एक निशान, एक विधान, एक प्रधान का सपना ‘डा. मुखर्जी’ ने देखा था

Edited By ,Updated: 23 Jun, 2021 04:49 AM

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राष्ट्रवाद की विचारधारा, देश की एकता और अखंडता के लिए प्रतिबद्धता तथा राजनीतिक विकल्प के बीजारोपण के लिए आजादी के बाद के इतिहास में अगर किसी एक राजनेता का स्मरण

राष्ट्रवाद की विचारधारा, देश की एकता और अखंडता के लिए प्रतिबद्धता तथा राजनीतिक विकल्प के बीजारोपण के लिए आजादी के बाद के इतिहास में अगर किसी एक राजनेता का स्मरण आता है तो वह डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं। बेशक आजादी के बाद डा. मुखर्जी अधिक सालों तक जीवित नहीं रहे, लेकिन छोटे कालखंड में ही वैचारिक राजनीति के लिए उन्होंने बड़े अधिष्ठान चिह्न प्रस्थापित किए। 

जम्मू-कश्मीर की समस्या को पहचानने तथा इसके समूल निस्तारण के लिए पुरजोर आवाज उठाने वाले डा. मुखर्जी ही थे। बंगाल विभाजन की परिस्थिति के बीच भारत के हितों का पक्षधर बनकर अगर कोई खड़ा हुआ तो वे डा. मुखर्जी ही थे। आजादी के बाद सत्ता में आई कांग्रेस द्वारा देश पर थोपी जा रही गैर भारतीय तथा आयातित विचारधाराओं का ताॢकक विरोध कर भारत, भारतीय तथा भारतीयता के विचारों के अनुरूप राजनीतिक विकल्प देश को देने वालों में अग्रणी डा. मुखर्जी ही थे। 

आजादी के बाद देश में गठित पहली नेहरू सरकार में डा. मुखर्जी को उद्योग और आपूॢत मंत्री बनाया गया। वे सरकार का हिस्सा थे किंतु तत्कालीन परिस्थितियों में कांग्रेस सरकार द्वारा नेहरू-लियाकत पैक्ट में ङ्क्षहदू हितों की अनदेखी से क्षुब्ध होकर उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। यह इस्तीफा उनकी उच्च वैचारिक चेतना का जीवंत प्रमाण है। बेमेल विचारों के साथ सत्ता में बने रहना डा. मुखर्जी को मंजूर नहीं था। इसलिए सरकार से इस्तीफा देकर उन्होंने देश में एक नए राजनीतिक विकल्प के लिए चर्चाएं शुरू कीं। 

विदित हो कि देश की स्वतंत्रता के लिए भिन्न-भिन्न विचारों के लोग कांग्रेस की छतरी के नीचे आए थे, किन्तु आजादी के बाद धीरे-धीरे देश में इस बहस की सुगबुगाहट शुरू हुई कि कांग्रेस की विचारधारा का विकल्प क्या हो सकता है? एक ऐसी विचारधारा की तलाश देश कर रहा था जिसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद देश की एकता अखंडता के संकल्प के साथ तुष्टीकरण के विरोध की नीति निहित हो। इस बहस के अगुआ के रूप में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आगे आए, परिणामस्वरूप 21 अक्तूबर 1951 को जनसंघ की स्थापना हुई। एक ऐसे राजनीतिक दल की स्थापना, जिसके विचारों में राष्ट्रवाद की खुशबू और भारतीयता की सुगंध थी। दशकों से हम उसी विचार यात्रा के कई पड़ाव को पार करते हुए, अनेक संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं। 

बहरहाल, 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में जनसंघ 3 सीटों पर चुनाव जीतने में सफल रहा। श्यामाप्रसाद मुखर्जी कोलकाता से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। उनके विचारों की साफगोई, नीतियों को लेकर दूरदॢशता को देखते हुए विपक्ष के कई दलों ने मिलकर उन्हें लोकसभा में विपक्ष का नेता चुना। विपक्ष के नेता के रूप में श्यामाप्रसाद मुखर्जी लगातार देश की समस्याओं को लेकर सवाल करते रहे और बहुत कम समय में ही वह विपक्ष की मुखर आवाज बन गए। संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।

जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370, परमिट सिस्टम को वह देश की एकता और अखंडता में बड़ा बाधक मानते थे। इसके लिए संसद में उन्होंने कई बार आवाज उठाई। 26 जून 1952 को लोकसभा में ज मू-कश्मीर पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि एक लोकतांत्रिक संघीय राज्य में एक घटक इकाई के नागरिकों के मौलिक अधिकार किसी अन्य इकाई के नागरिकों से अलग कैसे हो सकते हैं, वह पूरी तरह देश की एकता और अखंडता हेतु प्रतिबद्ध थे, परमिट सिस्टम का विरोध करते हुए उन्होंने ज मू कश्मीर में बिना परमिट आने का साहस किया। 

अगस्त 1952 में ज मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि, ‘‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूॢत के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’’ 

जम्मू में प्रवेश के साथ ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया, जिसका विरोध देशभर में हुआ। गिर तारी के चालीस दिन बाद ही 23 जून 1953 को श्रीनगर के राजकीय अस्पताल में रहस्यमयी तरीके से भारत माता के महान पुत्र डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो गई। उनके बलिदान को लेकर कई सवाल खड़े हुए, किन्तु तत्कालीन नेहरू सरकार ने उन सभी सवालों को अनसुना कर दिया था। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को माता योगमाया देवी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर जांच की मांग की। इसे भी तत्कालीन सरकार ने अनसुना कर दिया। उनकी गिर तारी, उनकी नजरबंदी और उनकी मृत्यु को लेकर कई ऐसे तथ्य हैं जो आज भी अनसुलझे हैं। 

डा. मुखर्जी का कहना था-एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे। यह नारा जनसंघ और आगे चलकर भाजपा के हर कार्यकत्र्ता के लिए संकल्प-वाक्य बना। दशकों तक यह प्रश्न लोगों के जेहन में रहा कि आखिर कब श्यामाप्रसाद मुखर्जी का एक देश, एक विधान, एक प्रधान, एक निशान का स्वप्न पूर्ण साकार होगा। एक निशान, एक विधान, एक प्रधान का जो सपना डा. मुखर्जी ने देखा था, उसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्ण साकार किया है। 

देश की एकता और अखंडता के लिए डा. मुखर्जी द्वारा दिया सर्वोच्च बलिदान तब फलीभूत हुआ जब देश ने अनुच्छेद-370 को निर्मूल होते देखा। विचारधारा के प्रति निष्ठावान और अडिग एक ऐसे दल की स्थापना डा. मुखर्जी ने की थी, जो अपने विचारों तथा संकल्पों के प्रति दशकों तक एकनिष्ठ और अडिग रहा है। वे देश के लिए शहीद हो गए और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो देश की राजनीति को एक नई दिशा दे सकते थे।-जगत प्रकाश नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी

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