मानव समाज के चार विभाग

Edited By ,Updated: 29 Jun, 2015 10:36 AM

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चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्..

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।13।।


चातु:-वर्ष्यम् —मानव समाज के चार विभाग; मया—मेरे द्वारा; सृष्टम्—उत्पन्न किए हुए; गुण—गुण; कर्म— तथा कर्म का; विभागश:—विभाजन के रूप में; तस्य—उसका; कर्तारम्—जनक; अपि—यद्यपि; माम्—मुझको; विद्धि—जानो; अकर्तारम्—न करने वाले के रूप में; अव्ययम्—अपरिवर्तनीय को ।

अनुवाद : प्रकृति के तीनों गुणों और उनमें संबद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गए । यद्यपि मैं इस व्यवस्था का सृष्टा हूं किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूं ।

तात्पर्य : भगवान प्रत्येक वस्तु के सृष्टा हैं।प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके ही द्वारा पालित है और प्रलय  के बाद प्रत्येक वस्तु उन्हीं में समा जाती है । अत: वही वर्णाश्रम व्यवस्था (चातुर्वण्र्य) के सृष्टा हैं।मानव समाज के इन चार विभागों की सृष्टि करने पर भी भगवान कृष्ण इनमें से किसी विभाग (वर्ण) में नहीं आते क्योंकि वे उन बद्धजीवों में से नहीं हैं जिनका एक अंश मानव समाज के रूप में है ।

मानव समाज भी किसी अन्य पशु समाज के तुल्य है किन्तु मनुष्यों को पशु-स्तर से ऊपर उठाने के लिए उपर्युक्त वर्णाश्रम की रचना की गई, जिससे क्रमिक रूप से कृष्णभावना विकसित हो सके । किसी विशेष व्यक्ति की किसी कार्य के प्रति प्रवृत्ति का निर्धारण उसके द्वारा अर्जित प्रकृति के गुणों द्वारा किया जाता है । गुणों के अनुसार जीवन के लक्षणों का वर्णन इस ग्रंथ के अठारहवें अध्याय में हुआ है किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है ।(क्रमश:)

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