यह चुनाव पिछले 2 चुनावों की तरह एकतरफा नहीं होगा

Edited By ,Updated: 20 Apr, 2024 04:05 AM

this election will not be one sided like the last 2 elections

चुनावी भविष्यवाणी करना जोखिम भरा होता है। फिर भी तय है कि 2024 का लोकसभा चुनाव पिछले दो चुनावों की तरह एकतरफा नहीं दिख रहा। बेशक सत्तारूढ़ एन.डी.ए. के पास 10 साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में लोकप्रिय चेहरा है। मोदी सरकार की ‘हैट्रिक’ का...

चुनावी भविष्यवाणी करना जोखिम भरा होता है। फिर भी तय है कि 2024 का लोकसभा चुनाव पिछले दो चुनावों की तरह एकतरफा नहीं दिख रहा। बेशक सत्तारूढ़ एन.डी.ए. के पास 10 साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में लोकप्रिय चेहरा है। मोदी सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा देते हुए भाजपा और एन.डी.ए. के लिए क्रमश: 370 एवं 400 सीटों का लक्ष्य भी घोषित कर दिया है। 

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के मद्देनजर इसे एन.डी.ए. की बढ़त कह सकते हैं, पर 10 साल की सत्ता के बाद भी छोटे-छोटे दलों की जरूरत प्रतिकूल संकेत भी है। एन.डी.ए. 26 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी के समय बना था, पर मोदी राज में उसका महत्व पिछले साल ‘इंडिया’ गठबंधन बनने के बाद ज्यादा दिखा। घटक दलों की संख्या के खेल में छोटे दलों को साथ लेने में संकोच दोनों में से किसी गठबंधन ने नहीं किया। क्या इसीलिए कि चुनावी मुकाबला इतना कड़ा हो सकता है कि दो-चार प्रतिशत वोट भी निर्णायक साबित होंगे? यू.पी.ए. सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साए में हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में विकास के गुजरात मॉडल के साथ नरेंद्र मोदी उम्मीद की किरण की तरह थे। देश ने उनके हर वादे पर विश्वास किया। 2019 का चुनाव आते-आते विपक्ष अच्छे दिन आने, विदेशों से काला धन वापस लाने और हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने जैसे अधूरे वायदों पर सवाल उठाने लगा, लेकिन विभाजित विपक्ष के पास न तो विश्वसनीयता थी और न ही मोदी के मुकाबले नेता।

फिर भी 2019 के जनादेश में पुलवामा के प्रभाव से कौन इंकार कर सकता है? उसके बावजूद भाजपा 303 और एन.डी.ए. 353 सीटें ही जीत पाए। कर्नाटक और तेलंगाना के अलावा किसी दक्षिण भारतीय राज्य में खाता नहीं खुला। तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रैड्डी और केरल में कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.डी.एफ. के आगे मोदी की करिश्माई छवि काम नहीं आई। फिर अब 370 और 400 का लक्ष्य कैसे मुमकिन होगा, जबकि विपक्ष काफी हद तक एकजुट हो चुका है? लक्ष्य इसलिए भी मुश्किल लगता है कि जिन राज्यों में पिछले चुनाव में एन.डी.ए. ने शानदार प्रदर्शन किया था, वहां इस बार समीकरण बदला हुआ है। 

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और पंजाब में सुखबीर सिंह बादल का शिरोमणि अकाली दल अब एनडीए में नहीं हैं। 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र से पिछली बार एन.डी.ए. ने 41 सीटें जीती थीं। तब भाजपा ने 23 और उसके मित्र दल शिवसेना ने 18 सीटें जीती थीं। राज्य में सरकार के नेतृत्व को ले कर हुई तकरार के बाद अब दोनों अलग-अलग पाले में हैं। बेशक शिवसेना में विभाजन के बाद राज्य में उद्धव के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एम.वी.ए.) सरकार गिर गई। बाद में एन.सी.पी. भी टूट गई। दोनों दलों से बगावत करने वाले गुट अब भाजपा के साथ हैं। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री हैं, जबकि अजित पवार उप मुख्यमंत्री। नए दोस्तों के सहारे पुराने प्रदर्शन का भरोसा होता तो भाजपा राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से गठबंधन की कोशिश नहीं करती। 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में पिछली बार भाजपा ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को टक्कर देते हुए 18 सीटें जीती थीं। ‘इंडिया’ बनने के बावजूद तृणमूल सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है। 

तृणमूल, भाजपा और कांग्रेस-वाम मोर्चा के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा कह पाना मुश्किल है। वैसे अलग लड़ कर भी तृणमूल और कांग्रेस-वाम मोर्चा जितनी सीटें जीतेंगे, वे भाजपा विरोधी खेमे में ही रहेंगी। 40 सीटों वाले बिहार में पिछली बार एन.डी.ए. ने 39 सीटें जीत कर लगभग क्लीन स्वीप किया था। नीतीश कुमार फिर पाला बदल कर एन.डी.ए. में लौट चुके हैं, पर रामविलास पासवान की कमी खलेगी, जिनकी लोक जनशक्ति पार्टी ने 6 सीटें जीती थीं? रामविलास के निधन के बाद लोजपा भाई और बेटे की बीच बंट गई। 5 सांसदों के नेता के रूप में भाई पशुपति पारस को भाजपा ने केंद्र में मंत्री बना दिया, लेकिन अब चुनावी दांव बेटे चिराग पर लगाया है। पिछली चुनावी सफलता की पुनरावृत्ति एन.डी.ए. के लिए आसान नहीं लगती। 

28 लोकसभा सीटों वाले कर्नाटक में पिछली बार भाजपा की सरकार थी। उसने 25 सीटें जीतीं। भाजपा समर्थित एक निर्दलीय भी जीता। कांग्रेस के हाथों राज्य की सत्ता गंवा चुकी भाजपा के लिए पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना नामुमकिन होगा। इसीलिए एच.डी. देवगौड़ा के जद (एस) से गठबंधन किया है। आंध्र में चंद्रबाबू नायडू की टी.डी.पी. और फिल्म अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना पार्टी से गठबंधन भाजपा की बड़ी सफलता है, लेकिन ओडिशा में नवीन पटनायक और पंजाब में सुखबीर सिंह बादल ने इंकार कर दिया। 

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड समेत अपने प्रभाव क्षेत्र में भाजपा पिछले चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है। इसलिए भी मोदी आंध्र, तमिलनाडु और केरल में खाता खोलने और दक्षिण में सीटें बढ़ाने की कवायद में जुटे हैं, पर जिन मुद्दों के सहारे भाजपा उत्तर भारत जीतती है, वे दक्षिण में उतने प्रभावी नहीं होते। जब पिछला चुनावी प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल है, तब 370 और 400 का लक्ष्य माहौल बनाने की रणनीति ज्यादा लगती है। बेशक चुनाव में कई बार मुद्दों से ज्यादा माहौल निर्णायक साबित होता है। भाजपा माहौल बनाने में माहिर भी है। उसके पास राम मंदिर, धारा-370 और तीन तलाक जैसे भावनात्मक मुद्दे हैं, लेकिन मुद्दों की कमी विपक्ष के पास भी नहीं। 

हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने तथा विदेशों से काला धन वापस लाने जैसे अधूरे वादों के अलावा रिकॉर्ड बेरोजगारी और बेलगाम महंगाई जैसे मुद्दों के तीर विपक्ष के तरकश में भी हैं। मोदी भ्रष्टाचार को विपक्ष के विरुद्ध बड़ा मुद्दा बनाते रहे हैं, लेकिन इलैक्टोरल बांड योजना में खुलासों से यही मुद्दा विपक्ष के हाथ भी लग गया है। ई.डी., सी.बी.आई.और इंकम टैक्स विभाग की विपक्षी नेताओं के विरुद्ध अति सक्रियता पर भी सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में चुनाव परिणाम मुख्यत: इस पर निर्भर करेंगे कि सत्तापक्ष और विपक्ष में से कौन अपने मुद्दों को ज्यादा प्रभावी ढंग से उठाते हुए माहौल बना सकता है, जो अभी तक तो नजर नहीं आ रहा।-राज कुमार सिंह
 

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