संकट की इस घड़ी में सरकार लाजिमी तौर पर ‘सामाजिक विकार’ होने से रोके

Edited By ,Updated: 14 Apr, 2020 03:58 AM

in this time of crisis government prevented from having social disorder

प्रधानमंत्री की 9 मिनट की ‘लाइट आऊट-कैंडल ऑन’ पहल में बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। सरकार को इसे विपरीत परिस्थितियों में जन समर्थन द्वारा दिए गए आश्वासन के संकेत के रूप में लेना चाहिए, न कि सरकार द्वारा कड़ाई से लगाए गए लॉकडाऊन के किसी भी मामले...

प्रधानमंत्री की 9 मिनट की ‘लाइट आऊट-कैंडल ऑन’ पहल में बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। सरकार को इसे विपरीत परिस्थितियों में जन समर्थन द्वारा दिए गए आश्वासन के संकेत के रूप में लेना चाहिए, न कि सरकार द्वारा कड़ाई से लगाए गए लॉकडाऊन के किसी भी मामले के समर्थन के रूप में। तालाबंदी की घोषणा के परिणामों पर विचार-विमर्श करते समय सरकार ने जिन भी जोखिमों का आकलन किया उसमें अब यह स्पष्ट हो गया है कि केंद्र सरकार ने लंबी अवधि के दौरान प्रवासी श्रमिकों के पलायन का अनुमान नहीं लगाया था। 

सरकार की धारणा यह रही कि कफ्र्यू और सार्वजनिक परिवहन के अभाव के चलते प्रवासी मजदूरों को बड़े पैमाने पर रोक लिया जाएगा। अगर सरकार को इनके पलायन का कोई भी संकेत मिलता तो वह अलग तरीके से काम करती। अपने कार्यस्थलों के पास प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त पोषण व्यवस्था नहीं करना सरकार द्वारा लिए गए निर्णय की एक भयंकर कमी थी। स्थिति तब भयावह हो गई जब सरकार द्वारा अपने घरों की ओर जाते लाखों लोगों के मार्ग को बंद करने के असफल प्रयास करने के कारण तबाही मच गई। मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर, लगभग सभी ने सरकारी प्रयासों को दरकिनार कर दिया है और या तो वहीं अपना घर बना लिया है या अपने घर के करीब पहुंच गए। 

कोरोना वायरस का मुकाबला करने की रणनीति बनाने वाली केंद्र सरकार के पास 3 आवश्यक उपकरण होते हैं : वित्तीय, स्वास्थ्य देखभाल और कफ्र्यू। और यह निष्कर्ष निकालने में दिल्ली को बहुत देर नहीं लगी कि भारत के पास न तो वित्तीय संसाधन हैं और न ही स्वास्थ्य संबंधी क्षमताएं। 

काम से विस्थापित या किसानों को अपनी उपज बेचने से रोकने और लाखों लोगों को प्रभावी राहत प्रदान करने के लिए आवश्यक बड़े वित्तीय संसाधन की कोई हौंद मौजूद नहीं है। भले ही वित्त मंत्री का अगला पैकेज पहले से दोगुना या तिगुना हो लेकिन अगले कुछ हफ्तों में व्यापक भूख को रोकने के लिए यह अभी भी अपर्याप्त हो सकता है। देश की स्वास्थ्य सेवाओं में सामान्य स्थिति के दौरान ही काफी कमी रही है और जब शुरूआती बिंदू ही इतना कम है तो ऐसे में प्रार्थना करना ज्यादा बेहतर होगा। पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के अभाव में और बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान के साथ सरकार के पास केवल लॉकडाऊन का एक यथार्थवादी विकल्प था, जिसे उसने बिना किसी उचित योजना के लागू करने का सोचा।

विस्थापित, भूखे और नाराज लोगों का एक बड़ा हिस्सा किसी भी सरकार के लिए एक प्रमुख लाल झंडा है। बड़ी संख्या में आबादी और सामाजिक विकार की क्षमता को कम करके आंका नहीं जाना चाहिए। भुखमरी और हताशा शक्तिशाली ताकतें हैं जिनका सरकारें आसानी से मुकाबला नहीं कर सकती हैं। तापमान प्रतिदिन बढ़ रहा है और एक वास्तविक खतरा है कि गर्मी, भूख और कोरोना वायरस के परिणाम स्वरूप यह गर्मी मौत की गर्मी साबित हो सकती है। 

एक तरफ जहां विकसित देशों के पास महीनों, संभवत: वर्षों के लिए आम लोगों और व्यवसायों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं, वहीं भारत में यह बहुत कम हैं। इससे लडऩे में जी.डी.पी. का 10 से 15 प्रतिशत हिस्सा भारत को होने वाले जोखिमों में तेजी से गिरावट, बढ़ती ब्याज दरें और तेज मुद्रास्फीति, मंदी के तेज संकेत  संभवतया चिंता का विषय है। याद रखें कि गरीबों, दलितों और उपेक्षितों को हमेशा से लंबे समय तक सरकार, वास्तव में सभी सरकारों से नाराजगी रही है। उन्हें लगता है कि सिस्टम में उनकी बहुत कम हिस्सेदारी है और वे बड़े पैमाने पर उन्हें दरकिनार करते हुए केवल अपना लाभ देखती हैं। जब आशा खो जाती है और निराशा होती है तो गरीब थोड़ा खोने के साथ अपने गुस्से को उन तरीकों से व्यक्त करते हैं जो अनुमान लगाने में मुश्किल होते हैं। क्रांति की परिभाषा के अनुसार न तो इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है और न ही एक बार शुरू होने पर इसे रोका जा सकता है। 

लोग उसी पर विश्वास करते है जिस पर विश्वास करना चाहते हैं। दुर्भावनापूर्ण अफवाहें स्वीकृत तथ्य बन जाती हैं। जनता में जब हलचल बढ़ जाती है तो अधिकारी और सरकार असहाय हो जाते हैं। हम अभी तक उस स्थिति में नहीं पहुंचे हैं, लेकिन हम बहुत दूर भी नहीं हैं। सरकार को अब निर्णायक तरीके से गरीबों को खिलाना चाहिए और आबादी को आश्वस्त करना होगा कि उन्हें भूखा नहीं छोड़ा जाएगा, उनके लिए आशा और भविष्य दोनों बनना होगा। हमारे पास अनाज के विशाल भंडार हैं जोकि वर्षों से भरे पड़े हैं। 

भंडारण के स्तर देश की खाद्य सुरक्षा जरूरतों से परे हैं। अब उन भंडारों का प्रभावी रूप से तुरंत उपयोग करने का समय है। सामान्य लॉजिस्टिक्स पर भरोसा किए बिना सरकार को यह काम तुरंत सेना को सौंपना होगा क्योंकि केवल सैन्य सटीकता के साथ हम समय पर दूर-दूर तक आपूर्ति करने में सक्षम होंगे इस विश्वास के साथ कि एक दिन हम फिर से सामान्य हो जाएंगे। यह एक ऐसा युद्ध है जो इस देश के विपरीत है। समय का सार है।-जस्सी खंगुरा पूर्व विधायक (लुधियाना) 

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