क्या निकम्मी राज्य सरकारों के झूठे वादे का ‘शिकार’ बनेंगे मजदूर

Edited By Updated: 04 Jul, 2020 04:05 AM

will laborers become victims of false promises of state governments

पीठ पर पिट्ठू सिर पर गमछा जो कोरोना के डर से मुंह भी ढक रहा हो (मोदी मास्क), हाथ में एक सस्ता सूटकेस और पैर में हवाई चप्पल पहने किसी अविकसित राज्य के एअरपोर्ट पर ठेकेदार के जरिए तत्काल हवाई टिकट लिए जहाज में घुसते मजदूरों को देख...

पीठ पर पिट्ठू सिर पर गमछा जो कोरोना के डर से मुंह भी ढक रहा हो (मोदी मास्क), हाथ में एक सस्ता सूटकेस और पैर में हवाई चप्पल पहने किसी अविकसित राज्य के एअरपोर्ट पर ठेकेदार के जरिए तत्काल हवाई टिकट लिए जहाज में घुसते मजदूरों को देख भ्रम होता है कि शायद भारत बदल गया है। नहीं, मजदूर वहीं है केवल उनके श्रम की ताकत का अहसास बदल गया है। ये जहाज किसी बड़े औद्योगिक इलाकों से बड़ी-बड़ी कंपनियों ने भेजे हैं। 

इन कंपनियों में सरकार के ‘नवरत्न’  उपक्रम -ओ.एन.जी.सी. भी है और निजी क्षेत्र का लार्सन एंड टुब्रो भी। कार्ल माक्र्स अगर जिंदा होते तो समझ पाते कि उनका ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो’ का नारा या ‘वर्ग संघर्ष के जरिए सर्वहारा क्रांति’ हासिल करने का सिद्धांत क्यों पूरी दुनिया के देशों से गायब हो गया और क्यों भारत के श्रमिक, जो जाति, धर्म और अन्य संकीर्ण पहचान समूह में बंटे थे, एकजुट नहीं हो पाए? उन्हें यह भी समझ में आता कि मजदूर एकता की बुनियाद ‘सामान्य हित’ की अवधारणा में नहीं ‘सबके बीच सामान्य खौफ’ पर टिकी है और कोरोना संकट से छोटी नौकरियों के बाद जिस शिद्दत से ये मजदूर जान की बाजी लगाकर ‘घर’ की ओर भागे वह ‘जिजीविषा’ की सबसे बड़ी अवधारणा है। 

देश का उद्योग जगत भारी संकट में है। लिहाजा चार्टर्ड प्लेन (पूरा विमान किराए पर) भेज इन मजदूरों को बुलाना पड़ा। ‘श्रमिक अतिथियों’ को नया नाम दिया जा रहा है। जो पूरे जहाज का किराया नहीं दे पा रहे हैं, जैसे बिल्डर या धान मिल के मालिक, वे आपस में पूल करके जहाज किराए पर ले रहे हैं। लेकिन वे हर हाल में अभी तक हिकारत से देखे जा रहे ‘भैया’ या ‘बिहारी’ जैसे नाम से बुलाए जाने वाले इन मजदूरों को अपने कारखानों या काम की जगहों पर चाहते हैं क्योंकि उद्योग का पहिया उनके बिना नहीं चल पा रहा है। 

अचानक इनके प्रति इतना सकारात्मक भाव उमड़ा है कि इनको लाने वाला ‘दलाल’, जो शोषण की व्यवस्था में मजदूरों और उद्यमियों के बीच की सबसे मजबूत कड़ी होता है, मजदूरों को पुराना बकाया भी दे रहा है, मजदूरी बढ़ाने का वादा भी कर रहा है और अनेक नए प्रलोभन भी दे रहा है। उद्देश्य है ‘एक बार काम पर पहुंच जाओ’। कहना न होगा कि ये मजदूर ज्यादा दिन अपने ‘घर’ पर नहीं रह सकते। उनके राज्य की सरकारें ही नहीं देश के प्रधानमंत्री भले ही दावा करें कि ‘‘ये हमारे हैं और उन्हें घर के पास  ही काम मिलेगा और इनकी ‘प्रतिभा’ का इस्तेमाल ग्रामीण भारत के विकास के लिए किया जाएगा।’’ उत्तर भारत के छ: राज्य उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड में से कम से कम तीन मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि इन मजदूरों को अपने गृह राज्य में ही काम दिया जाएगा। उनका दावा खोखला हीं नहीं हास्यास्पद भी है। उद्यमिता रातों-रात नहीं विकसित होती। 

मजदूरों के साथ यह बर्ताव कब तक? 
ये मजदूर भी जानते हैं कि उनके साथ कम्पनियों और दलालों का यह ‘अतिथि देवो भव:’ वाला बर्ताव केवल तब तक है जब तक भूख से बिलबिलाते हुए या बच्चे को पढ़ाने की आस में या बूढ़े मां-बाप के इलाज के लिए फिर से गांव से भाग कर काफी तादाद में ये मजदूर इन शहरों में नहीं पहुंचते। लॉकडाऊन के तत्काल बाद जब प्रवासी मजदूर करोड़ों की तादाद में जान की परवाह न कर पैदल, भूखे पेट, बच्चे और पत्नी को लेकर हजारों किलोमीटर दूर अपने गृह-राज्य को जाने लगे तो सरकारों को हकीकत समझ में आई कि किस तरह उत्पादन में अतुलनीय लेकिन गुमनाम भूमिका निभाने वाले इन मजदूरों का उद्यमी सस्ते श्रम की तलाश में दलालों के मार्फत केवल शोषण करते हैं। सरकार को अपनी इस कमी का भी एहसास हुआ कि आज तक इन करोड़ों श्रमिकों का कोई भी रिकॉर्ड किसी भी राज्य सरकार या केंद्र के पास नहीं है। 

उस समय स्थिति की नाजुकता को देखते ही सरकार ने ऐलान किया कि सभी गृहराज्यों से आने के बाद और रोजी वाले राज्य में पहुंचने के बाद सरकारों द्वारा उनकी मैपिंग की जाएगी और उनके काम का लेखा-जोखा रखने और उन्हें उचित मजदूरी, फ्री इलाज और आवास की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। ‘सरकार इसके लिए श्रम कानून में बदलाव पर भी विचार कर रही है’, केंद्र सरकार ही नहीं, कई राज्य सरकारों का दावा था। जो नीतीश कुमार (बिहार के मुख्यमंत्री) ने पहले चरण में राजस्थान में कोचिंग के लिए गए बच्चों को लाकडाऊन में वापस लाने के लिए बस भेजने से इंकार कर दिया, वही मजदूरों के गुस्से को आगामी चुनाव में भीषण रूप लेने से डर कर  बोले,‘‘ये सभी हमारे अपने हैं। इन्हें यहीं काम देंगे’’। बहरहाल, केंद्र सरकार के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बिहार में राज्य सरकार ने इन मजदूरों को  मुफ्त पांच किलो अनाज का कोटा तो केंद्र सरकार से उठा लिया पर मई माह में मुफ्त अनाज केवल 2.13 फीसदी मजदूरों को ही दिया गया और जून में एक भी मजदूर को नहीं।

पर आज जब एक बार फिर उन मजदूरों ने भूख, बेरोजगारी और बच्चों की शिक्षा के लिए उन्हीं शहरों, औद्योगिक नगरों और राज्यों का रुख किया है जहां उन्हें ज्यादा मजदूरी मिलती है क्या हुआ सरकार के ‘मैपिंग’ और बड़ी-बड़ी घोषणाओं का? क्या फिर ये मजदूर किसी अगली लॉकडाऊन के डर में जोंक बने उद्यमी-दलाल गठजोड़ का शिकार बनते रहेंगें? या ‘घर’ वापस लौटकर निकम्मी राज्य सरकारों के झूठे वादे का शिकार बनेंगे?-एन.के. सिंह  
 

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