मतदाताओं की चुप्पी से परेशान राजनीतिज्ञ

Edited By ,Updated: 17 Apr, 2024 05:40 AM

politicians upset with voters  silence

आम चुनाव 2024 सिर पर हैं। चुनाव आयोग की तैयारियों से लगता है कि देश में चुनाव हैं वरना बड़े नेताओं की चुनिंदा रैलियों के हो-हल्ले के सिवाय कहीं भी नहीं लगता कि पहले चरण के मतदान में थोड़ा ही वक्त शेष है। आखिर मतदाता इस बार इतना खामोश क्यों है?

आम चुनाव 2024 सिर पर हैं। चुनाव आयोग की तैयारियों से लगता है कि देश में चुनाव हैं वरना बड़े नेताओं की चुनिंदा रैलियों के हो-हल्ले के सिवाय कहीं भी नहीं लगता कि पहले चरण के मतदान में थोड़ा ही वक्त शेष है। आखिर मतदाता इस बार इतना खामोश क्यों है? सवाल मौजू है लेकिन जवाब आम और खास एक-दूसरे से यूं पूछ रहे हैं जैसे उन्हें कुछ पता न हो! यही माजरा पूरे देश में है।  

21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों पर इसी शुक्रवार मतदान होगा। अरुणाचल प्रदेश में-2, बिहार में 4, असम में 4, छत्तीसगढ़ में 1, मध्य प्रदेश में 6, महाराष्ट्र में 5, मणिपुर में 2, मेघालय में 2, मिजोरम में 1, नागालैंड में 1, राजस्थान में 12, सिक्किम में 1, तमिलनाडु में 39, त्रिपुरा में 1, उत्तर प्रदेश में 8, उत्तराखंड में 5, प.बंगाल में 3, अंडमान-निकोबार में 1, जम्मू-कश्मीर में 1, लक्षद्वीप में 1 और पुडुचेरी की 1 सीट पर मतदान होगा। चुनाव में ऐसी सुस्ती शायद पहली बार दिख रही है। दिग्गज और स्टार प्रचारक भले अपनी ताकत झोंक रहे हों लेकिन धरातल की हकीकत अलग है। मतदाता चुप हैं तो कार्यकत्र्ताओं में भी वह जोश-खरोश नहीं। बैनर, पोस्टर, प्रचार वाहन और न ही बैठकों का वो दौर दिख रहा है जो अब तक दिखता रहा। सब कुछ ठंडा-ठंडा सा है। 

सियासी दल भी हैरान हैं कि मतदाता चुप क्यों है? खामोशी किसी अंडर करंट के चलते तो नहीं? क्या बेरोजगारी, महंगाई, ऐतिहासिक दल-बदल, धरना-प्रदर्शन और तमाम आंदोलनों ने मतदाताओं का मूड किरकिरा कर दिया? इसी बीच लोकनीति-सी.एस.डी.एस. का चुनाव पूर्व सर्वे भी खूब चर्चाओं में है। क्या इस चुनाव में होलसेल बनाम रिटेल में सीटें छीनने की कछुआ-खरगोश जैसी रेस भी दिखेगी? बड़े राज्यों को देखें तो प.बंगाल में ममता बनर्जी का प्रचार दिखता है। उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन न कर उल्टा हमला बोलना शुरू कर दिया। जबकि टी.एम.सी. को भाजपा से पहले ही बड़ी चुनौती है। स्थिति टक्कर की है और संघर्ष त्रिकोणात्मक तय है। महाराष्ट्र में खासा ऊहापोह है। 2019 के आम चुनाव में शिवसेना पूरे दमखम से भाजपा के साथ थी। 

आज स्थिति उलट है। शिवसेना भी बंटी और राष्ट्रवादी कांग्रेस भी टूट गई। वहीं आर.एस.एस. के गढ़ में मायावती की हुंकार बजाय उत्तर प्रदेश के विदर्भ से होने के गहरे मायने हैं। शायद ध्रुवीकरण का खेला हो? जिससे महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति की लहर की संभावनाओं को समेटने की चाल छुपी हो? बिहार की बार-बार बदलती राजनीतिक पलटमार तस्वीरें वहां के सियासी गणित को किसके पक्ष में साधेंगी यह दिलचस्प होगा। नीतीश, चिराग के साथ फिर एन.डी.ए. में होने से राजद, कांग्रेस गठबंधन पर कैसा असर पड़ेगा, वक्त पर छोडऩा होगा। राजस्थान का रण भी गुत्थम गुत्था है। यहां आम चुनाव जातिगत समीकरणों में उलझ गया है। गुर्जर और राजपूत समाज के आमने-सामने आ जाने से राजनीतिक स्थिति अत्यंत संघर्षपूर्ण हो गई है। कई जगह एन.डी.ए प्रत्याशियों की मुखालफत दिखने लगी है। इसका असर गुजरात में भी समझ आने लगा। वहां पहले चरण का चुनाव 7 मई को है। 

खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी यह फैक्टर तूल पकड़ रहा है। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित, ओ.बी.सी. और मुस्लिम निर्णायक रहे हैं। ऐसे में एन.डी.ए कैसे डैमेज कंट्रोल करेगी, देखने लायक होगा। कई प्रत्याशियों की सांसें अटकी हुई हैं तो कई सीटों पर बतौर निर्दलीय उतरे हैवीवेट या बागी सत्ताधारी दल को चुनौती दे रहे हैं। वहीं महागठबंधन जनाधार बढ़ाने में जुटा है। पूर्वोत्तर में 8 राज्य हैं। अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा जो सैवन सिस्टर्स कहलाते हैं। वहीं 8वां राज्य सिक्किम इनका भाई कहलाता है। असम में परिसीमन से सभी दलों का समीकरण गड़बड़ाया है। लोकसभा सीटें जस की तस हैं। लेकिन परिसीमन से बदले जातिगत समीकरण सबके लिए मुश्किलों वाले हैं। हिंसा प्रभावित मणिपुर में चुनावी उत्साह कम और तनाव ज्यादा है जो पिछले साल 3 मई से ही है। मैतेई-कुकी के बीच हिंसक झड़पें और महिलाओं से बदसलूकी की घटनाएं बेहद शर्मनाक और सुर्खियों में रहीं। 

चुनाव करीब हैं लेकिन सन्नाटा और झड़पें जारी हैं। कभी पूर्वोत्तर कांग्रेस-लैफ्ट गठबंधन का मजबूत किला था जो 2016 के बाद कमजोर होता गया और 2019 तक पूरी तस्वीर बदल गई। अभी पूर्वोत्तर के 8 में से 7 राज्यों में भाजपा और उसकी सहयोगी सरकारें हैं। लेकिन क्षेत्रीय दल भी कमजोर नहीं हैं। त्रिपुरा में 72 साल के चुनावी इतिहास में पहली बार कांग्रेस-वाम दल में हुए गठबंधन ने भाजपा को चुनौती दी है। नतीजे दिलचस्प होंगे। लक्षद्वीप की इकलौती सीट में भाजपा या कांग्रेस कमाल करेगी, या फिर एन.सी.पी. बाजी मारेगी? 2019 में यहां भाजपा को महज 125 वोट मिले थे। अंडेमान-निकोबार की इकलौती सीट पर भी भाजपा-कांग्रेस में सीधी टक्कर है। पुडुचेरी में 26 उम्मीदवार हैं। 

लेकिन टक्कर कांग्रेस के मौजूदा सांसद और भाजपा की राज्य सरकार के गृहमंत्री के बीच है। तमिलनाडु में मुकाबला त्रिकोणीय तय है जो ए.आई.जी.एम.के., एन.डी.ए और इंडिया गठबंधन के बीच होगा। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन विपक्ष की मजबूती का दावा कर रहे हैं तो एन.डी.ए को प्रधानमंत्री पर भरोसा है। लेकिन दल-बदल का असर यहां भी दिखेगा। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर में एन.डी.ए और महागठबंधन के बीच रोचक मुकाबला होगा। नतीजे कुछ भी हों मतदाताओं की खामोशी के बीच कुदरत जरूर मेहरबान है। मौसम में वह तपिश नहीं जो होनी चाहिए उल्टा बारिश की फुहार बीच-बीच में ठंडक का अहसास कराती है। हां, पहले चरण की बोहनी में मतदाता की चुप्पी से सियासी पारा जरूर गर्म है। यदि बाकी 6 चरण भी यूं ही रहे तो क्या किसी राजनीतिक सुनामी के संकेत कहलाएंगे? फिलहाल यह खामोशी यदि ट्रेलर है तो बाकी 6 चरणों की फिल्म अभी बाकी है। कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि गारंटियों के बीच फंसा ‘खामोश चुनाव’ कितने आर-पार का होगा या कितनों को आर-पार करेगा? सबको 4 जून का इंतजार है।-ऋतुपर्ण दवे
 

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