हिन्दू हारे क्यों और अब हिन्दुओं की जीत के कारण क्या

Edited By ,Updated: 23 Apr, 2024 06:36 AM

why did hindus lose and now what is the reason for hindu victory

वर्तमान हिन्दू उदय का काल सनातन हिन्दुओं की वीरता और उनके असीम धैर्य के साथ विश्व में दुर्लभ संघर्ष की अद्भुत निरंतरता बताता है तो उसके साथ ही स्मरण रखना होगा कि पिछले कई 100 वर्षों में हिन्दू द्वारा हिन्दू से विद्वेष, हिन्दू की हिन्दू से शत्रुता,...

वर्तमान हिन्दू उदय का काल सनातन हिन्दुओं की वीरता और उनके असीम धैर्य के साथ विश्व में दुर्लभ संघर्ष की अद्भुत निरंतरता बताता है तो उसके साथ ही स्मरण रखना होगा कि पिछले कई 100 वर्षों में हिन्दू द्वारा हिन्दू से विद्वेष, हिन्दू की हिन्दू से शत्रुता, असंगठन, शत्रु के साथ अपने स्वार्थ के लिए जा मिलना और सामूहिक शत्रु के विरुद्ध अपने ईष्र्या भाव खत्म कर संगठित बल से उस शत्रु का हनन करने की भावना का न होना  जिसने हिन्दुओं को विदेशी क्षुद्र शक्तियों का दास बनाया। 

हिन्दुओं ने आत्म मुग्धता के साथ केवल अपने बारे में महानता की बातें कीं लेकिन जो सावरकर और हैडगेवार को जानते हैं वे समझते हैं कि अपनी दुर्बलताओं की ओर ध्यान दिए बिना शक्ति अर्जन का पथ प्रशस्त करना संभव नहीं होता। ये 500 वर्ष कैसे बीते हमारे? इन वर्षों में लाखों हिन्दुओं का वध हुआ, उनकी स्त्रियों का अपमान हुआ, बच्चे, नर, नारी गुलाम बनाकर काबुल और बगदाद के बाजारों में बेचे गए , हमारे मंदिरों का ध्वंस हुआ, अपमान हुआ, हमारे पूर्वजों को डरा-धमका कर, संहार के भय से इस्लाम में लाया गया। आज उन मतांतरित हिन्दुओं के वंशज ही आक्रमणकारी विदेशियों की भांति हिन्दू धर्म एवं आस्था स्थलों के प्रति घृणा का भाव रखते हैं, क्यों? 500 वर्षों के संघर्ष की निरंतरता के बाद हिन्दुओं के असीम धैर्य के बावजूद उनके प्रति मतांतरित जिहाद-अनुयायियों की शत्रुता काम क्यों नहीं हुई? 

हिन्दू इन विषयों पर सोचना भी नहीं चाहता। स्मृति भ्रंश और विगत के बलिदानों का विस्मरण हमारी बड़ी कमजोरी है। मंदिरों की अपरमित आय उच्च जातियों  द्वारा नियंत्रित रहती है। हिन्दुओं का कौन सा एक भी मंदिर है जो अपने ही रक्तबंधु दलितों के प्रति समता और सच्ची आत्मीयता का भाव जन-जन में पैदा करने के लिए दो चढ़ावा खर्च करता होगा? अथवा देश के कोने-कोने में हिन्दुओं को धर्मान्तरित करने वाली शक्तियों के सामने हिन्दू रक्षक और समरसता के यथार्थ  प्रहरी भेजने हेतु अपने करोड़ों रुपयों के हिन्दू- धर्म- दान का कोई अंश खर्च करता होगा ? इन हिन्दू मंदिरों के संचालक एवं धर्म कोष के अधिपति अपनी राजनीतिक अभीप्साओं की पूर्ति के लिए मंदिर कोष कभी सरकारी कार्यों हेतु, कभी आगंतुक राजनीतिक महानुभाव के सरकारी सहायता कोष हेतु, कभी सड़क, पानी, बिजली के लिए खर्च कर अपने लिए राजनीतिक पद और प्रतिष्ठा की संभावनाएं ढूंढते हैं लेकिन अरुणाचल से लेकर अंडेमान और लद्दाख तक जो संगठन हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं उनको कभी दो रुपए की सहायता नहीं देते। 

हिन्दू पर्व केवल लोकाचार : रीति-रिवाज और कर्मकांड के पालन द्वारा अपनी क्षुद्र मनोकामनाएं पूरी करवाने का पाखंड नहीं होना चाहिए।  हिन्दू क्यों हारा? किन कारणों से आक्रमणकारी जीते? किन कारणों से हमारा संगठन जातियों, धन कुबेरों के स्वार्थों, धार्मिक कुरीतियों और रूढि़वादिता के कारण छिन्न-भिन्न होता रहा? और किन महापुरुषों ने हिन्दू संगठन का बीड़ा उठाया जिस कारण आज सर्वत्र एक हिन्दू उत्कर्ष का भाव दिखने लगा है? इन पर विचार किए बिना भारत के नवीन भाग्योदय पर विमर्श अधूरा ही कहा जाएगा। स्मरण रखिए महाशक्ति सम्पन्न, विष्णु के अवतार श्री राघव को भी रावण वध से पूर्व भगवती शक्ति का आह्वान कर आशीर्वाद लेना पड़ा था। हमारे अवतारी पुरुष और वीर पराक्रमी गुरु दुष्ट हन्ता, जनसंगठक,  मर्यादा रक्षक, प्रजा वत्सल, अत्यंत सौम्य, अक्रोधी , शालीन, भद्र, सबकी सुनने वाले और  विनम्र रहे हैं। हमारे महापुरुषों ने जीवन भर जन हित के लिए संघर्ष किया। उनको जीवन में कभी लौकिक सुख नहीं मिला। विलासिता और ऐश्वर्य से कोसों दूर रहे। 

क्या हम अपने अवतारी महापुरुषों के जीवन से कुछ सीखते हैं? : यदि कृष्ण शक्ति, नीति और पराक्रम के योद्धा पुरुष थे जिनको सुदर्शन चक्र के प्रतापी रूप से जाना गया तो राम मर्यादा भक्षक रावण तथा उसके पुत्रों के वध के बाद  उसकी  स्वर्णमयी  लंका भस्म कर-‘जननी जन्मभूमि, स्वर्गादपि गरीयसी’ कहते हुए अयोध्या लौटे और कृष्ण ने मथुरा वृंदावन से हजारों मील दूर गुजरात में देहोत्सर्ग किया। दोनों ही अवतारी पुरुष शक्ति और पराक्रम के अन्यतम उदाहरण हैं। अर्थात जहां आवश्यक हो वहां अरि हनन कर सज्जनों को अभय देना ही हिन्दू सनातन परंपरा का प्राचीनतम संदेश रहा है। शक्ति का उपार्जन करना, स्वयं को शत्रु से अधिक बलशाली बनाना, पश्चाताप रहित शत्रु को कभी क्षमा नहीं करना, उसके प्रति कोई दया भाव नहीं दिखाना, सत्य और धर्म रक्षा के लिए प्रत्येक पग उठाने का साहस रखना ही सनातन नियम है। 

वर्तमान संदर्भों में भारत के आराधकों का विजय पथ पर आरोहण एक नए युग के प्रवर्तन का प्रतीक है। एक ओर यदि हिन्दू उत्कर्ष की पुन: प्राप्ति हमारे  संघर्ष के अटूट सातत्य का स्वर्णिम अध्याय  है तो यह भी सत्य है कि  सनातन  पथ पर सनातन  का नाम लेने वालों ने ही अति दुर्गम कंटक भी  बोए, हिन्दू निर्वीर्य दुर्बलताओं का  अनुभव भी हुआ, शक्ति अर्जन और जन संगठन में कमियां रहीं।  तुम विजयी हो गए तो क्या हुआ, पहले यह बताओ मुझको क्या मिला?  इस प्रकार के भाव लेकर सनातन ही सनातन की पराजय का कारण बना। यह इस प्रकार था मानो लंका विजय के बाद हनुमान श्री रघुवीर से पूछें कि अब मुझे कौन-सा मंत्रालय मिलेगा ? अयोध्या वालों ने तो कोई युद्ध नहीं किया, इसलिए अधिकांश पद , वानर और रीछ जातियों के लिए आरक्षित होने चाहिएं। इस भाव के विरुद्ध जन संगठन और राष्ट्र धर्म सर्वोपरि मानने का भाव सनातन की विजय सुनिश्चित करता है, जितना भी यह भाव बढ़ेगा हिन्दू उत्कर्ष उतना ही निकट आएगा।-तरुण विजय
 

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!