्षा की जाती है कि वह चुप रहकर जो सरकारी फरमान जारी किए जाते हैं, उनका पालन करे, वरना क्या हो सकता है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे देश में जो कर वसूली है, वह सरकार की तरफ  से इस तरह की जाती है जैसे करदाता एक करवंचक या अपराधी हो। अपेक्षा की जाती है कि वह चुप रहकर जो सरकारी फरमान जारी किए जाते हैं, उनका पालन करे, वरना क्या हो सकता है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

लापरवाही का सरकारी घोटाला: हमारे देश में आर.टी.आई. कानून इतना प्रभावी तो है ही कि इसके जरिए सरकारी फाइलों में दबी जानकारी हासिल की जा सकती है। ऐसा ही एक उदाहरण है, जब एक आर.टी.आई. एक्टिविस्ट ने सरकार से पर्यावरण के मुद्दे पर सवाल पूछा कि सैस के रूप में करदाताओं से कितनी रकम वसूली गई और कितनी खर्च हुई। पता चला कि लगभग एक दशक में कई लाख करोड़ रुपए तो सरकारी खजाने में आए लेकिन उसका उपयोग मात्र चौथाई राशि के आसपास हुआ। मामला था, पर्यावरण मंत्रालय, प्रदूषण विभाग तथा अन्य संस्थाओं को प्रदूषण नियंत्रण के लिए उपकरण खरीदे जाने का ताकि उनके इस्तेमाल से नागरिकों को राहत मिले। 

आधे अधूरे और ऊंट के मुंह में जीरे के समान खरीददारी हुई जिनमें झाड़ू या सफाई मशीन, स्मॉग टावर थे, अस्पतालों में डीजल की जगह सी.एन.जी. से चलने वाले जैनरेटर थे जो दिल्ली के अस्पतालों में लगने थे। ऐसे ही कुछ उपकरण और होंगे लेकिन ये सब कहां हैं? कौन इनका इस्तेमाल कर रहा है? क्या मंत्री या नेता इनका निजी उपयोग कर रहे हैं? कोई जवाबदेही नहीं। एक जानकारी के मुताबिक एक मद में 50 करोड़ जमा हुए लेकिन खर्च 10 लाख से भी कम हुआ। एन.सी.आर. में प्रदूषण को लेकर जितनी हायतौबा मची रहती है, आए दिन ग्रैप लग जाता है,  काम-धंधा चौपट होता है और लोगों को सांस लेने में तकलीफ  होती है, उतनी ही सरकार की तरफ से लापरवाही नजर आती है। आयकर के ऊपर लगने वाला सैस जो सैंट्रल एक्साइज और सर्विस टैक्स का संक्षिप्त रूप है, ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री जी जब चाहे और जिस वस्तु पर उनका मन हो, इसकी घोषणा कर दें और वसूली कर लें, जरूरत थी भी या नहीं, कहां इसका इस्तेमाल होना है, कोई जिक्र नहीं। कितना अब तक बिना खर्च किए सरकार की तिजौरी में पड़ा है, कोई हिसाब नहीं। उल्लेखनीय है कि इसका उपयोग किसी और मद में नहीं किया जा सकता। सरकार के नियमित बजट से बाक़ी सभी खर्चे किए जाने होते हैं।

ऐसा लगता है कि सैस दूध के ऊपर की मलाई है जिसकी बंदरबांट अपने निहित व्यक्तिगत या राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए आसानी से की जा सकती है क्योंकि कोई पूछने वाला नहीं है। सैस की कथा यह है कि वित्त मंत्री को अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक टैक्स वसूली करने का रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयारी करते रहना है, जो यही दर्शाता है कि जैसे भी तथा जिस भी साधन से हो, चाहे वह उपयुक्त हो या न हो, आवश्यकता हो या न हो, यहां तक कि जबरन वसूली करनी पड़ जाए वह भी की जाए। इसके लिए सैस सबसे शानदार व्यवस्था है जो चाहे जितना लगा दो, कोई उंगली नहीं उठा सकता और खर्च हुआ है या नहीं, कोई नहीं जानता। एक बार लगा तो इसे हटाना भूल जाएंगे और करदाता को कुछ पता नहीं चलेगा।

दोहरी तिहरी कर व्यवस्था : किसी भी व्यक्ति, चाहे वह सरकारी या निजी क्षेत्र में नौकरी करता हो, कारोबारी हो या उद्योगपति, सब को किसी न किसी तरह से सरकार को टैक्स देना ही पड़ता है। सबसे बड़ा हथियार है जी.एस.टी. जिसके इस्तेमाल से किसी भी व्यक्ति या व्यवसायी की नाक में दम किया जा सकता है। सामान्यत: यही होता है कि जो वसूला जा रहा है, उसे बिना किसी प्रश्न के दे दीजिए अन्यथा न जाने कौन सी धारा के उल्लंघन के तहत  जुर्माना देना पड़ जाए या अदालती कार्रवाई झेलनी पड़े। इसमें सबसे बड़ा झंझट यह है कि अक्सर इसे चुकाने और फिर इसका क्रैडिट लेने में गलती होने की संभावना रहती है। जानबूझकर कोई करे और दंड मिले तो भी बात समझ आती है लेकिन अनजाने में और क़ानून की अस्पष्टता के कारण हुई भूलचूक की कोई सुनवाई नहीं। अपने खिलाफ हुई कार्रवाई को मानने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। सरकारी अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग कर सरकारी खजाने को भरने का कोई मौका नहीं छोड़ते और इस मद में जमा रकम के आंकड़े तेज़ी से बढ़ते दिखाई देते हैं। 

घटी आमदनी बढ़ा खर्चा: हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार होने के आंकड़े इस तरह पेश किए जाते हैं जिनसे भ्रम होना स्वाभाविक है कि हम कितनी तेजी और मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं या अमीर बनने जा रहे हैं। यह दावा तब खोखला लगता है जब वास्तविकता सामने आती है कि अधिकतर लोगों के पास गुज़ारे लायक पैसे नहीं होते हैं और उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। इसके साथ ही कुछ लोगों के पास इतना पैसा होता है कि अनाप-शनाप खर्च करने पर भी वह कम नहीं होता। 

लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और नकद लेन-देन को बढ़ावा देने वाली नीतियों के कारण आज सामान्य व्यक्ति की जेब में पैसा बच नहीं रहा है, हिसाब लगाता रह जाता है कि कौन से खर्च में कटौती करे। वेतन के बढऩे की दर का जरूरी चीजों के दामों में बढ़ोतरी से कोई मेल नहीं है। वह सोचता है कि सरकार उसे बहका रही है कि उसकी आॢथक हालत सुधर रही है लेकिन असलियत कुछ और ही है। उसे उधार से मुक्ति नहीं मिलती और वह सभी सरकारी दावों के बावजूद अपनी वास्तविक आय में कमी महसूस करता है।-पूरन चंद सरीन
 

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