सही या गलत निर्णय जीवन पर असर डालते हैं

Edited By ,Updated: 06 Apr, 2024 05:23 AM

right or wrong decisions affect life

कहते हैं कि वर्तमान युग आधुनिक है, विज्ञान और टैक्नोलॉजी पर आधारित है। इसमें पारंपरिक कुरीतियां, अंध विश्वास, टोने-टोटके, गंडे ताबीज जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है। कोई मजबूरी भी नहीं है।

कहते हैं कि वर्तमान युग आधुनिक है, विज्ञान और टैक्नोलॉजी पर आधारित है। इसमें पारंपरिक कुरीतियां, अंध विश्वास, टोने-टोटके, गंडे ताबीज जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है। कोई मजबूरी भी नहीं है। परंतु क्या वास्तव में हमारी सोच बदली है, यह प्रश्न परेशान करता है और प्रासंगिक हो जाता है जब कोई कहे कि आखिर इतने समय से यह सब चल ही रहा है तो इन्हें न मानकर क्यों किसी तरह का जोखिम उठाया जाए। नहीं माना और कुछ हो गया तो नुकसान हमें ही तो उठाना पड़ेगा ! 

कैसी हैं बेबुनियाद आशंकाएं : कहते हैं कि कंस अनैतिक तरीके से राजा बना था। उसके मन में अपराध बोध तो रहता ही होगा। दरबार में ज्योतिषी भी होंगे, एक दिन अपना हाथ या कुंडली दिखा दी होगी और राजा को खुश करने के लिए उन्होंने कह दिया होगा कि महाराज कोई खतरा नहीं, आप राजा बने रहेंगे। इतने से बात बनती नहीं दिखी कि ढेर सारे उपहार मिल सकते हों, इसलिए जोड़ दिया कि वैसे तो कोई दुविधा नहीं, पर हो सकता है कि आपकी बहन देवकी की संतान और वह भी 8वीं आपके जीवन के लिए संकट का कारण बन जाए। अब कंस तो राजा था उसने तय कर लिया कि वह अपनी बहन की किसी भी संतान को जीवित नहीं छोड़ेगा और इस तरह इतना भयभीत हो गया कि नृशंस हत्यारा बन गया। उसके बाद की कथा तो सब जानते ही हैं कि किस प्रकार श्री कृष्ण ने उसका वध किया। यही नहीं बाद में अनेक प्रसंग हैं, चाहे महाभारत की घटनाएं हों या द्वारिकाधीश बनने के बाद हुई हों, सब का निष्कर्ष यही है कि शुभ या अशुभ कुछ नहीं होता, यह हमारे सही या गलत निर्णय हैं जो जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। 

ईश्वर का अस्तित्व : जो आस्तिक हैं, उनके लिए ईश्वर और जो नास्तिक हैं, उनके लिए प्रकृति; जो कल था, वह आज है और आगे भी रहेगा, उसमें कुछ बदलने वाला नहीं। इसी तरह सच हो या झूठ, वह समय के अनुसार नहीं बदलता, हमेशा वही रहता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे सूर्य, चंद्रमा, मंगल और अन्य ग्रह जिनमें हमारी पृथ्वी भी है। सृष्टि की कोई रचना अज्ञान के कारण नहीं हुई है। मानव दानव, पशु पक्षी, पेड़ पौधे, पर्वत, नदियां, समुद्र और आकाश, इन सब का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि इनसे जीवन जीने योग्य बनता है। आपने रेगिस्तान, आकाश में बादलों और पर्वतों पर बर्फ  गिरने से अनेक आकृतियां बनती देखी होंगी जिन्हें देखकर डर लग सकता है और खुशी भी हो सकती है। 

वास्तविकता यह है कि यह हमारा मन या सोच है जो अपनी प्रतिक्रिया देता है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सोचिए कि सूर्य या चन्द्र ग्रहण पर दान पुण्य करने, खानपान को गलत मानने की प्रथा है। एक सामान्य खगोल क्रिया को लेकर मिथ्या धारणा पैदा करना कुछ लोगों का व्यापार बन गया। सच्चाई यह है कि भविष्य का ज्ञान न होने से किसी पाखंडी की बात सच लगती है और विज्ञान सम्मत बात झूठ और हम सर्वनाश तक आमंत्रित कर लेते हैं। यहीं से जन्म होता है धर्म के नाम पर अंध विश्वास को आधार बनाकर कालाबाजारी करने वालों का जो ईश्वर तक पहुंचने के लिए आपसे रिश्वत की तरह आपका मान सम्मान, धन और यहां तक कि यौवन भी दलाली के रूप में मांग लेते हैं। वे आपका सब कुछ हथियाने की फिराक में रहते हैं और एक तरह का प्रपंच रचते हैं, सम्मोहित करने की विद्या का इस्तेमाल करते हैं और अपने आसपास ऐसे मुस्टंडे पहलवान और गुंडे रखते हैं कि उनके आगे समर्पण करना ही एकमात्र उपाय बचता है। 

भूत-प्रेत पिशाच की काल्पनिक घटनाओं को वास्तविक रूप देने के लिए और अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए स्त्रियों को चुड़ैल कहना और दिमागी तौर से बीमार व्यक्तियों को चिकित्सा के बजाय झाड़ फूंक और तंत्र मंत्र से ठीक करने के दावे यही बताते हैं कि चाहे जो हो जाए हम सुधरने वाले नहीं। हमारी सोच पर जो पहरा लगा है वह हटाने के लिए न तो तैयार हैं और यदि कोई आइना दिखाए तो वह हमारा दुश्मन है। अंध विश्वास हों या पारंपरिक सोच यह सब पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले ऐसे रोग हैं जिनका हमारे अहंकार, भयभीत रहने और बुरा होने की आशंका से ग्रस्त रहने के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं है। 

अफसोस तब होता है जब शिक्षित युवा इन बातों की अहमियत अपने जीवन में स्वीकार कर लेते हैं। निष्कर्ष यही है कि अंध विश्वास और कुछ नहीं बस एक तर्कहीन क्रिया है जिसे हम अपनी सोच पर हावी होने देते हैं और अक्सर अपने दिमाग को वह सब करने देते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसमें शिक्षित होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। महिलाओं पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता है क्योंकि वे बहुत भावुक होती हैं और अपने परिवार को किसी भी हालत में सुरक्षित देखना चाहती हैं। आमतौर से न चाहते हुए भी पुरुष उनकी बातों से सहमत हो जाते हैं और वे सब करते हैं जो उन्हें खुश रख सके। इसी का फायदा ढोंगी, पाखंडी और मक्कार लोग उठाते हैं। यह दुष्चक्र केवल तब रुक सकता है जब ईश्वर के नाम पर डराने वालों पर कठोर कार्रवाई हो, चाहे इसके लिए स्वयं को नास्तिक ही क्यों न कहलाना पड़े।-पूरन चंद सरीन
 

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