Edited By ,Updated: 04 Mar, 2020 03:21 AM
दिल्ली को एक बार फिर से जलने के लिए छोड़ दिया गया। दिल्ली पुलिस पर आरोप है कि उसने 4 दिनों में 13,200 कॉल नहीं उठाई थीं लेकिन इसने कथित तौर पर मुसलमानों और उनके घरों और व्यवसायों में पथराव करने वालों की मदद की। इस बीच राहुल गांधी, जिन्हें 1984 के...
दिल्ली को एक बार फिर से जलने के लिए छोड़ दिया गया। दिल्ली पुलिस पर आरोप है कि उसने 4 दिनों में 13,200 कॉल नहीं उठाई थीं लेकिन इसने कथित तौर पर मुसलमानों और उनके घरों और व्यवसायों में पथराव करने वालों की मदद की। इस बीच राहुल गांधी, जिन्हें 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदारी संबंधी सवालों के जवाब देने से छूट दे दी गई थी क्योंकि वह उस समय बहुत छोटे थे, इस साल 50 साल के हो जाएंगे। वह सैंट्रल दिल्ली में रहते हैं, जोकि शाहीन बाग में हुए शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन या पूर्वोत्तर दिल्ली में हाल के नरसंहार से दूर नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान वह वहां नहीं देखे गए। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वह अब कांग्रेस अध्यक्ष नहीं हैं? क्या ऐसा करके वह यह संकेत देना चाहते हैं कि अगर उन्हें अध्यक्ष नियुक्त किया गया होता तो उन्होंने शायद उन घटनाओं पर उंगली उठाई होती या इंडिया गेट में कैंडललाइट विरोध में शामिल हुए होते।
क्यों निष्क्रिय रहे राहुल
दो साल से भी कम समय पहले सिंगापुर में आई.आई.एम. अलुम्ना से बात करते हुए राहुल गांधी ने कहा था, ‘‘राजनीति में जब आप गलत ताकतों के साथ मिल जाते हैं और अगर आप किसी चीज के लिए खड़े होते हैं तो आप मर जाएंगे।’’ क्या इसीलिए उन्होंने पिछले हफ्ते पूर्वोत्तर दिल्ली की हत्या से भरी सड़कों पर कदम नहीं रखा? क्या वह एस.पी.जी. सुरक्षा के बिना अपने जीवन के लिए डरते थे? लेकिन उनके पास अभी भी जैड प्लस सुरक्षा है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के छात्रों के समक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की थी, ‘‘मैं इस ग्रह पर किसी के साथ किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हूं।’’
फिर दिल्ली के बारे में उनका क्या ख्याल है? क्या यह अभी भी इस ग्रह का एक हिस्सा है? जामिया? जे.एन.यू.। गार्गी कालेज? अथवा वह यह सोचते हैं कि कुछ भी नहीं करने के बावजूद वह अभी भी फोटो-अवसरवादी अरविंद केजरीवाल और अब तक लापता अमित शाह से बेहतर हैं जो देश की राजधानी में कानून और व्यवस्था की स्थिति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। आखिर गेम प्लान क्या है? क्या गेम प्लान यह है कि अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी और जब हर कोई मोदी-शाह से ऊब जाएगा तो फिर कांग्रेस अपने आप निर्वाचित हो जाएगी।
लेकिन हमेशा अन्य विकल्प होते हैं। राहुल भी जानते हैं कि राजनीति में कोई निश्चितता नहीं होती जैसे कि वह पिछली बार वायनाड से चुनाव लड़े थे। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राहुल से दो साल छोटे हैं। वह जिनके लिए चुनाव प्रचार करते हैं उनके चुने जाने की संभावनाएं खत्म कर देते हैं। यहां तक कि युवा राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर भी हैं, जो अधिक से अधिक प्रमाणिकता के साथ संतुलन की चाल के साथ बेहतर चुनाव प्रबंधन करते हैं। सचिन पायलट (केवल 42) की तरह ही कुछ और भी हैं जिन्हें यदि सत्ता का स्वाद नहीं मिला तो वे कांग्रेस को छोड़ सकते हैं। इसके अलावा तथा अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को हिन्दी प्रभुत्व वाले हिन्दू राष्ट्र में विघटित होने से रोकने वाली राजनीतिक गोंद कहां है?
पूर्वोत्तर या दक्षिण के राज्यों के लिए इसमें क्या है? क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम पर काम करने से भारत की वास्तविकता एक संप्रभु, राजनीतिक इकाई के रूप में समाप्त हो जाएगी। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा के पटल पर कहा कि मोदी सरकार 1950 के लियाकत-नेहरू समझौते में हुई गलतियों को सुधारेगी। यह समझौता भारत और पाकिस्तान दोनों के नव-निर्मित धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए था। दोनों पी.एम. ने अपने देशों में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा सुनिश्चित करने का वायदा किया था। क्या भारत को उसकी आजादी दिलाने वाली पार्टी इन हालात से अपना पल्ला झाड़ लेगी।
इस बात के कई कारण हैं कि अधिकतर पंडित अलबाट्रॉस यानी राहुल गांधी के विषय में ज्यादा रुचि नहीं रखते हैं। एक लेखक ने एक बार मुझसे कहा था कि प्रकाशन में आपको केवल एक मौका मिलता है और इसलिए किसी को अपनी सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि को आगे रखना चाहिए। लेकिन वास्तविक दुनिया में राहुल गांधी जैसे लोगों को कई मौके मिलते हैं-एक के बाद एक चुनाव अभियान आयोजित करने के, असफल होने के और फिर दूसरे, तीसरे और कई अन्य अवसर मिलते हैं। जिस देश में राजनेताओं के बीच ईमानदारी बेहद कम देखने को मिलती है, राहुल गांधी में यह प्रतीत होती है, खासकर 2019 के लोकसभा चुनाव प्रचार के आखिरी कुछ हफ्तों में जब वह आखिरकार चुनावी रैलियों और साक्षात्कारों में अपनी फॉर्म में आए थे। इसके बावजूद कांग्रेस की ‘न्याय’ जैसे सुविचारित योजनाओं से मतदाता अनभिज्ञ रहे जिनसे उन पर असर पडऩा था। इसके परिणामस्वरूप चुनावों में कांग्रेस की हार और भाजपा की चुनावी रणनीति की जीत हमने देखी है।
ठोस फैसले की घड़ी
मई 2024 के लिए अब केवल 48 माह बचे हैं। क्या ‘अलबाट्रॉस’ किसी एक तरफ जाने का निर्णय लेगा। यदि वह वास्तव में कांग्रेस का नेतृत्व अथवा यू.पी.ए.-3 का नेतृत्व करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की एंट्री के खिलाफ नहीं हैं तो उन्हें शायद वायनाड जाकर दूसरे व्यक्ति के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए। यदि सोनिया गांधी, जिन्होंने नरेगा और सूचना का अधिकार जैसे कानून लाने में मदद की थी, वास्तव में एक उच्च विरासत छोड़ कर जाना चाहती हैं तो उन्हें पारम्परिक भारतीय मां बनने से बचना होगा जिसे अपने पुत्र में दोष नजर नहीं आता। राहुल गांधी को अब यह निर्णय लेना होगा कि उन्हें या तो मैदान छोड़ कर जाना होगा या पूरे हौसले और विश्वास के साथ नेतृत्व का फैसला लेना होगा। अब उनके पास बर्बाद करने हेतु और समय नहीं है। दिल्ली में हाल में हुई हिंसा और उससे पहले दिए गए घृणा भाषण ये दर्शाते हैं कि भाजपा भारतीय समाज का ध्रुवीकरण करना चाहती है ताकि उससे चुनावी लाभ लिया जा सके। ऐसे समय में कांग्रेस और उसके सहयोगियों को पूरे देश के लिए एक ठोस योजना के साथ एकजुट होना होगा अथवा वे सब अलविदा कह सकते हैं।-नीति नायर