मौत के कुंओं में दम तोड़ता जीवन

Edited By ,Updated: 15 Apr, 2024 05:47 AM

life dying in the wells of death

भूमिगत सीवर सिस्टम ने भले ही समूची व्यवस्था का प्रारूप बदलकर रख दिया हो लेकिन सफाई के लिए अत्याधुनिक संयंत्र प्रयोग करने के मामले में देश आज भी काफी पिछड़ा नजर आता है। सुरक्षा के लिहाज से सीवर सफाई कर्मियों को आवश्यक उपकरण तक उपलब्ध करवाना आवश्यक...

भूमिगत सीवर सिस्टम ने भले ही समूची व्यवस्था का प्रारूप बदलकर रख दिया हो लेकिन सफाई के लिए अत्याधुनिक संयंत्र प्रयोग करने के मामले में देश आज भी काफी पिछड़ा नजर आता है। सुरक्षा के लिहाज से सीवर सफाई कर्मियों को आवश्यक उपकरण तक उपलब्ध करवाना आवश्यक नहीं समझा जाता। यही कोताही अक्सर जानलेवा सिद्ध होती है। बीते दिनों, गुरदासपुर के चावा गांंव में सीवरेज साफ करते समय विषैली गैस चढऩे से एक मजदूर की जान चली गई जबकि अन्य 2 मूर्छित हो गए। ऐसी ही घटनाएं वर्ष 2019 को अमृतसर में तथा 2017 को श्री मुक्तसर साहिब के मलोट तथा गिद्दड़बाहा में भी देखने को आई थीं, जहां प्रत्येक घटना में क्रमश: 2-2-2 मजदूरों ने दम तोड़ दिया था। बीते मार्च माह, पलवल में भी प्राण घातक सीवरेज गैस ने 2 सफाई कर्मियों को मौत के आगोश में धकेल दिया, जबकि 3 गंभीर रूप से घायल पाए गए। 

‘टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के तहत, 24 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों से प्राप्त राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (एन.सी.एस.के.) के पास उपलब्ध ताजा आंकड़ों के अनुसार, 1993 के बाद सीवर/सैप्टिक टैंक से होने वाली मौतों के 1,248 मामलों में से 58 मामले अप्रैल, 2023 से इस साल मार्च तक हैं। सर्वाधिक मामले (11) तमिलनाडु में देखने में आए, पंजाब में इनकी संख्या 6 रही। देश के विभिन्न भागों में औसतन प्रतिदिन 2 सफाईकर्मी जिंदगी गंवा बैठते हैं। 

विचारणीय है, ‘मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट, 2013’ के तहत किसी भी व्यक्ति  को सीवर में भेजना पूर्णत: प्रतिबंधित है। अगर विषम परिस्थिति में कोई व्यक्ति सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए 27 प्रकार के नियमों का पालन करना जरूरी है। संवैधानिक सुरक्षा उपाय व प्रावधानानुसार, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14, 17, 21 तथा 23 हाथ से मैला उठाने वालों को सुरक्षा-गारंटी प्रदान करता है। भूमिगत सफाई से पूर्व कर्मचारियों को आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा मुंबई हाईकोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों एवं सरकारी अध्यादेश, 2008 के अंतर्गत कानूनी प्रावधानों में शुमार होता है, बावजूद इसके ठेकेदारों द्वारा नियमित सफाई कर्मियों के अतिरिक्त संविदा व ठेके पर भर्ती मजदूर बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के मैनहोल में उतारना एक आम बात है। मानवीय अपशिष्ट तथा इनमें सम्मिलित अन्य हानिकारक पदार्थों के सीधे संपर्क में आने के कारण जहां गंभीर रोगों से ग्रसित होने की आशंका बढ़ जाती है, वहीं गहरे कुंडों में जमा रसायन, विषैली गैसें उत्पन्न करके दमघोंटू माहौल सृजित कर डालते हैं, जिसकी चपेट में आने से असामयिक मृत्यु होने का खतरा भी बना रहता है। 

गत वर्ष अक्तूबर माह में सर्वोच्च न्यायालय ने सीवर सफाई के दौरान सफाई कर्मी की मौत होने पर मिलने वाला मुआवजा बढ़ाकर 30 लाख रुपए करने का आदेश दिया था। स्थायी दिव्यांगता होने पर न्यूनतम 20 लाख रुपए तथा अन्य प्रकार की दिव्यांगता में सरकारी अधिकारियों द्वारा पीड़ित पक्ष को 10 लाख रुपए अदा करने की बात भी कही। ‘प्रतिषेध तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013’ इस कुप्रथा के उन्मूलन हेतु प्रतिबद्ध है किंतु ‘केंद्रीय सामाजिक व अधिकारिता मंत्रालय’ द्वारा जून, 2023 में जारी आंकड़े बताते हैं, 766 में से मात्र 508 जिले स्वयं को हाथ से मैला ढोने की प्रथा से मुक्त  घोषित कर पाए। निश्चय ही, यह विसंगति प्रथा की वास्तविक स्थिति व सरकारी प्रयासों की प्रभावशीलता को लेकर ङ्क्षचता उत्पन्न करती है।

आर्थिक सुदृढ़ता की ओर कदम बढ़ाते भारतवर्ष में अधिकांश नगरपालिकाओं के पास सीवेज सिस्टम की सफाई हेतु नवीनतम संयंत्र उपलब्ध न होना आश्चर्यजनक है। ऐसी घटनाएं मजदूर कल्याण योजनाओं को धत्ता बताती प्रतीत होती हैं। जातिगत हाशिए पर धकेले समुदायों के लिए भरपूर आश्वासनों के बावजूद वैकल्पिक रोजगार अवसरों तक पर्याप्त पहुंच न होने के कारण, आजीविका के तौर पर ‘मैनुअल स्कैवेजिंग’ स्वीकारना एक विवशता बन जाता है। कम पैसे में कार्य निपटाने की स्वार्थी सोच भी इस कुप्रथा को मिटने ही नहीं देती। हाथ से मैला ढोना व्यक्ति  की गरिमा व मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। सामाजिक भेदभाव, जातिगत उत्पीडऩ बढ़ाने के साथ यह भावनात्मक तनाव को भी जन्म देता है।

जातिगत विद्वेष को बढ़ावा देने वाली यह प्रथा वास्तव में समाज की संकीर्ण सोच की परिचायक है, जो न केवल मानवीयता के स्तर पर मानव को मानव से विलग करती है अपितु सृष्टि के समभाव नियम का भी उल्लंघन करती है। समुचित निवेश द्वारा आधुनिक शौचालयों, सीवेज उपचार संयंत्रों तथा कुशल अपशिष्ट प्रबन्धन प्रणालियों के निर्माण सहित स्वच्छता के बुनियादी ढांचे में सुधार लाया जाए तो नि:संदेह, अपशिष्ट निपटान के लिए सुरक्षित विकल्प मिल जाएंगे। पहल के तौर पर सरकारी-गैर सरकारी संगठन व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु गंभीरतापूर्वक प्रयास करें तो सीवर सफाई कर्मियों के जीवन की दिशा व दशा बदल सकती है। 

जीवन अनमोल है। मुआवजा भले ही आर्थिक संबल दे किंतु किसी पारिवारिक सदस्य के बिछोह से उपजने वाली पीड़ा कदापि कम नहीं कर सकता। देश के हर नागरिक का जीवन सुरक्षित बनाए रखना सरकारों व प्रशासन का सर्वोपरि दायित्व है। नियम कानून होने पर भी यदि इनकी सरेआम धज्जियां उड़ती हैं तो इसे तंत्र की सबसे बड़ी विफलता कहेंगे। जीवन-सुरक्षा के प्रति लापरवाही दर्शाना अथवा घटित घटनाओं को गंभीरतापूर्वक न लेना जहां संवेदनशून्यता का प्रतीक है, वहीं व्यवस्था की कार्यशैली पर भी प्रश्नचिन्ह अंकित करता है। मुआवजा देने भर से हालात नहीं सुधरा करते। स्थितियां तो अनुकूल तभी बनती हैं जब जवाबदेह व्यक्ति यों/ अधिकारियों के विरुद्ध बनती कार्रवाई हो। चंद पैसे बचाने के लालच में गरीब मजदूरों को ‘मौत के कुंओं’ में धकेलने वाले लोग कानून से बचकर, खुलेआम अप्रिय घटनाओं के दोहराव को मौका देने का सबब बनते रहें तो देश के लिए इससे बड़ी विडंबना भला क्या होगी?-दीपिका अरोड़ा 
 

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