मृत्यु के बाद स्वर्ग-सुख की कामना

Edited By Updated: 07 Jul, 2015 03:41 PM

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गीता व्याख्या जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी नं मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न से बध्यते।।14।।

गीता व्याख्या

जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी

नं मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न से बध्यते।।14।।

न—कभी नहीं; माम—मुझको; कर्माणि—सभी प्रकार के कर्म; लिम्पन्ति—प्रभावित करते हैं; न—नहीं; मे—मेरी; कर्म-फले—सकाम कर्म में; स्पृहा—महत्वाकांक्षा; इति—इस प्रकार; माम्—मुझको; य:—जो; अभिजानाति—जानता है; कर्मभि:—ऐसे कर्म के फल से; न—कभी नहीं; स:—वह; बध्यते—बंध पाता है।;

अनुवाद : मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता; न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूं। जो मेरे संबंध में इस सत्य को जानता है, वह भी कर्मों के फल के पाश में नहीं बंधता। 

तात्पर्य : जिस प्रकार इस भौतिक जगत में संविधान के नियम हैं जो यह बताते हैं कि राजा न तो दंडनीय है न ही किसी राजनियमों के अधीन रहता है उसी तरह यद्यपि भगवान इस भौतिक जगत के स्रष्टा हैं, किंतु वे भौतिक जगत के कार्यों से प्रभावित नहीं होते। सृष्टि करने पर भी वे इससे पृथक रहते हैं, जबकि जीवात्माएं भौतिक कार्यकलापों के सकाम कर्मफलों में बंधी रहती हैं क्योंकि उनमें प्राकृतिक साधनों पर प्रभुत्व दिखाने की प्रवृत्ति रहती है।

किसी संस्थान का स्वामी कर्मचारियों के अच्छे-बुरे कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं, कर्मचारी इसके लिए स्वयं उत्तरदायी होते हैं। जीवात्माएं अपने-अपने इन्द्रियतृप्ति-कार्यों में लगी रहती हैं किंतु इन कार्यों की अनुमति भगवान से नहीं ली जाती। इन्द्रियतृप्ति की उत्तरोत्तर उन्नति के लिए जीवात्माएं इस संसार कर्म में प्रवृत्त हैं और मृत्यु के बाद स्वर्ग-सुख की कामना करती रहती हैं।

स्वयं में पूर्ण होने के कारण भगवान को तथाकथित स्वर्ग-सुख का कोई आकर्षण नहीं रहता। स्वर्ग के देवता उनके द्वारा नियुक्त सेवक हैं। स्वामी कभी भी कर्मचारियों का सा निम्रस्तरीय सुख नहीं चाहता। वह भौतिक क्रिया-प्रतिक्रिया से पृथक रहता है। उदाहणार्थ, पृथ्वी पर उगने वाली विभिन्न वनस्पतियों के उगने के लिए वर्षा उत्तरदायी नहीं है, यद्यपि वर्षा के बिना वनस्पति नहीं उग सकती।

प्राणियों की अनेक जातियां होती हैं यथा देवता, मनुष्य तथा निम्रपशु और ये सब पूर्व शुभारंभ कर्मों के फल भोगने को बाध्य हैं। भगवान उन्हें ऐसे कर्म करने के लिए केवल समुचित सुविधाएं तथा प्रकृति के गुणों के नियम सुलभ कराते हैं किंतु वे उनके किसी भूत तथा वर्तमान कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते।

वेदान्तसूत्र में (2.1.34) पुष्टि हुई है कि भगवान किसी भी जीव के प्रति पक्षपात नहीं करते। जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। भगवान उसे प्रकृति अर्थात बहिरंगा शक्ति के माध्यम से केवल सुविधा प्रदान करने वाले हैं। जो व्यक्ति इस कर्मनियम की सारी बारीकियों से भली-भांति अवगत होता है, वह अपने कर्मों के फल से प्रभावित नहीं होता।

दूसरे शब्दों में, जो व्यक्ति भगवान के इस दिव्य स्वभाव से परिचित होता है वह कृष्णभावनामृत में अनुभवी होता है। अत: उस पर कर्म के नियम लागू नहीं होते। जो व्यक्ति भगवान के दिव्य स्वभाव को नहीं जानता और सोचता है कि भगवान के कार्यकलाप सामान्य व्यक्तियों की तरह कर्मफल के लिए होते हैं वे निश्चित रूप से कर्मफलों में बंध जाते हैं किंतु जो परम सत्य को जानता है, वह कृष्णभावनामृत में स्थिर मुक्त जीव है।

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