नागरिकता संशोधन का ‘तर्कहीन’ विरोध

Edited By ,Updated: 22 Feb, 2020 05:12 AM

irrational  opposition to citizenship amendment

नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर देश में एक राजनीतिक विरोध का माहौल पैदा कर दिया गया है। भारत में नागरिकता कानून 1955 में लागू किया गया था जिसमें धारा-2(बी) के अन्तर्गत ‘अवैध प्रवासी’ शब्द की परिभाषा इन शब्दों में दी गई है- ‘‘वह विदेशी जो पासपोर्ट...

नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर देश में एक राजनीतिक विरोध का माहौल पैदा कर दिया गया है। भारत में नागरिकता कानून 1955 में लागू किया गया था जिसमें धारा-2(बी) के अन्तर्गत ‘अवैध प्रवासी’ शब्द की परिभाषा इन शब्दों में दी गई है- ‘‘वह विदेशी जो पासपोर्ट या अन्य आवश्यक यात्रा दस्तावेजों आदि के बिना भारत में प्रवेश करता है। इसके साथ-साथ वह विदेशी जो बेशक ऐसे वैध कानूनी दस्तावेजों के साथ भारत में प्रवेश करे परंतु निर्धारित समय सीमा के बाद भी भारत में ही रहता रहे।’’

इसी प्रकार नागरिकता कानून की धारा-3 जन्म पर आधारित नागरिकता को भी परिभाषित करती है। नागरिकता का विस्तार वर्ष 2004 के नागरिकता संशोधन कानून के द्वारा भी किया गया था। इसी प्रकार वर्ष 1985, 1992 तथा 2005 में भी नागरिकता कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन किए गए थे। 

केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मई, 2014 में सरकार का गठन हुआ था। मैं उस समय राज्यसभा का सदस्य था। मैंने राज्यसभा की याचिका समिति के समक्ष एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था। इस प्रतिवेदन में कहा गया था कि पाकिस्तान से अनेकों हिन्दू अल्पसंख्यक लोग धार्मिक हिंसा के कारण भारत में आकर बस चुके हैं। ये लोग लम्बी अवधि के वीजे पर भारत आकर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब तथा दिल्ली सहित कई अन्य राज्यों में बसे हुए थे। ये लोग अब भारत में ही रहने के इच्छुक हैं और इस संबंध में इन्होंने अनेकों बार भारत सरकार को आवेदन भी किया है। इनकी मुख्य मांग है कि इनकी भारत में प्रवास की अवधि बढ़ाई जाए और इन्हें स्थायी नागरिकता का अधिकार दिया जाए। 

मेरी इस याचिका के उत्तर में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने 15 दिसम्बर, 2014 का अपना एक निर्देश पत्र मुझे भेजा जिसमें यह कहा गया था कि पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, ईसाई और बौद्ध अल्पसंख्यक लोगों को ही लम्बी अवधि का वीजा दिया जाता है जिससे वे भारत के स्थायी नागरिक बन सकें। इसके अतिरिक्त उन पाकिस्तानी महिलाओं को भी यही लाभ दिया जाता था जो भारतीय नागरिक के साथ विवाह करके भारत में रह रही हों। इसी श्रेणी में ऐसी भारतीय महिलाएं भी शामिल की गई थीं जिन्होंने पाकिस्तानी नागरिकों के साथ शादी की परंतु विधवा या तलाक की परिस्थितियों में उनका पाकिस्तान में रहना कठिन हो रहा था। 

सरकार ने यह स्वीकार किया कि लम्बी अवधि की वीजा वाले ऐसे अनेकों पाकिस्तानी नागरिकों की समस्याओं के आवेदन सरकार को मिले थे। गृह मंत्रालय ने इन सब परिस्थितियों और समस्याओं का अवलोकन करने के बाद लम्बी अवधि का वीजा देने की प्रक्रिया में कई संशोधन किए जिससे उनका भारत में आवास सरल भी हो सके और वे स्थायी नागरिकता के अधिकारी बन सकें। लम्बी अवधि का वीजा 5 वर्ष के लिए दिया जाने लगा। राज्य सरकारों को यह अधिकार भी दिए गए कि ऐसे लोगों को निजी रोजगार प्रारम्भ करने की सुविधाएं दी जा सकें। ऐसे परिवारों के बच्चों को हर प्रकार की शिक्षा की सुविधाओं से भी वंचित नहीं किया जा सकता था। 

भारत के हर ग्राम और मोहल्लों में श्मशानघाट हैं जबकि पाकिस्तान के हिन्दुओं को मृतकों के अन्तिम संस्कार करने के लिए 100 किलोमीटर की दूरी पर श्मशानघाट ढूंढना पड़ता है। पाकिस्तान में मंदिरों की घंटियां बजने पर आस-पड़ोस के लोग नींद हराम होने की आपत्तियां करते हैं। जवान लड़कियों का अपहरण करके धर्मांतरण और फिर मुसलमान लड़कों से निकाह तो आम बात हो गई है। अपहरण और बलात्कार की घटनाएं अल्पसंख्यक वर्ग की लड़कियों के साथ बहुत अधिक मात्रा में होती हैं। ऐसी घटनाओं  ने पाकिस्तान में हिन्दू, सिख आदि अल्पसंख्यकों का जीना पूरी तरह कष्टकारी बना दिया। यहां तक कि पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने भी वहां के अल्पसंख्यकों के विरुद्ध मानवाधिकार हनन घटनाओं पर चिंता जताते हुए यह कहा है कि इन अल्पसंख्यकों के पास तो शरण लेने का भी कोई स्थान नहीं है। विभाजन के 5-6 दशकों के बाद भी कुछ लोग हिम्मत जुटाकर पाकिस्तान से भारत आते रहे और यहां के स्वर्ग को देखकर उन्होंने यह संकल्प कर लिया कि भारत की धरती पर मरना मंजूर है परंतु पाकिस्तान जाने का अब कोई लाभ नहीं। 

जब कोई व्यक्ति अपने देश से दूसरे देश प्रवेश करने की अनुमति चाहता है और स्थायी रूप से दूसरे देश में बसना चाहता है क्योंकि उसके अपने देश में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन होता है और वह हर समय प्रताडि़त महसूस करता है। ऐसे व्यक्तियों को शरणार्थी कहा जाता है क्योंकि वे कानून के अनुसार शरणागति प्राप्त करना चाहते हैं। इससे भिन्न कुछ लोग गैर-कानूनी रूप से दूसरे देशों में प्रवेश करते हैं, ऐसे लोगों के जीवन में अपने देश में अत्याचार जैसे तथ्य नहीं जुड़े होते। ऐसे लोग दूसरे देशों में तस्करी या अन्य अपराध करने के उद्देश्य से प्रवेश करते हैं। ऐसे लोगों को घुसपैठिए कहा जाता है। हर देश को शरणार्थी और घुसपैठिए में अंतर समझना चाहिए। शरणार्थी को शरण देना हर देश का मानवीय कत्र्तव्य है। विश्व में लगभग 100 से अधिक ईसाई देश हैं और 30 से अधिक बौद्ध देश हैं। परंतु किसी भी देश का ध्यान पाकिस्तान के ईसाई और बौद्धों को शरण देने की ओर नहीं गया। भारत ने हिन्दुओं और सिखों के साथ-साथ बौद्ध, ईसाई और पारसी अल्पसंख्यकों को भी नागरिकता की सुविधा का विस्तार किया है तो इसे मानवता का उदाहरण समझना चाहिए, राजनीति नहीं। 

राजनीतिक विरोध का एक बिन्दू यह भी है कि यह संशोधन भेदभावपूर्ण है क्योंकि इन तीनों देशों के मुस्लिम नागरिकों पर इसे क्यों नहीं लागू किया गया। इसका उत्तर स्पष्ट है कि ये तीनों देश भारत की तरह सैक्युलर नहीं हैं। बल्कि ये तीनों देश घोषित मुस्लिम देश हैं। दूसरा विरोधी तर्क यह है कि भारत के संविधान में धर्म पर आधारित भेदभाव की अनुमति नहीं दी गई। भारत का संविधान भारतीय अधिकारों को ही मूल अधिकार प्रदान करता है। इसलिए समानता का यह मूल अधिकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश जैसे मुस्लिम देशों के नागरिकों को देना भारत सरकार की जिम्मेदारी नहीं है।-अविनाश राय खन्ना, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, भाजपा

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