Edited By ,Updated: 17 May, 2024 05:20 AM
बेशक 18वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव केंद्रीय सत्ता का फैसला करेंगे लेकिन कुछ नेताओं का इनमें सब कुछ दांव पर लगा है। हार के बावजूद उनका वजूद तो बचा रह सकता है लेकिन चुनावी राजनीति में प्रासंगिकता शायद ही बचे। उत्तर प्रदेश में मायावती ने देश के सबसे...
बेशक 18वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव केंद्रीय सत्ता का फैसला करेंगे लेकिन कुछ नेताओं का इनमें सब कुछ दांव पर लगा है। हार के बावजूद उनका वजूद तो बचा रह सकता है लेकिन चुनावी राजनीति में प्रासंगिकता शायद ही बचे। उत्तर प्रदेश में मायावती ने देश के सबसे बड़े राज्य की चार बार मुख्यमंत्री बनने का करिश्मा कर दिखाया। मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में असर के चलते केंद्रीय सत्ता की चाबी भी कभी बसपा के हाथ नजर आती थी। बसपा को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला और मायावती प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगीं।
2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन में 19.3 प्रतिशत वोट की बदौलत 10 सीटें जीतने में सफल बसपा अकेले लडऩे पर 2022 के विधानसभा चुनाव में 12.88 प्रतिशत वोट और मात्र 1 सीट पर सिमट गई। जो 10 सांसद जीते थे, उनमें से भी ज्यादातर इस चुनाव से पहले हाथी का साथ छोड़ गए। लोकसभा चुनाव भी बसपा अकेले लड़ रही है। अखिलेश का दावा रहा कि ‘इंडिया’ मायावती को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था। तब फिर क्यों, ‘बहन जी’ के संबोधन से लोकप्रिय मायावती ने ‘एकला चलो’ का फैसला किया?
पिछले लोकसभा चुनाव में अगर सपा-बसपा-रालोद गठबंधन 15 सीटें जीतने में सफल हो गया था, तो बदलते राजनीतिक परिदृश्य में इस बार कांग्रेस के भी साथ होने पर ‘इंडिया’ उस उत्तर प्रदेश में बड़ी छलांग लगा सकता था, जो भाजपा का सबसे बड़ा शक्ति स्रोत है। इसीलिए बसपा पर भाजपा की ‘बी-टीम’ होने का आरोप है। अपने आक्रामक भतीजे आकाश आनंद को बीच चुनाव उत्तराधिकारी के साथ ही नैशनल कोआर्डिनेटर पद से हटाने को भी मायावती की अबूझ राजनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है। बसपा की चार दशक की राजनीतिक कमाई क्यों दांव पर लगाई, यह तो मायावती बेहतर जानती होंगी लेकिन सिमटता जनाधार उन्हें चुनावी राजनीति में अप्रासंगिक बना रहा है।
राष्ट्रीय लोकदल का भी सब कुछ इस चुनाव में दांव पर है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मतभेदों के चलते कांग्रेस से अलग भारतीय क्रांति दल बनाने वाले चौधरी चरण सिंह बाद में प्रधानमंत्री भी बने। हार-जीत होती रही, दल का नाम भी बदलता रहा, पर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा से भी आगे पंजाब, मध्य प्रदेश और ओडिशा तक फैले उनके जनाधार और क्षत्रपों पर सवालिया निशान नहीं लगा। उनके निधन के बाद, खासकर मंडल-कमंडल के राजनीतिक ध्रुवीकरण के चलते वह जनाधार उनके बेटे अजित सिंह के जीवनकाल में ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक सिमट गया। अजित के बेटे जयंत चौधरी में चरण सिंह की छवि देखने वालों को उम्मीदें बहुत थीं, पर उन्होंने जिस तरह विपक्ष से पलटी मार कर मात्र दो लोकसभा सीटों के लिए सत्तापक्ष का दामन थाम लिया, उसके नतीजे किसान राजनीति के सबसे बड़े चौधरी की विरासत का भविष्य भी तय कर देंगे।
ऐसी ही चुनौती बिहार में चिराग पासवान के समक्ष है। रामविलास पासवान, लालू यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाली लोकदली-समाजवादी राजनीतिक धारा से निकले। नीतीश की राजनीति लंबी नहीं बची। लालू के वारिस के रूप में तेजस्वी ने खुद को स्थापित कर लिया है लेकिन मायावती के अलावा उत्तर भारत में दूसरे बड़े दलित चेहरे के रूप में उभरे पासवान की विरासत पर संकट है। पहले लोक जनशक्ति पार्टी भाई और भतीजे के बीच बंट गई तो अब चुनावी परीक्षा है।
चुनाव केंद्र की सत्ता के लिए हैं, पर महाराष्ट्र की राजनीति पर भी परिणामों का गहरा असर होगा। शिवसेना तोड़ कर भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री भी बन गए एकनाथ शिंदे की असली परीक्षा इन चुनावों में है। बेशक सांसदों-विधायकों का बहुमत उनके साथ गया, चुनाव आयोग ने उनके गुट को शिवसेना भी मान लिया, पर जन समर्थन का पता चुनावों में चल जाएगा। यही हाल अजित पवार का है। पांच सालों में अपने चाचा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 2 बार तोड़ कर भाजपा की मदद से उप मुख्यमंत्री बनने वाले अजित महाराष्ट्र की राजनीति के ‘दादा’ बन पाए हैं या नहीं, फैसला चुनावों में हो जाएगा।
अगर वे चुनावी परीक्षा में फेल हो गए, तो भाजपा उनका बोझ नहीं ढोएगी क्योंकि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी इसी साल अक्तूबर में हैं। अक्तूबर में ही हरियाणा में भी विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां पिछली बार भाजपा बहुमत से चूक गई और सत्ता की चाबी नई बनी जननायक जनता पार्टी के हाथ चली गई। उस चाबी के सहारे 10 विधायकों के नेता दुष्यंत चौटाला उप मुख्यमंत्री बन गए लेकिन इसी साल मार्च में अचानक हुए मुख्यमंत्री- परिवर्तन के क्रम में वह गठबंधन भी टूट गया। दोस्तों में दूरियां इतनी बढ़ीं कि बात भाजपा सरकार गिराने के लिए कांग्रेस से भी हाथ मिलाने तक पहुंच गई है, जबकि खुद अपनी पार्टी बिखराव के कगार पर है। सत्ता की इस चाबी का भविष्य भी इन चुनावों में तय हो जाएगा।-राज कुमार सिंह