मुस्लिम बादशाहों ने हिंदुस्तान को खुशहाल बनाने के लिए हरसंभव कोशिश की

Edited By ,Updated: 29 May, 2023 06:20 AM

the muslim emperors did everything possible to make india prosperous

यूरोपीय लोगों के प्रति भारतीय नेताओं के ख्यालात और मध्यकालीन मुस्लिम बादशाहों के प्रति पाकिस्तानियों और मुसलमानों के एक वर्ग के जज्बात और फखरिया अंदाज बहुत चिंताजनक हैं।

यूरोपीय लोगों के प्रति भारतीय नेताओं के ख्यालात और मध्यकालीन मुस्लिम बादशाहों के प्रति पाकिस्तानियों और मुसलमानों के एक वर्ग के जज्बात और फखरिया अंदाज बहुत चिंताजनक हैं। जब कोई मुसलमान गर्व से कहता है कि हमने भारत पर 1000 वर्ष हुकूमत की है, तो भारत के हिंदू सोचते हैं कि मुसलमान अपने को भारतीय नहीं समझता और इस वजह से हिंदुओं के लिए मुसलमानों को बाहरी कहना आसान हो जाता है। एक हिन्दू के दिलो-दिमाग में यही बात आती है कि इतने सालों तक उन्हें दबा कर रखा गया। हालांकि जिन मुसलमानों ने भारत पर हुकूमत की, उनकी हुकूमत  आम मुसलमानों की नहीं, बल्कि सिर्फ हुक्मरानों की थी। उनसे आम मुसलमानों का कुछ भी लेना-देना नहीं था। 

मुस्लिम बादशाहों ने हिंदुस्तान को अपना लिया था। शुरूआती दौर के अलावा, सभी बादशाहों ने हिंदुस्तान की मिट्टी को अपनी मिट्टी समझा। अब आज के दौर में धार्मिक मुसलमानों का इन मुस्लिम बादशाहों के प्रति यह गर्व, ये शब्द हिंदुओं को विचलित करते हैं। यदि आप पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों का अध्ययन करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि सभी मुस्लिम बादशाह बहादुर थे और हिंदुओं ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया, जो सच नहीं है। पाकिस्तान की किताबें केवल हिंदुओं और हिंदुस्तान के खिलाफ नफरत पैदा करती हैं। पाकिस्तान में शासक वर्ग को लगता है कि मध्यकालीन मुस्लिम बादशाह उनके अपने थे और उन्होंने हिंदुओं का दमन किया। इसलिए उन्होंने अपनी मिसाइलों का नाम गजनी, गौरी, गजनवी रखा है। यह मानसिकता दक्षिणपंथी हिंदू राजनीति को बढ़ावा देती है और भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए जिंदगी कठिन बना देती है। 

भारत में स्कूली किताबों के अनुसार, 1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब के खिलाफ अंग्रेजों की जीत के बाद भारत को गुलाम माना जाता है, लेकिन अब भारत में इतिहास बदलने की बात हो रही है और कहा जाता है कि हिंदुस्तान में मुस्लिम शासक आक्रमणकारी थे और उन्होंने हिदुस्तान को गुलाम बनाया। सांप्रदायिक इतिहास लेखन 19वीं सदी में शुरू हुआ। यह काम केवल अंग्रेजों ने ही नहीं, हिन्दुओं और मुसलमानों ने भी किया। भारतीय इतिहास को धर्म के आधार पर बांटना कोई नई बात नहीं। स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े लोग कहते रहे कि भारत ब्रिटिश शासन का गुलाम था, जबकि दूसरी ओर हिंदूवादियों का कहना था कि भारत 13वीं शताब्दी या उससे भी पहले विदेशी बादशाहों का गुलाम बन गया था। 

मुस्लिम इतिहासकार मध्यकालीन को मुस्लिम हुकूमत के युग के रूप में याद करते हैं। यहां तक कि मुस्लिम लीग के लोग भी कहते हैं कि उन्होंने पूरे भारत पर हुकूमत की। इतिहास की ऐसी व्याख्या दोनों पक्षों में मौजूद है और सच्चे राष्ट्रवादी इस व्याख्या को खारिज करते हैं। कई मध्यकालीन बादशाह विदेशों से आए थे लेकिन उन्होंने खुद को भारतीय रंगों में ढाल लिया था। स्वतंत्रतावादियों का कहना है कि ब्रिटिश शासन पिछले मुस्लिम बादशाहों से बिल्कुल अलग था क्योंकि अंग्रेज हिंदुस्तान की संपत्ति को विदेशों में ले जा रहे थे, लेकिन मुस्लिम बादशाहों ने हिंदुस्तान की संपत्ति को हिंदुस्तान में ही रखा। 

मध्यकाल में भी मुगल काल अर्थात 1526 से औरंगजेब की मृत्यु (1707) तक का काल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। औरंगजेब ने लगभग पूरे हिंदुस्तान पर हुकूमत की। औरंगजेब के बाद मुगल बादशाहत का पतन हो गया। 1857 में मुगल वंश के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने बर्मा में जिला वतन कर दिया था। बहादुर शाह जफर के बाद पूरा हिंदुस्तान ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया और इसे आधुनिक युग कहा जाता है। अनेक इतिहासकारों का मत है कि अत्याचारों से भरे ब्रिटिश शासन को आधुनिक काल कहना बेतुका है। ब्रिटिश लेखक जेम्स मिल ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में सर्वप्रथम भारतीय इतिहास को साम्प्रदायिक बनाने का प्रयास किया और यह इतिहास देश को बांटने वालों के लिए अनुकूल रहा। जेम्स मिल ने प्राचीन भारत को हिन्दू शासन, मध्यकालीन को मुस्लिम हुकूमत और उसके अत्याचारी शासन को आधुनिक हिंदुस्तान कहा है। 

कई लोग मध्यकालीन मुस्लिम बादशाहों को आक्रमणकारी कहते हैं। लेकिन यह जान लेना चाहिए कि उस दौर में सत्ता के लिए दूसरे राज्य पर आक्रमण करना कोई नई बात नहीं थी।
जब मुस्लिम बादशाहों  पर अत्याचार का आरोप लगाया जाता है, तो सबसे पहले जजिया सामने आता है, जो अकबर द्वारा खत्म कर दिया गया था और 1679 में औरंगजेब द्वारा फिर से लगाया गया था। यह गैर-मुसलमानों पर लगाया जाने वाला टैक्स था। औरंगजेब के इस कदम को उसकी धार्मिक कट्टरता का प्रमाण माना जाता है। औरंगजेब का यह निर्णय राजपूतों और मराठों को भी अचंभित करने वाला था। कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि औरंगजेब ने जजिया इसलिए लगाया क्योंकि उस समय मुगल हुकूमत के खिलाफ हिन्दुओं की तरफ से विरोध हो रहा था, इसलिए यह एक राजनीतिक कदम था। 

जजिया फिर से लगाने के पीछे उस समय के राजनीतिक और आर्थिकपहलू भी महत्वपूर्ण हैं। फिर भी यह सवाल बनता है कि औरंगजेब को शरीयत का क्या ज्ञान था, क्योंकि जजिया उसके सत्ता में आने के 22 साल बाद लागू किया गया था। हम अकेले औरंगजेब के चश्मे से पूरे मध्यकाल को नहीं देख सकते। औरंगजेब हिंदुओं से जजिया लेता था तो मुसलमानों से भी जकात वसूल करता था। जजिया केवल 1.5 प्रतिशत था। जकात इससे कहीं अधिक थी। जजिया एक व्यक्तिगत टैक्स था और बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों को छूट दी गई थी। इसलिए इतिहास कोई ऐसा विषय नहीं है जिसे ‘सुधारा’ या फिर से लिखा जाए। जैसा कि जॉर्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में लिखा है- जो वर्तमान को नियंत्रित करता है, वह अतीत को भी नियंत्रित करता है।(लेखक मुस्लिम स्टूडैंट्स आर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं)-डा. शुजात अली कादरी

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