इतिहास में ‘तानाशाही’ का इतना उदय जनता के हित में नहीं रहा

Edited By ,Updated: 19 Jan, 2024 05:49 AM

in history rise of  dictatorship  has not been in the interest of public

2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए देश के मौजूदा शासक लोगों को एक ऐसे एजैंडे के इर्द-गिर्द इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं, जो लोगों का ध्यान उनके सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों से हटाकर भावनात्मक और धार्मिक मुद्दों पर केंद्रित कर दे।

2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए देश के मौजूदा शासक लोगों को एक ऐसे एजैंडे के इर्द-गिर्द इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं, जो लोगों का ध्यान उनके सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों से हटाकर भावनात्मक और धार्मिक मुद्दों पर केंद्रित कर दे।

जरा याद कीजिए, 2014 और 2019 के चुनावों के दौरान भाजपा नेताओं ने किस तरह हर साल 2 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार, उचित मूल्य पर गैस सिलैंडर उपलब्ध करवाना, सस्ते पैट्रोल-डीजल की आपूर्ति, महंगाई और देश के किसानों के समग्र कर्ज को खत्म करने का वायदा किया। महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान, दलितों और पिछड़े वर्गों पर अमानवीय सामाजिक दबाव को समाप्त करने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बड़ी घोषणाएं की गईं। 

राजनीतिक शब्दकोष में शायद ऐसा कोई मुद्दा नहीं बचा है, जिसे भाजपा नेताओं ने जनता से सुलझाने का वायदा न किया हो! उपरोक्त वायदों और घोषणाओं को क्रियान्वित करने के लिए ‘ नोटबंदी’ और ‘जी.एस.टी.’ जैसे कानूनों के क्रियान्वयन को ‘नई आजादी’ का नाम दिया गया। ‘नोटबंदी’ ने एक गुप्त योजना के तहत देश के खजाने में जमा ‘काले धन’ की कुल राशि को ‘सफेद धन’ में बदल दिया था। ‘नोटबंदी’ के कारण देश के करोड़ों लोगों को अपने बैंक खातों से पैसे निकालने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिसके कारण 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई, वह हमारे इतिहास के पन्नों पर काले अक्षरों में लिखा गया है। 

जी.एस.टी. आर्थिक संसाधनों को केंद्र के अधीन करने से न केवल छोटे एवं मध्यम स्तर के व्यापारियों एवं व्यवसायियों को परेशान किया गया है, बल्कि देश के संघीय ढांचे को भी काफी कमजोर कर दिया गया है और राज्यों के वित्तीय अधिकारों पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण किया गया है। महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और कर्ज के बोझ से गरीबों और निचले तबके के लोगों का क्या हाल हो चला है, यह बताना मुश्किल है। 

प्रधानमंत्री द्वारा मुफ्त भोजन देने की घोषणा इस सच्चाई को समझने के लिए काफी है कि 140 करोड़ लोगों में से 80 करोड़ लोगों के पास अपना पेट भरने की भी क्षमता नहीं है। बेरोजगारी पिछले 45 साल में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। जिस तरह से युवा पीढ़ी रोजी-रोटी के लिए विदेशों की ओर पलायन कर रही है, वह बेहद दुखद और अफसोसजनक घटना है। ‘विश्व गुरु’ होने का दावा। करने वाले भारत का ‘भविष्य’ अपनी ही धरती छोड़कर विदेश चला गया वह जीने के लिए अपना तन, मन और धन दाव पर लगा रहा है! 

जनता की उपरोक्त समस्याओं को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए केंद्र की भाजपा सरकार और उसके अधीन सरकारी तंत्र तथा इन सबका वर्तमान ‘सुप्रीमो’ संघ परिवार दिन-रात लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने में लगा हुआ है। जिस हद तक ‘गोदी मीडिया’ भगवान श्री राम की सत्ताधारी पार्टी के संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए अयोध्या में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ का 24 घंटे दुरुपयोग कर रहा है, वह बेहद खतरनाक और आक्रामक है। यह श्री रामजी के प्रति लोगों की सच्ची आस्था का सीधा राजनीतिकरण और व्यवसायीकरण है। टी.वी. चैनल डिबेट में ऐसे धार्मिक मुद्दे उठाते हैं, जो किसी धर्म विशेष के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकने वालों का पक्ष लेते हैं। कहने की जरूरत नहीं है, यह सरासर एकतरफा प्रचार है, जिसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ नफरत भड़काना है। 

देश के मौजूदा माहौल में किसी भी तर्कशील व्यक्ति का पिछड़े और अंधेरे सामाजिक रीति-रिवाजों के बारे में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं है। क्या मोदी सरकार जो ‘सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास’ का नारा लगाते नहीं थकती, क्या अन्य धार्मिक त्यौहारों/मुद्दों पर भी ऐसी ही पहल करेगी? धार्मिक संस्थाओं के कार्यों को सरकार के हाथ में लेना कभी भी सुखद नहीं हो सकता। 

राम मंदिर का निर्माण आज बहस का मुद्दा नहीं है और न ही कोई राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से इस संबंध में सभी विवाद खत्म हो गए हैं, हालांकि कुछ लोगों के मन में अभी भी संदेह बना हुआ है। लेकिन क्या कोई समझदार व्यक्ति इस बात से सहमत हो सकता है कि मोदी सरकार ने राम मंदिर से जुड़े धार्मिक आयोजनों का पूरी तरह से निजीकरण कर दिया है? आर.एस.एस. और जिस तरह से भाजपा सरकार इस तरह के आयोजन कर रही है, उससे दूसरे धर्म के लोगों को श्री राम के प्रति भक्ति दिखाने के लिए किनारे किया जा रहा है। 

बहु-धार्मिक, बहु-भाषी, बहु-जातीय और बहु-सांस्कृतिक लोगों के देश को सभी संवैधानिक और नैतिक सीमाओं का उल्लंघन करके एक धर्म-आधारित देश का निवासी बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सदियों से सभी धर्मों के लोग एक साथ रहते आए हैं और एक-दूसरे की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते आए हैं और आज भी धार्मिक त्यौहारों के दौरान एक-दूसरे को गले लगाकर बधाई देते हैं। 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन से कुछ दिन पहले, 21 मुस्लिम युवकों ने हाल बाजार (श्री अमृतसर) में रामनवमी के पवित्र त्यौहार के दौरान घोड़े पर सवार होकर एक धार्मिक जलूस का नेतृत्व किया, जिससे अंग्रेजी साम्राज्य कांप उठा। यह सब भुला दिया गया? लेकिन, हमारे आज के शासक शायद उस आसान सोच को अतीत की एक छोटी और भूलने योग्य घटना बनाने पर तुले हुए हैं। 

हमारे लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी भी धर्म को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। यही धार्मिक स्वतंत्रता हमारे लोकतंत्र की रीढ़ है। यदि ऐसा हुआ तो देश की पहचान और अस्तित्व का आधार बनी ‘अनेकता में एकता’ की अवधारणा मिट्टी में मिल जाएगी और भविष्य में सामाजिक संबंधों का समावेश नहीं हो पाएगा। 2024 का लोकसभा  चुनाव जीतने  के लिए भाजपा ने यह संकीर्ण रास्ता अपनाया है। एक विशेष धर्म और विचार को मानने वाले लोगों को ‘देशद्रोही’ और ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है। संघ द्वारा किसी विशेष धर्म के तौर-तरीकों, खान-पान, पहनावे और रीति-रिवाजों की बेहद आपत्तिजनक ढंग से निंदा की जाती है। 

परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी हुई है। सरकारी निर्देशों और आदेशों के तहत काम करने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर सच्चाई का कोई निशान न छोड़ते हुए एकतरफा प्रचार करने का आरोप लगाया गया है। यह परिघटना किसी भी धर्म या समाज के हितों के लिए अच्छी साबित नहीं हो सकती और तार्किक रूप से ‘शक्ति’ एक बहुत छोटे समूह और दायरे में केंद्रित हो जाएगी और समाज के एक बड़े हिस्से को संदेह की नजर से देखने लगेगी। लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं और सभी प्रकार के संवैधानिक और मानवाधिकार लगभग क्षीण हो जाएंगे। इतिहास में ‘तानाशाही’ का इतना उदय कभी भी जनता के हित में नहीं रहा। ऐसे ही परिणाम आज भारत में भी अनुभव हो रहे हैं। यदि हमने ऐसे अलोकतांत्रिक एवं संकीर्ण विचारों से जन्मी बुराइयों को नहीं रोका तो इसकी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी।-मंगत राम पासला

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