कूटनीति और राजनीति का मिश्रण

Edited By ,Updated: 07 Apr, 2024 05:24 AM

mixture of diplomacy and politics

दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नेताओं ने राजनयिक और राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों का उपयोग पक्षपातपूर्ण राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करना उचित समझा है। अधिकांशत: परिणाम विनाशकारी होते हैं। इसका उदाहरण 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट है, जहां क्रमश:...

दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नेताओं ने राजनयिक और राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों का उपयोग पक्षपातपूर्ण राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करना उचित समझा है। अधिकांशत: परिणाम विनाशकारी होते हैं। इसका उदाहरण 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट है, जहां क्रमश: अमरीका और यू.एस.एस.आर. की घरेलू और वैचारिक अनिवार्यताओं ने दुनिया को लगभग परमाणु युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया था। 1960 के संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति चुनावों के लिए राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी के अभियान ने सोवियत संघ के लिए आक्रामक परमाणु हथियारों के ‘मिसाइल गैप’ को बंद करने पर जोर दिया। तब अधिकांश अमरीकियों का मानना था कि सोवियत संघ के पास संयुक्त राज्य अमरीका की तुलना में परमाणु हथियारों का बड़ा भंडार था। यह एक प्रमुख घरेलू राजनीतिक प्रश्न बन गया था। 

दूसरी ओर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.एस.यू.) के महासचिव और सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक संघ के अध्यक्ष निकिता ख्रुश्चेव एक कट्टर माक्र्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के समर्थक थे। जब माक्र्सवादी-लेनिनवादी  क्रांति ने क्यूबा में सत्ता पर कब्जा कर लिया तो ख्रुश्चेव और सी.पी.एस.यू. विचारक ऊर्जावान हो गए। ख्रुश्चेव को विश्वास था कि 1961 में ‘बे ऑफ पिग्स’ पर असफल आक्रमण, जिसमें अमरीका समर्थित निर्वासितों ने कैरेबियन में ‘कम्युनिस्ट स्वर्ग’ को उखाड़ फैंकने का प्रयास किया था, निश्चित रूप से असफल होगा। यह दोहराया गया कि इससे लैटिन और दक्षिण अमरीका में माक्र्सवाद-लेनिनवाद का प्रसार बाधित होगा। साम्यवाद के वैश्विक प्रसार के लिए सोवियत संघ की प्रतिबद्धता को देखते हुए क्यूबा में मिसाइलें तैनात करने के उनके कारण वैचारिक और अर्ध घरेलू थे। यह मिसाइल गैप को बंद करने के लिए नहीं था। इसके बाद सबसे भयानक 12 दिन थे जिन्होंने दुनिया को परमाणु सर्वनाश के कगार पर ला खड़ा किया। 

हमारे समय की घरेलू साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रेरित विदेश नीति में हस्तक्षेप का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण परमाणु हथियारों का डर है जिसे संयुक्त राज्य अमरीका ने 2003 में हमले के बहाने के रूप में इस्तेमाल किया था। सद्दाम हुसैन के शासन को गिराने की योजना किसी भी तरह से नहीं थी। जनवरी 2001 में बुश-43 प्रशासन के कार्यभार संभालने से पहले ही सद्गुण के प्रतिमान की कल्पना की गई थी। जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के व्हाइट हाऊस में प्रवेश करने से बहुत पहले, और 11 सितंबर के हमलों से कई वर्ष पहले उनके राष्ट्रपति पद की दिशा तय हुई थी। प्रभावशाली नव-परंपरावादियों के एक समूह को बोलचाल की भाषा में ‘वल्कन’ कहा जाता था, जो कैंडीडेट बुश-43 के विदेश नीति सलाहकार थे, जिन्होंने सद्दाम हुसैन से छुटकारा पाने के लिए ईराक पर कब्जा करने की साजिश रची थी। 

वल्कन्स को न्यू अमरीकन सैंचुरी, या (पी.एन.ए.सी.) के लिए प्रोजैक्ट द्वारा आगे बढ़ाया गया था। 1997 में स्थापित, इसके संरक्षकों में रिपब्लिकन प्रशासन के 3 पूर्व दिग्गजों, अर्थात् डोनाल्ड रम्सफेल्ड, डिक चेनी और पॉल वोल्फोविट्ज को गिना जाता है, जो क्लिंटन प्रेसीडैंसी के दौरान हाइबरनेशन में थे। सन् 2000 के चुनाव से ठीक पहले जॉर्ज बुश-43 को सिफारिशों के एक सैट में, सत्ता में लाने वाले समूह ने भविष्यवाणी की थी कि सद्दाम हुसैन को बाहर करने के लिए अधिक मुखर नीति की ओर बदलाव धीरे-धीरे आएगा, जब तक कि ‘कुछ विनाशकारी और उत्प्रेरक घटना न हो। यह घटना एक नए पर्ल हार्बर की तरह होगी।’ वह घटना 11 सितंबर, 2001 को घटी थी। उस समय तक, डिक चेनी उप-राष्ट्रपति थे, डोनाल्ड रम्सफेल्ड रक्षा सचिव और पॉल वोल्फोविट्ज पेंटागन में उनके डिप्टी थे। अगली सुबह-इससे पहले कि यह पता लगाया जा सके कि 9/11 के लिए कौन जिम्मेदार था, डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने एक कैबिनेट बैठक में तर्क दिया कि बॉब वुडवर्ड की पुस्तक ‘बुश एट वॉर’ के अनुसार ईराक में  ‘प्रमुख लक्ष्य’ सद्दाम होना चाहिए। 1997 में एक दर्शन के रूप में जो शुरू हुआ वह 2001 में सद्दाम हुसैन शासन का सिर काटने की आधिकारिक अमरीकी नीति बन गया। 

11 सितंबर, 2001 के अल-कायदा हमले के 23 साल बाद संयुक्त राज्य अमरीका अभी भी ईराक में युद्ध में शामिल है, जो सभी गलत कारणों से शुरू हुआ था। राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ईराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन के प्रति बुरी तरह से पागल थे और उन्होंने जानबूझकर अमरीकी लोगों को गुमराह किया कि 9/11 हमले के लिए कौन जिम्मेदार था। ब्रुकिंग्स वैबसाइट पर 9/11 और ईराक में एक त्रासदी का निर्माण शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में ब्रूस रीडेल, जो संयुक्त राज्य अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के कर्मचारी थे, ने यह कहा, ‘14 सितंबर को, मैं बुश के साथ था जब उन्होंने 9/11 के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के साथ अपना पहला फोन कॉल किया था। बुश ने तुरंत कहा कि वह जल्द ही ईराक पर ‘हमला’ करने की योजना बना रहे हैं। ब्लेयर को सुनकर आश्चर्य तो हुआ। 

उन्होंने 9/11 के हमले और अल-कायदा से ईराक के संबंध के सबूत के लिए बुश पर दबाव डाला। बेशक, ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में ब्रिटिश खुफिया विभाग को जानकारी थी। 9/11 के एक हफ्ते बाद 18 सितंबर को, सऊदी राजदूत प्रिंस बंदर-बिन-सुल्तान बुश से मिलने व्हाइट हाऊस आए। बैठक ट्रूमैन बालकनी पर हुई। उप-राष्ट्रपति रिचर्ड चेनी और राइस भी वहां थे। मेरा अनुभव कहता है कि राष्ट्रपति ‘स्पष्ट रूप से सोचते हैं कि इसके  पीछे ईराक का हाथ होना चाहिए। बंदर बिन से उनके सवाल उनके पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं। बंदर बिन स्पष्ट रूप से भ्रमित थे। उन्होंने बुश से कहा कि सऊदी के पास ओसामा बिन लादेन और ईराक के बीच किसी सहयोग का कोई सबूत नहीं है। दरअसल उनका इतिहास विरोधी होने का था। 

बाद में, बंदर ने मुझे निजी तौर पर बताया कि सऊदी लोग इस बात से बहुत ङ्क्षचतित थे कि ईराक के प्रति बुश का जुनून कहां जा रहा है। सऊदी ङ्क्षचतित थे कि ईराक पर हमला करने से केवल ईरान को फायदा होगा और इससे पूरे क्षेत्र में गंभीर अस्थिरता पैदा होगी। सऊदी अरब ने बुश पर फिलिस्तीनी राज्य के समर्थन में सार्वजनिक रूप से सामने आने के लिए दबाव डाला क्योंकि उन्होंने निजी तौर पर सऊदी अरब के क्राऊन प्रिंस अब्दुल्ला अल सऊद से वायदा किया था। 28 सितंबर को बुश ने जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला से मुलाकात की। राजा ने राष्ट्रपति पर इसराईल-फिलिस्तीनी शांति वार्ता को फिर से शुरू करने के लिए कार्रवाई करने का दबाव डाला। उन्होंने तर्क दिया कि फिलिस्तीनी संघर्ष अल-कायदा की लोकप्रियता और वैधता के पीछे प्रेरक शक्ति थी। लेकिन राष्ट्रपति का ध्यान ईराक पर केंद्रित था। संयुक्त राज्य अमरीका जल्द ही ईराक के साथ युद्ध में चला गया। बुश प्रशासन 9/11 हमले की पीड़ा को युद्ध के समर्थन में जुटाने के लिए उत्सुक था। 

खुफिया समुदाय के स्पष्ट निष्कर्ष के बावजूद कि ईराक का 9/11 या अल-कायदा से कोई लेना-देना नहीं है, प्रशासन ने अमरीकियों को इसके विपरीत विश्वास करने दिया। इसलिए राजनयिक या राष्ट्रीय सुरक्षा संकट  पैदा करना और घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए उनका उपयोग करना बेहद नासमझी है। एन.डी.ए./भाजपा सरकार ने घरेलू राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कच्चाथीवू मुद्दे को अनावश्यक रूप से उठाकर और इस तरह श्रीलंका के साथ एक अनावश्यक विवाद पैदा करके कुछ ऐसा ही किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि कच्चाथीवू मुद्दे को पहले के 2 उदाहरणों की अत्यधिक स्पष्टता के साथ जोड़ा जाए। हालांकि यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने ऐसा किया है। मौजूदा सरकार द्वारा 2015 में नेपाल की नाकाबंदी के समान घरेलू राजनीतिक निहितार्थ थे।-मनीष तिवारी
    

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