Edited By ,Updated: 29 Aug, 2024 05:19 AM
यह विडंबना ही है कि जब शासन और संसदीय कामकाज में भाजपा और नरेंद्र मोदी के इकबाल को चुनौतियां मिलनी शुरू हुई हैं तब राज्यसभा में भाजपा को पहली बार बहुमत मिलने का दावा किया जाने लगा है।
यह विडंबना ही है कि जब शासन और संसदीय कामकाज में भाजपा और नरेंद्र मोदी के इकबाल को चुनौतियां मिलनी शुरू हुई हैं तब राज्यसभा में भाजपा को पहली बार बहुमत मिलने का दावा किया जाने लगा है। लोकसभा चुनाव में (ज्यादातर) राज्यसभा सदस्यों द्वारा जीत हासिल करने से खाली हुई 12 जगहों के उप चुनाव में भाजपा ने 9 स्थान जीते हैं और एन.डी.ए. के साथियों ने 2 स्थान जीते हैं। हम जानते हैं कि राज्यसभा सदस्यों का चुनाव विधायक करते हैं और अभी ज्यादातर राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकार है।
245 सदस्यों वाले सदन में अब भाजपा के 96 सदस्य हो गए हैं और एन.डी.ए. के उसके सहयोगी दलों के सदस्यों, 2 निर्दलीय और 6 मनोनीत सदस्यों को लेकर अब उसके खेमे में 119 सदस्य गिने जा सकते हैं। अभी भी मनोनीत सदस्यों के 4 स्थान और जम्मू-कश्मीर के 4 स्थान खाली हैं और बैठे-ठाले गणित लगाने वालों का अनुमान है कि भाजपा का खेमा 125 तक पहुंच सकता है और अगर जम्मू-कश्मीर वाली गिनती को फिलहाल छोड़ भी दें तो 241 सदस्यों में भाजपा खेमा आराम से 123 तक पहुंच जाएगा। आजकल मनोनीत का मतलब भी शासक दल का सदस्य ही हो गया है। भाजपा के लिए यह स्थिति 2014 के बाद पहली बार बनी है।
अब यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मोदी का प्रताप गिरने की शुरूआत होने पर इस स्थिति के आने का भी बहुत मतलब है। लेकिन जिस विधायी कामकाज के लिए राज्यसभा में बहुमत होना जरूरी होता है उसमें नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा के एजैंडे वाले काफी काम पहले अटके भी हैं। सबसे पहला झटका तो भूमि अधिग्रहण कानून और श्रम कानूनों में बदलाव के समय ही लगा और हारकर केंद्र ने इसे राज्यों के हवाले कर दिया कि वे अपनी-अपनी मर्जी से और अपनी जरूरत के हिसाब से कानून बनाएं।
कृषि से संबंधित 3 कानून पास भी हुए और उसमें भी ‘न्यूट्रल’ दलों का समर्थन लिया गया पर उस पर किसान आंदोलन और फिर उत्तर प्रदेश चुनाव की जरूरत ने पानी फेर दिया। बीजद और वाई.एस.आर. कांग्रेस के साथ कई बार तेलंगाना राज्य समिति भी अपने ‘न्यूट्रल’ स्टैंड को छोड़कर भाजपा को समर्थन देती रही है। कई और दल भी खास रणनीति से सदन से गायब होकर बिल पास कराने में मदद करते थे। अब तेलंगाना राज्य से भारत देशम बने चंद्रशेखर राव की पार्टी का तो अस्तित्व संकट में है लेकिन बीजद और वाई.एस.आर. कांग्रेस विरोध में आ गए हैं, भले उनकी शक्ति कम हुई हो।
दूसरी ओर कई बार ‘धोखा’ खाने के बाद नामी वकील अभिषेक मनु सिंघवी तेलंगाना से राज्यसभा में पहुंचे हैं। कांग्रेस को वैसे तो यह एकमात्र सीट मिली है लेकिन इसने राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 27 तक पहुंचा दी है। इससे उनका राजनीतिक पुनर्वास तो हुआ ही है। अभी तक कांग्रेस के 26 सदस्य ही थे और विपक्ष का नेता बनने के लिए 25 सीटों की जरूरत होती है। जिस रफ्तार से भाजपा दल बदल और तोड़-फोड़ करती रही है उसमें खरगे जी की कुर्सी छीनना बहुत मुश्किल न था।
पिछली लोकसभा में जिस तरह राहुल गांधी और महुआ मोइत्रा की सदस्यता छीनी गई और डेढ़ सौ से ज्यादा सांसदों को निलंबित किया गया उसमें यह खतरा रोज मंडरा रहा था। लेकिन यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस दिन भाजपा को राज्यसभा में मोदी-युग का सबसे बड़ा आंकड़ा हासिल हुआ उससे 2 दिन पहले एन.डी.ए. में और सरकार में सांझीदार लोक जन शक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग कर दी।
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी द्वारा इस सवाल को राजनीति के केंद्र में ला देने के बाद भी अभी तक भाजपा इसके पक्ष में नहीं दिखती है। वह इसे राहुल के पिच पर खेलना मानती है। लेकिन चिराग जैसे सहयोगियों और महाराष्ट्र (जहां जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं) के अपने की नेताओं की मांग को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा। पार्टी को ऐसे ही दबाव में (जिसमें मुख्य दबाव राहुल का था तो एन.डी.ए. के साथियों की तरफ से भी बयानबाजी शुरू हुई) बड़े सरकारी पदों पर सीधी भर्ती का अपना विज्ञापन वापस लेना पड़ा।
अब सरकारी पक्ष जो कहे लेकिन इसका राजनीतिक श्रेय राहुल और इंडिया गठबंधन के नेता ही ले रहे हैं। सरकार ने इसी तरह कैबिनेट की आपात बैठक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर बनाने और उसका श्रेणीकरण करने संबंधी फैसले के खिलाफ अपील करने का फैसला किया। यह सवाल दलित समूहों में तो सुगबुगाहट ला रहा था लेकिन राहुल या किसी बड़ी विरोधी नेता ने अदालती फैसले को गलत नहीं कहा था। उलटे तेलंगाना के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी तो इसके पक्ष में बोलते दिखे।
राहुल के सलाहकारों में एक योगेंद्र यादव ने भी खुलकर अदालती फैसले का समर्थन किया। तीसरे टर्म की शुरूआत में नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, एकनाथ शिंदे जैसे सहयोगियों के बल पर जिस तरह भाजपा को भी जेब में रखा दिखाया (उनको भाजपा संसदीय दल का नेता चुनने की जगह एन.डी.ए. का नेता ही चुना गया) अब वही सहयोगी आंख दिखाने लगे हैं ऐसे में लोकसभा के साथ राज्यसभा में भी बहुमत आ जाए तो क्या फर्क पड़ेगा। -अरविंद मोहन