जिन्ना के बहाने धार्मिक भावनाओं के सवाल

Edited By ,Updated: 16 Apr, 2021 05:11 AM

questions of religious sentiments under the pretext of jinnah

बंगाल के विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जिस तरह हिंदू-मुसलमान में बंटवारा किया जा रहा है, मुसलमानों को पराया बनाने की कोशिश की जा रही है, क्या वह देश हित में है? क्या भारत में अल्पसंख्यक तबके को पूरी तरह से हाशिए पर डाल देने

बंगाल के विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जिस तरह हिंदू-मुसलमान में बंटवारा किया जा रहा है, मुसलमानों को पराया बनाने की कोशिश की जा रही है, क्या वह देश हित में है? क्या भारत में अल्पसंख्यक तबके को पूरी तरह से हाशिए पर डाल देने की कोशिश सही है? और जो लोग अखंड भारत का सपना लेकर सत्ता पर काबिज हैं, और जो विभाजन के दंश से पीड़ित देश को उबारने का दावा करते हैं, क्या वे उस खतरे को समझ रहे हैं जिसकी कीमत एक बार मुल्क विभाजन के रूप में दे चुका है? पिछले दिनों भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना की आत्मकथा पढ़ते हुए यह सवाल दिमाग में घूमे! और ऐसा लगा कि आजादी के 74 साल बाद देश एक बार फिर गलती करने जा रहा है। 

आज जब हम चारों तरफ देखते हैं तो लगता है कि हमारे बुनियादी मुद्दे कहीं गुम हो गए हैं। रोटी, रोजगार और छत के सवाल पीछे छूट गए हैं, ङ्क्षहदू-मुसलमान के दावे ज्यादा अहम हो गए हैं। सत्ता पक्ष ने बड़ी होशियारी से दोनों के बीच एक बड़ी खाई खोद दी है। एक बार फिर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि हिंदू मुसलमान दोनों एक साथ नहीं रह सकते। यही गलती आजादी की लड़ाई के दौरान की गई थी, नतीजतन पाकिस्तान बना। तब यह गलती मुसलमानों के एक बड़े हिस्से ने की थी, आज यह गलती हिंदुओं का एक बड़ा तबका कर रहा है। अंग्रेजों के आने के बाद भी लंबे समय तक हिंदू और मुसलमान सह-अस्तित्व की भावना से रहते थे। 1857 की लड़ाई में हिंदू मुस्लिम एकता की तस्दीक तो खुद हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने की थी। 1857 पर उनकी किताब इसकी गवाह है। 

बाद में अंग्रेजों को लगा कि अगर ये साथ रहे तो भारत पर शासन करना असंभव होगा, लिहाजा बांटो और राज करो की नीति अपनाई। जिन्ना पर लिखी पाकिस्तानी लेखक इश्तियाक अहमद की किताब के पन्ने इस बात के प्रमाण हैं कि कायदे आजम जिन्ना का इस्तेमाल अंग्रेजों ने आजादी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए किया। जिन्ना को अपनी राजनीति के लिए यह बहुत मुफीद भी लगा। 

इश्तियाक अहमद लिखते हैं कि जिन्ना के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से गहरे रिश्ते थे। चर्चिल भारत और भारतीयों को अच्छी नजर से नहीं देखते थे। वह कांग्रेस और गांधी से नफरत करते थे। चॢचल की तरह ही अंग्रेज वायसराय लिनलिथगो और वावेल भी जिन्ना को पसंद करते थे। कांग्रेस ने नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन में जब पूर्ण स्वराज का नारा दिया तो अचानक जिन्ना अंग्रेजों के लिए उपयोगी हो गए। इसके पहले तक जिन्ना पर अंग्रेजों की कोई खास कृपा दृष्टि नहीं थी। 

याद रखने वाली बात है कि 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में जिन्ना ने पहली बार मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की बात की थी। उन्होंने खुलेआम कहा था कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं, कांग्रेस हिंदू पार्टी है, और गांधी एक हिंदू नेता। उन्होंने द्वि-राष्ट्र की वकालत शुरू की। वह कहने लगे कि हिंदू मुसलमान साथ नहीं रह सकते। ये दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। दोनों को एक साथ एक सत्ता के अंदर रखने, जहां एक संख्या में अल्पसंख्यक हो और दूसरा बहुसंख्यक, से असंतोष बढ़ेगा और सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होगा।’’ 

ये वही जिन्ना थे जिन्होंने 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की आलोचना की थी। और 1909 में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व देने का विरोध किया था। जिन्ना को हिंदू मुस्लिम एकता की मूर्ति कहा जाता था । 1920 तक कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेताओं में गिना जाता था। यह वही जिन्ना थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी के स्वागत समारोह की अगुवाई की थी, उनकी शान में कसीदे पढ़े थे। अल्लामा इकबाल न केवल बड़े शायर थे बल्कि बड़े दार्शनिक भी थे। उन्हें जिन्ना का गुरु भी कहना गलत नहीं होगा। इकबाल ने जिन्ना को तेरह खत लिखे थे, ये कहने के लिए कि उन्हें अपना राजनीतिक अज्ञातवास खत्म कर मुस्लिमों की अगुवाई करनी चाहिए। जिन्ना ने इकबाल को निराश नहीं किया। उनके विचारों को राजनीतिक लिबास पहनाया और फिर पाकिस्तान बनाने की राह पर चल पड़े। 

जिन्ना इतिहास की वह पहेली है जिसका कोई सीधा जवाब नहीं मिलता। धर्म को न मानने वाला, मुसलमानों के लिए हराम सुअर का गोश्त खाने वाला, शराब पीने वाला एक शख्स कैसे राजनीति का इस्तेमाल कर मुस्लिम समुदाय की कमजोरियों का फायदा उठा कायदे आजम बन जाता है। जिन्ना के अनुसार मुस्लिम एक राष्ट्र है क्योंकि उसमें हिंदुओं से ज्यादा एकता है। उनकी नजर में ङ्क्षहदू जातियों में बंटा है और उसमें समानता नहीं है। जिन्ना खुद मुस्लिमों में अल्पसंख्यक शिया इस्लामी तबके से आते थे। उन्होंने पाकिस्तान तो बनवा लिया पर उसी पाकिस्तान में सुन्नी बहुसंख्यक कट्टरपंथियों ने यह साबित कर दिया कि धर्म किसी ‘स्थाई’ राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। शिया और अहमदिया फिरकोंं पर जो जुल्म हुए वह जिन्ना ने कभी सोचा भी नहीं होगा। 

भारत में आज वही गलती दोहराई जा रही है। धार्मिक भावनाओं को उभारा जा रहा है। जैसे जिन्ना ने हिंदुओं के खिलाफ नफरत भरी, वैसे ही अब भारत में मुस्लिमों को टार्गेट किया जा रहा है। धार्मिक भावनाओं को भड़का कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, सरकार बनाई जा सकती है, पर क्या इस आधार पर बने मुल्क में शांति रह पाएगी? क्या गारंटी है कि भारत पाकिस्तान की राह पर नहीं जाएगा?-आशुतोष
 

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