एम.एस.पी. कानून का खर्च 10 लाख करोड़ या 3 लाख करोड़

Edited By ,Updated: 15 Feb, 2024 04:45 AM

msp expenditure of law 10 lakh crore or 3 lakh crore

राहुल गांधी ने किसानों की एक बड़ी मांग सत्ता में आने पर पूरा करने का वादा कर के क्या तीर  चला दिया है। राहुल गांधी का कहना है कि उनका गठबंधन सत्ता में आया तो एम.एस.पी. को कानून बनाया जाएगा।

राहुल गांधी ने किसानों की एक बड़ी मांग सत्ता में आने पर पूरा करने का वादा कर के क्या तीर  चला दिया है। राहुल गांधी का कहना है कि उनका गठबंधन सत्ता में आया तो एम.एस.पी. को कानून बनाया जाएगा। मोदी ने सत्ता में आने पर स्वामीनाथन आयोग की उस सिफारिश को लागू करने का वादा किया था, जिसमें किसानों को कुल लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने की बात कही गई थी लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे डाला कि वह इस सिफारिश को पूरा नहीं कर सकेगी क्योंकि ऐसा करने पर गेहूं, धान आदि का एम.एस.पी. 20 से 25 फीसदी बढ़ाना होगा और ऐसा होने पर बाजार में इन जिंसों के दाम इस कदर बढ़ जाएंगे कि महंगाई दर 20 फीसदी पार हो जाएगी। क्या राहुल गांधी का एम.एस.पी. को कानून बनाने का वादा भी महंगाई दर में इजाफा करेगा?

कहा जा रहा है कि एम.एस.पी. को कानूनी जामा पहनाया गया तो भारत सरकार पर 10 लाख करोड़ का सालाना भार पड़ेगा। उधर कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि यह भार 3 लाख करोड़ सालाना से ज्यादा नहीं होगा, जिसे सरकार वहन करने की क्षमता रखती है। तर्क दिया जा रहा है कि अगर सरकार कारर्पोरेट घराने को 4 लाख करोड़ की सबसिडी और रियायतें दे सकती है तो अन्नदाता का भला क्यों नहीं कर सकती।

आप सवाल उठा सकते हैं कि आखिर यह 10 लाख करोड़ का आंकड़ा कहां से आया? दरअसल भारत में हर साल एम.एस.पी. के तहत आने वाली 22 जिंसों का जितना भी उत्पादन होता है, उसका बाजार में मूल्य 10 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें गेहूं , धान, मोटा अनाज, दलहन (उड़द, मूंग, चना, मसूर, मोठ, राजमा आदि) और तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी) शामिल हैं।

वैसे इसमें अगर फल-सब्जियां और दूध-अंडे को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 40 लाख करोड़ रुपए सालाना से ज्यादा का बैठता है। लेकिन फल-सब्जी की एम.एस.पी. पर सरकारी खरीद नहीं की जाती, लिहाजा उन्हें अलग रखा जा रहा है। तो कहा जा रहा है कि अगर एम.एस.पी. को कानून के दायरे में लाया गया तो भारत सरकार को किसानों से हर साल 10 लाख करोड़ रुपए की सरकारी खरीद करनी ही होगी। ऐसा हुआ तो आर्थिक कमर टूट जाएगी। कुछ लोग आधारभूत ढांचे के लिए रखे गए 11 लाख करोड़ के बजटीय प्रावधान से इसकी तुलना कर रहे हैं। अब देखते हैं कि आखिर सच्चाई क्या है। क्या वास्तव में 10 लाख करोड़ की सरकारी खरीद करनी होगी या 3 लाख करोड़ रुपए में ही सरकार का काम चल जाएगा।

अगर 2020-21 को देखा जाए तो भारत सरकार ने गेहूं और धान की ही ढाई लाख करोड़ रुपए की सरकारी खरीद की थी। स्वाभाविक है कि एम.एस.पी. को कानून बनाने या न बनाने से इसका कोई लेना देना नहीं है। 82 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, मिड डे मील, आंगनबाड़ी केन्द्रों के लिए सरकार को ढाई लाख करोड़ रुपए का अनाज खरीदना ही पड़ता है। इसमें अगर दलहन और तिलहन की एम.एस.पी. पर सरकारी खरीद को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 3 लाख करोड़ के आसपास पहुंचता है।

एक अनुमान के अनुसार किसान जितनी फसल उगाता है, उसका 25 फीसदी अपनी खपत के लिए अपने पास रखता है, यानि उसे बेचने के लिए न तो सरकार के पास जाता है और न ही मंडियों की शरण लेता है। दाल के मामले में तो किसान 40 फीसदी तक अपने पास घरेलू खपत के लिए रखता है। सरकारी खरीद के 3 लाख करोड़ और बाजार में नहीं आने वाले ढाई लाख करोड़ का हिसाब साढ़े 5 लाख करोड़ बैठता है। तो क्या भारत सरकार को 10 लाख करोड़ की जगह साढ़े 4 लाख करोड़ का अतिरिक्त भार भुगतना होगा? नहीं। ऐसा भी नहीं है। आटा मिल मालिक, धान मिल मालिक, बिस्कुट आदि बनाने वाले गेहूं, धान, बाजरा, मक्का, दाल खरीदते हैं।

यह आंकड़ा डेढ़ लाख करोड़ रुपए के लगभग बैठता है। तो इस तरह 7 लाख करोड़ रुपए का हिसाब आपके सामने है। फिर सरकार जो कृषि उत्पाद खरीदेगी, उसका एक हिस्सा अपने पास रखने के बाद बाकी का बाजार में बेचेगी भी। तो इस प्रकार से अगर एम.एस.पी. को कानून बनाया जाता है तो सरकार पर 3 लाख करोड़ से ज्यादा का सालाना भार नहीं पड़ेगा। उल्टे इससे खेती छोड़कर शहर जा कर मजदूरी करने वाले फिर से खेतों से जुड़ सकेंगे। उन्हें लगेगा कि खेती करना मुनाफे का काम है, तो गांव छोड़ कर धक्के खाने शहर क्यों जाएंगे।

कुछ जानकार तर्क देते हैं कि एम.एस.पी. को कानून बनाने के बाद सरकार ऐसी जिंसों पर एम.एस.पी. बढ़ाकर किसानों को उन जिंसों को उगाने के लिए प्रेरित कर सकती है, जिन्हें वह बदलते वक्त के साथ जरूरी समझती है। दाल के मामले में हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं। हर साल मलेशिया से तेल मंगाने की जरूरत से बचा जा सकता है। तो क्या राहुल गांधी की गारंटी सचमुच महत्वपूर्ण है? देश में खेतिहर मजदूरों को जोड़ दिया जाए तो सीधे तौर पर खेती से करीब 20 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं।

अगर एक घर में तीन वोटर भी हुए तो यह आंकड़ा 50 करोड़ पार जाता है। लेकिन किसान आंदोलन तो किसान के रूप में करता है लेकिन वोट देता है तो जाति में बंध जाता है। कुछ जानकारों का कहना है कि एम.एस.पी. को कानून बनाने की बजाय किसानों को तेलंगाना की रायतु बंधु योजना या ओडिशा की कालिया योजना जैसा लाभ दिया जाना चाहिए। इन योजनाओं में मोटे तौर पर किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से 5,000 रुपए की सबसिडी साल में दो बार (रबी और खरीफ ) मिल जाती है। अगर औसत जमीन चार एकड़ है तो साल में 40 हजार रुपए की नकद सबसिडी।

कुछ जानकारों का कहना है कि मध्य प्रदेश और हरियाणा का भावांतर योजना एम.एस.पी. का अच्छा विकल्प साबित हो सकती है। इन योजनाओं में किसी जिंस के भाव तयशुदा भाव से कम होने पर सरकार उस नुकसान की भरपाई करती है। वैसे दिलचस्प बात है कि इस समय सिर्फ भारत में ही किसान गुस्से में नहीं हैं, यूरोप के कम से कम 10 देशों में इस समय किसानों के आंदोलन चल रहे हैं। सभी जगह किसान ट्रैक्टर लेकर धरने दे रहे हैं, वहां की संसद का घेराव कर रहे हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि भारत में जिस तरह किसानों को राजधानी दिल्ली जाने से रोकने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसी कहीं और नहीं हो रही। लेकिन किसानों का दर्द एक जैसा ही है।

यूरोप में ही बैल्जियम का किसान लागत बढऩे से दुखी है तो फ्रांस का किसान सबसिडी बढ़ाने की मांग कर रहा है। जर्मनी में किसानों का दर्द है कि कृषि डीजल के दाम बढ़ाए जाने की तैयारी हो रही है। स्पेन का किसान नए पर्यावरण नियमों से परेशान है, तो इटली का किसान नौकरशाही के दखल से दुखी है। यही हाल पोलैंड, ग्रीस, रोमानिया के किसानों का है। वहां पुलिस किसानों को प्रदर्शन करने दे रही है। संसद का घेराव भी किया जा रहा है। तनाव बढऩे पर पुलिस किसानों को गिरफ्तार जरूर कर रही है लेकिन राह में कंटीली कीलें नहीं रोप रही। सीमैंट के भारी-भरकम अवरोधक खड़े नहीं कर रही और न ही हाईवे पर खाइयां खोद रही है। -विजय विद्रोही

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