सत्ता के खेल में नेताओं के लिए सिर्फ जीत ही सब कुछ

Edited By ,Updated: 26 May, 2024 05:59 AM

in the game of power victory is everything for leaders

सभी दल जब-तब दलबदल को लोकतंत्र और राजनीति के लिए नुकसानदेह बताते रहते हैं, लेकिन दलबदल का खेल खेलने में संकोच नहीं करते। बेशक देश में दलबदल रोकने वाले कानून भी हैं, पर जिन पर उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी होती है, वे ही अक्सर उन्हें धत्ता बताते नजर...

सभी दल जब-तब दलबदल को लोकतंत्र और राजनीति के लिए नुकसानदेह बताते रहते हैं, लेकिन दलबदल का खेल खेलने में संकोच नहीं करते। बेशक देश में दलबदल रोकने वाले कानून भी हैं, पर जिन पर उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी होती है, वे ही अक्सर उन्हें धत्ता बताते नजर आते हैं। महाराष्ट्र में जो हुआ, सबके सामने है। दलबदलुओं के विरुद्ध लंबित याचिकाओं पर फैसला विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने पर ही आने के उदाहरण तो तमाम हैं। 

दलबदल करने वाले नेता होते हैं और कराने वाले राजनीतिक दल। वे ही अक्सर इस प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका में भी रहते हैं। अक्सर विचारधारा की दुहाई देने वाले दल और नेता चुनाव के आसपास अवसरवादी राजनीति का खेल दलबदल के जरिए खुल कर खेलते हैं। दरअसल दलबदल के लिए अपने विरोधी दल पर हर संभव आरोप लगाने वाले दल जब खुद ऐसा करते हैं तो उन्हें उसमें हृदय परिवर्तन और विचारधारा के दर्शन होने लगते हैं। बेशक शायद ही कोई दल इस खेल में अपवाद हो, पर खुद को अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति की वाहक और विश्व का सबसे बड़ा दल बताने वाली भाजपा ही इसमें सबसे आगे नजर आए, तब आप किसी और को क्या कहेंगे? 

2014 में भाजपा के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से दलबदल का खेल जैसे और जितने बड़े स्तर पर खेला गया है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा ने नारा तो ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का दिया था, लेकिन पिछले 10 साल में खुद भाजपा, ‘कांग्रेस युक्त’ हो गई नजर आती है। दशकों या सालों तक कांग्रेसी या किसी और विचारधारा से प्रभावित रहे नेता की विचारधारा धुर विरोधी भाजपा का पटका गले में पहन लेने मात्र से कैसे बदल जाती होगी यह वाकई शोध का विषय है। 

कुछ दिन पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भाजपा पर बड़ी संख्या में कांग्रेस विधायक अपने दल में शामिल कर लेने का आरोप लगाया था। ऐसे दलबदलू नेताओं की तो सही संख्या भी बता पाना मुश्किल है, जिन्होंने राजनीति की हवा का रुख बदलता देख अपना रास्ता बदल लिया, लेकिन 18वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने जितनी बड़ी संख्या में दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दिया है, वह बहुत कुछ कहता ही नहीं, उससे असहज सवाल भी पूछता है। लोकसभा की कुल 543 सीटों में से अपने सहयोगियों के साथ 400 सीटें जीतने का नारा देने वाली भाजपा खुद 435 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 

खुद 370 सीटें जीतने का भाजपा का सपना साकार होगा या नहीं यह तो चार जून को चुनाव परिणाम बताएंगे, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि भाजपा के कुल 435 में से 106 उम्मीदवार ऐसे हैं, जो पिछले 10 सालों में दूसरे दलों से आए हैं। इन दलबदलू उम्मीदवारों में से 90 ने तो पिछले 5 साल में भी भाजपा का दामन थामा है। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि 24 प्रतिशत यानि लगभग एक-चौथाई दलबदलू उम्मीदवारों को लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर के चुनाव में टिकट देने से न तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की साख बढ़ती है और न ही खुद को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताने वाली भाजपा की। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ कर हाल ही में भाजपाई हो गए अरविंदर सिंह लवली की भाजपा में यह दूसरी पारी है। 

दिल्ली में कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रह चुके लवली अगर भाजपा की विचारधारा से इतना ही प्रभावित हैं तो वर्ष 2017 में जा कर कुछ महीनों बाद ही क्यों लौट आए थे? खैर लोकसभा चुनाव में दल बदलुओं को टिकट की बात करते हैं। भाजपा ने सबसे ज्यादा 23 दलबदलुओं को उस उत्तर प्रदेश में टिकट दिया है, जो उसका सबसे बड़ा शक्ति स्रोत माना जाता है। प्रतिशत की बात करें तो आंध्र प्रदेश बाजी मार ले गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की तरह भाजपा का भी खाता नहीं खुल पाया था। सो, इस बार भाजपा ने पुराने दोस्त चंद्रबाबू नायडू और उनके दोस्त फिल्म अभिनेता पवन कल्याण से हाथ मिलाया है। नायडू की टी.डी.पी. और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी से गठबंधन में भाजपा के हिस्से आंध्र की कुल 25 लोकसभा सीटों में से 6 आई हैं। आश्चर्यजनक यह है कि इनमें 5 सीटों पर उसने दलबदलुओं को टिकट दिया है। 

यह जान कर आपकी हैरत और बढ़ सकती है कि अपने सहयोगी दल टी.डी.पी. से आए नेताओं को भी भाजपा ने टिकट दिया है। तेलंगाना में लोकसभा की कुल 17 सीटें हैं, जिनमें से 11 पर भाजपा ने दलबदलू उम्मीदवार उतारे हैं। इनमें से 6 उम्मीदवार तो ऐसे हैं, जो चुनाव से पहले ही भाजपा में आए। जिस कांग्रेस और बी.आर.एस. के विरुद्ध भाजपा ने तेलंगाना में चुनाव लड़ा, उनसे दलबदल कर आए उम्मीदवारों को भी टिकट दिया गया। शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन टूट जाने के बाद भाजपा पंजाब में पहली बार अकेले चुनाव लड़ रही है। 

पंजाब में लोकसभा की कुल 13 सीटें हैं और उसे सात दलबदलुओं पर दांव लगाना पड़ा है। ये हैं पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की सांसद पत्नी परनीत कौर, पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पौत्र सांसद रवनीत सिंह बिट्टू, कांग्रेस से वाया आम आदमी पार्टी आए सांसद सुशील कुमार रिंकू, कभी कांग्रेस से विधानसभा चुनाव लड़े हंसराज हंस, अरविंद खन्ना और गुरमीत सिंह सोढी। 

जिस हरियाणा में भाजपा की पिछले दस साल से सरकार है, वहां भी उसने आधा दर्जन दलबदलुओं पर दांव लगाया है। राव इंद्रजीत सिंह, धर्मबीर सिंह, अरविंद शर्मा, रणजीत सिंह चौटाला, अशोक तंवर और नवीन जिंदल ये सभी पूर्व कांग्रेसी हैं। अन्य राज्यों पर भी नजर डालें तो भाजपा ने पश्चिम बंगाल में 10, महाराष्ट्र में 7, झारखंड में 7, ओडिशा में 6, तमिलनाडु में 5, कर्नाटक में 4, बिहार में 3 तथा राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और केरल में 2-2 दलबदलुओं को टिकट दिया है।बेशक उम्मीदवारों की किस्मत का अंतिम फैसला मतदाता ही करते हैं, पर राजनीतिक दलों और नेताओं ने तो दिखा दिया है कि सत्ता के खेल में उनके लिए नीति, निष्ठा और नैतिकता कोई मायने नहीं रखती। मायने रखती है तो सिर्फ जीत फिर वह चाहे जैसे भी मिले।-राज कुमार सिंह  
 

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