Edited By ,Updated: 19 Sep, 2023 05:08 AM

इस समय I.N.D.I.A. गठबंधन द्वारा प्रैस वक्तव्य जारी कर टैलीविजन चैनलों के 14 एंकरों के कार्यक्रम के बहिष्कार की घोषणा देशव्यापी बहस का मुद्दा बना हुआ है। स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह पहला अवसर है जब एक दल ही नहीं दलों के समूह ने इस तरह के बहिष्कार,...
इस समय I.N.D.I.A. गठबंधन द्वारा प्रैस वक्तव्य जारी कर टैलीविजन चैनलों के 14 एंकरों के कार्यक्रम के बहिष्कार की घोषणा देशव्यापी बहस का मुद्दा बना हुआ है। स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह पहला अवसर है जब एक दल ही नहीं दलों के समूह ने इस तरह के बहिष्कार, प्रतिबंध या जो भी शब्द प्रयोग करें, की सार्वजनिक घोषणा की है। इसको कितना बड़ा मुद्दा बनाया गया है इसका प्रमाण इसी से मिलता है कि कांग्रेस पार्टी ने अपनी प्रैस ब्रीफ्रिंग में कहा कि सारे एंकर नफरत फैलाते हैं। भारत का चरित्र राजनीति में वैचारिक स्तर पर हमेशा असहमतियों और मतभेदों का रहा है। पत्रकारिता की स्थिति भी यही है। इस समय भी आप देखेंगे कि पत्रकारों का एक बड़ा समूह अगर इस कदम के विरोध में है तो उसके समानांतर भारी संख्या में इसका समर्थन भी कर रहे हैं। देश में तीखा वैचारिक विभाजन नहीं होता तो यह स्थिति पैदा नहीं होती।
अलग-अलग विचारधाराएं स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज के लक्षण हैं। किंतु ये विचारधाराएं अगर हमारे बीच वैमनस्य, दुश्मनी और एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा पैदा करें तो ठहर कर विचार करने का समय आ जाता है कि क्या वाकई हम स्वस्थ समाज और सशक्त लोकतंत्र हैं? किसी के विचार और व्यवहार को अनुचित करार देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाई जाती है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बड़ा समूह खड़ा हो जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में दिए गए प्रावधानों से ही लागू नहीं होती, यह हमारे संस्कार, चरित्र और जीवन मूल्य का विषय है। ऐसा नहीं हो सकता कि एक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने अलग हों और दूसरे के लिए अलग। यही बात संगठनों, समूहों और संस्थानों पर भी लागू होती है। राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों को अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है तो यह पत्रकारों के लिए भी है।
समस्या तब आती है जब राजनीतिक पार्टियां अपनी बात के लिए तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हथियार उठाती हैं लेकिन कोई पत्रकार उसके समानांतर ऐसा तर्क दे दे या प्रश्न कर दे, जो उनके अनुकूल नहीं हो तो वहां उनके लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मायने नहीं रखती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ सहनशीलता और दूसरे के विचारों का सम्मान अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। ये दोनों बातें आज धीरे-धीरे राजनीतिक विमर्श और व्यवहार से गायब हो रही हैं। जिन एंकरों के डिबेट में न जाने की घोषणा की गई है उनके चरित्र, कार्य-व्यवहार आदि में जाने की आवश्यकता नहीं। जिन दलों ने बहिष्कार की घोषणा की वे लोकतांत्रिक मूल्य और व्यवहार की कसौटी पर ऐसे नहीं हैं जिनको मानक मान लिया जाए। टैलीविजन चैनलों या मीडिया के किसी भी मंच पर अपनी बात रखना अत्यंत उत्तरदायित्व का कार्य है। लाखों-करोड़ों लोग आपको देखते, सुनते, पढ़ते हैं।
एंकरों और पत्रकारों का भी अपना राजनीतिक विचार हो सकता है। उसके अनुसार वे प्रश्न कर सकते हैं और उनके तर्कों का उत्तर भी दे सकते हैं। आजकल ज्यादातर प्रवक्ता किसी डिबेट में जाने या वक्तव्य देने से पहले तथ्यों और शब्दावलियों पर गहराई से काम नहीं करते। इसमें जैसे ही उनके लिए असुविधाजनक प्रश्न या उनके तर्कों का खंडन होता है वह आपा खोकर एंकर व डिबेट में शामिल पत्रकार आदि को आरोपित करने लगते हैं और फिर पूरी डिबेट पटरी से उतर जाती है। यह आम दृश्य है। वैसे तो शत-प्रतिशत असहमति रखने वाले या घोर विरोधी के साथ भी संवाद व बहस बनाए रखने को ही सच्चा लोकतांत्रिक चरित्र कहा जाता है।
भाजपा ने भी एक चैनल का बहिष्कार किया था। कांग्रेस पार्टी ने पहले से 3 टैलीविजन चैनल समूहों का बहिष्कार किया हुआ है। लेकिन इसके लिए कभी पत्रकार वार्ता करने या प्रैस वक्तव्य जारी करने की आवश्यकता नहीं हुई। उसके बाद आम आदमी पार्टी ने ऐसा किया। कुछ एंकरों के कार्यक्रम में कई दलों के प्रवक्ता पहले से नहीं जाते हैं। किंतु उसके लिए बैठक करने, उसके वक्तव्य जारी करने और फिर पत्रकार वार्ता करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। स्वतंत्र भारत के इतिहास की यह असाधारण स्थिति है। कांग्रेस या आम आदमी सहित I.N.D.I.A. के दलों को यह समझना चाहिए कि हर चैनल, पत्रकारों और समाचार पत्र-पत्रिकाओं को भी अपनी राजनीतिक सोच के अनुसार काम करने का अधिकार है। आपका भी अधिकार है कि उनके साथ आप बहस, विमर्श या संवाद करें या नहीं। किंतु इसके लिए प्रैस विज्ञप्ति जारी कर पत्रकारों के नाम का ऐलान करना डरावनी और खतरनाक प्रवृत्ति है। आपने अपनी पार्टी और विचारधारा के लाखों कार्यकत्र्ताओं- समर्थकों के समक्ष उनको दुश्मन बना दिया।
कोई भी एंकर या पत्रकार किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक दलों के समूह से जनशक्ति या धनशक्ति के आधार पर संघर्ष नहीं कर सकता। वैसे इन 14 में से कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिनके कार्यक्रम में डिबेट होते ही नहीं। इसलिए उनमें किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। एक, रणनीति के तहत इतने नाम सामने लाए गए ताकि इनकी देखा-देखी दूसरे हमारी दृष्टि से डिबेट और लेखन में अनुकूल व्यवहार करें। दूसरे, अगर इतने दलों के प्रतिनिधि उनके डिबेट में नहीं जाएंगे तो संस्थान को उनकी जगह दूसरे एंकर रखने पड़ेंगे। इन्हें बिना काम के चैनल नहीं रख सकते। तो एक उद्देश्य इनको वहां से निकलवाना भी हो सकता है। हालांकि इनमें एक तो स्वयं चैनल के मालिक भी हैं। तीसरे, संस्थान अन्य एंकरों को कहेंगे कि आप अपने डिबेट को ऐसा न बनाएं जिनसे ये दल आपका भी बहिष्कार कर दें। I.N.D.I.A. के दल स्वयं अपने व्यवहार पर पुनर्विचार कर कदम वापस लें। हम सहमत हों या असहमत कोई हमारा समर्थक हो या विरोधी, पत्रकारों को स्वतंत्रतापूर्वक काम करने की स्थिति बनी रहे इसी में सबका हित है।-अवधेश कुमार