कश्मीर को भारत के ‘सभ्यात्मक बंधनों’ से अलग नहीं किया जा सकता

Edited By ,Updated: 05 Oct, 2019 01:31 AM

kashmir cannot be separated from the civilizational bonds of india

जमीनी हकीकतों बारे विश्वसनीय रिपोर्टों के अभाव में आज कश्मीर घाटी की स्थिति एक पहेली बनी हुई है। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि घाटी में ‘प्रतिबंधों’ की रिपोर्टें केवल दिमाग में हैं, जम्मू-कश्मीर में नहीं। अमित शाह एक सम्मानीय व्यक्ति...

जमीनी हकीकतों बारे विश्वसनीय रिपोर्टों के अभाव में आज कश्मीर घाटी की स्थिति एक पहेली बनी हुई है। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि घाटी में ‘प्रतिबंधों’ की रिपोर्टें केवल दिमाग में हैं, जम्मू-कश्मीर में नहीं। अमित शाह एक सम्मानीय व्यक्ति हैं। देश के गृह मंत्री होने के नाते उनसे नई दिल्ली तथा कहीं भी अन्य सामान्य नागरिकों के मुकाबले बेहतर सूचित होने की आशा की जाती है। निश्चित तौर पर नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 तथा 35ए हटाने के बाद उनसे राजनीतिक रूप से असहज मुद्दों पर राजनीतिक बात करने की आशा नहीं की जाती। 

मानवाधिकारों का प्रश्न
अमित शाह ने कहा था कि जो लोग मानवाधिकारों बारे प्रश्न पूछ रहे हैं, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उन्होंने कभी जम्मू-कश्मीर में अब तक मारे गए 41,800 लोगों की विधवाओं अथवा बच्चों के मानवाधिकारों बारे सोचा भी है। गृह मंत्री अमित शाह सच बोलने में सही हैं। इस मामले में आलोचकों की चुप्पी काफी विस्मयकारी है। जम्मू-कश्मीर में समस्या उन लोगों द्वारा पैदा किया गया चुङ्क्षनदा दृष्टिकोण है जो घाटी में दावेदार हैं। उन्होंने तब उदासीन चुप्पी बनाए रखी जब घाटी में पंडितों को मारा गया या उनके पैतृक घरों से बाहर फैंक दिया गया। तब मानवाधिकार कार्यकत्र्ताओं की चुप्पी अधिकतर भारतीयों के लिए अत्यंत परेशान करने वाली थी। हमने वास्तव में घाटी के मुसलमानों तथा निहित हितों को खुश करने की अपनी नीति के लिए भारी कीमत चुकाई है। 

इस संदर्भ में विश्व को याद रखने की जरूरत है कि पाकिस्तान के विपरीत, भारत ने एक धर्मशासित देश बनने से इंकार कर दिया क्योंकि यह हमारी सभ्यता के आधारभूत नियमों के खिलाफ जाता। इसके साथ ही एक समाज तथा व्यक्ति होने के नाते जाति, नस्ल, समुदाय तथा धर्म की परवाह न करते हुए सभी नागरिकों के हित में खुलकर अपने सभ्यात्मक मूल्यों को आगे बढ़ाया। 

अफसोस की बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अपने देश के समृद्ध सभ्यात्मक मूल्यों तथा विरासत बारे समझा पाने में असफल रहे। अन्यथा, मैं महसूस करता हूं कि वह हाल के दिनों में बार-बार नहीं दोहराते कि वह ‘कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करने को तैयार हैं, यदि भारत तथा पाकिस्तान दोनों ऐसा चाहें।’ किस चीज की मध्यस्थता और किस उद्देश्य से? क्या वह इमरान खान की उम्मीदों को जीवित रखने के लिए पीछे की ओर मुडऩा चाहते हैं। नई दिल्ली अमरीकी राष्ट्रपति के अधपकेविचारों तथा सिद्धांतों का हिस्सा नहीं बन सकती। 

मैं अवश्य ईमानदारी से कहूंगा कि कश्मीर नाम शक्तिशाली छवियां तथा भावनाएं उभारता है और अतीत की गहरी यादों को झकझोड़ता है, जब कश्मीर हिंदू सभ्यता की प्रमुख नर्सरी था। पाकिस्तान के इमरान खान तथा उनकी सेना या आतंकवादियों और इस्लामाबाद की खुफिया एजैंसी (आई.एस.आई.) के भाड़े के टट्टुओं अथवा कट्टरवादी ताकतों द्वारा वित्त पोषित ‘इस्लाम के सैनिकों’ को बलपूर्वक कश्मीर को ‘समाधान’ के आदेश देने तथा दक्षिण एशिया में भू-राजनीतिक संतुलन बिगाडऩे की इजाजत नहीं दी जा सकती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि यह द्विपक्षीय मुद्दा है तथा इसमें तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं है। क्या मैं यह पूछ सकता हूं कि फिर क्यों अमरीकी राष्ट्रपति मध्यस्थता का ढिंढोरा पीट रहे हैं? 

मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने का प्रमाण
सच है कि भारत तथा पाकिस्तान के बीच नवीनतम तनाव नई दिल्ली द्वारा संविधान के अनुच्छेदों 370 तथा 35ए को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने के बाद उत्पन्न हुए हैं। इस कार्रवाई पर इस्लामाबाद की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आई। यहां तक कि उसने नई दिल्ली के साथ कूटनीतिक संंबंध भी तोड़ दिए। तब से पाकिस्तान इस मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का प्रयास कर रहा है लेकिन भारत का जोर देकर कहना है कि अनुच्ेद 370 को हटाना उसका ‘आंतरिक मामला’ है और यह सही भी है। नई दिल्ली ने इस्लामाबाद को सच्चाई स्वीकार करने तथा किसी भी कीमत पर कश्मीर को हड़पने के अपने भारत विरोधी राग को बंद करने के लिए भी कहा है। 

मुझे ‘मध्यस्थ’ के तौर पर ट्रम्प की विश्वसनीयता पर संदेह है। नई दिल्ली ने ऐसे सभी प्रस्तावों को ठुकरा कर अच्छा किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि वह कश्मीर मुद्दे पर ‘किसी भी देश को कष्ट नहीं देना चाहते’, यहां तक कि डोनाल्ड ट्रम्प तथा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के इस बारे काफी मुखर होने के बावजूद। मुझे हैरानी है कि क्यों अमरीकी राष्ट्रपति इस पर अड़े हुए हैं, हालांकि वह इस संबंध में भारत की मजबूत स्थिति बारे जानते हैं। 

महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि क्या डोनाल्ड ट्रम्प ‘कोई गोपनीय खेल खेल रहे हैं या भारत के खिलाफ किसी तरह का कूटनीतिक षड्यंत्र रच रहे हैं?’ मुझे इस बारे हैरानी नहीं होगी क्योंकि हम अफगानिस्तान की बदलती हुई स्थिति के व्यापक संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति की स्थिति देख चुके हैं। वह जाहिरा तौर पर अफगान स्थिति की पेचीदगियों के मद्देनजर इमरान खान को खुश रखना चाहते हैं। मैं आशा करता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी खुद को डोनाल्ड ट्रम्प की मीठी बातों में नहीं आने देंगे। उन्हें देश के सकल रणनीतिक हितों पर आलोचनात्मक नजर रखने तथा देश की विदेश नीति के संचालन हेतु एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। ऐतिहासिक रूप से बात करें तो अमरीका तथा ब्रिटेन कश्मीर में अपने पांव जमाना चाहते थे ताकि चीन तथा सोवियत संघ पर नजर रख सकें। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अफगानिस्तान को नजर में रखते हुए कश्मीर को भू-राजनीति के भंवर में ले आए हैं। 

पहचान का मामला
यह याद रखा जाना चाहिए कि इस्लामिक कट्टरवाद इस शताब्दी के पलटने के साथ ही उभार पर है। बदले में ऐसे घटनाक्रम ने कई प्रश्र उठाए हैं-क्या कश्मीरी मुसलमान अपनी इस्लामिक पहचान की बजाय कश्मीरी पहचान की अधिक परवाह करते हैं? क्यों उन्होंने आधिकारिक भाषा के तौर पर उर्दू को चुना? क्यों उन्होंने कश्मीरी के लिए फारसी लिपि को अपनाया। यह जाहिरा तौर पर अलगाववाद के लिए उनकी चाहत का हिस्सा था जैसा कि हम गत 70 वर्षों से देखते आ रहे हैं। क्या कभी इस्लामिक पहचान के हिमायतियों ने सोचा कि जम्मू तथा लद्दाख के लोगों की अपनी खुद की पहचानें हैं। 

क्या कश्मीरी मुसलमान खुद को इसलिए ‘विशेष’ समझते हैं क्योंकि वे मुसलमान हैं? यदि ऐसा है तो देश के अन्य हिस्सों में रहते लगभग 14 करोड़ मुसलमानों का क्या? ऐसी सोच वाले प्रोफैसर सैफुद्दीन सोज तथा अन्य कश्मीरी नेता घाटी के बाकी देश के साथ जुड़ाव के विरुद्ध हैं। असगर अली इंजीनियर, जो एक बोहरा मुसलमान हैं, मानते हैं कि यदि कश्मीर पाकिस्तान को चला जाता है, जैसी कि इसके नेता लालसा पाले हुए हैं तो इसका अर्थ भारत में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का अंत होगा (सैकुलर क्राऊन आन फायर: द कश्मीर प्राब्लम)। उनकी बात में तर्क है, हालांकि यह कहना कठिन है कि हिंदुओं की आधारभूत सोच, सहिष्णुता की उनकी समृद्ध परम्परा में बदलाव आएगा। 

भारतीय नेताओं को अच्छा बनने तथा एक आवाज में यह कहने की जरूरत नहीं है कि कैसे भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, कश्मीर सहित। यह बाकी दुनिया से अलग है। मोदी-शाह की जोड़ी को जमीनी स्तर पर वास्तविक राजनीतिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने, लोकतंत्र की आधारभूत स्थितियों को बहाल करने तथा हिरासत में रखे गए मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं के साथ वार्ता करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।-हरि जयसिंह
 

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