Chapekar brothers: देश पर जान न्यौछावर करने वाले ‘चाफेकर बंधु’

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 May, 2022 10:07 AM

chapekar brothers

देश को अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र करवाने के लिए अपना जीवन भारत माता के चरणों में समर्पित करने वालों में महाराष्ट्र के 3 सगे भाईयों, जिन्हें संयुक्त रूप से ‘चाफेकर बंधु’ के नाम से जाना जाता है, के नाम प्रमुख रूप से लिए जाते हैं। सबसे बड़े दामोदर...

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Chapekar brothers: देश को अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र करवाने के लिए अपना जीवन भारत माता के चरणों में समर्पित करने वालों में महाराष्ट्र के 3 सगे भाईयों, जिन्हें संयुक्त रूप से ‘चाफेकर बंधु’ के नाम से जाना जाता है, के नाम प्रमुख रूप से लिए जाते हैं। सबसे बड़े दामोदर चाफेकर का जन्म 25 जून, 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड़ के एक सम्पन्न परिवार में प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चाफेकर के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ। इनकी माता का नाम लक्ष्मीबाई था। इनके 2 छोटे भाइयों में से बालकृष्ण चाफेकर का जन्म 1873 एवं वासुदेव चाफेकर का 1880 में हुआ।

How many brothers does chapekar have: तीनों भाइयों का बाल्यकाल और किशोरावस्था बड़े सुख-चैन और मस्ती भरे वातावरण में व्यतीत हुई। महर्षि पटवर्धन एवं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इनके आदर्श थे। तीनों भाई तिलक जी को गुरुवत सम्मान देते थे। लेकिन उन्हीं दिनों अंग्रेजों की क्रूरता ने चाफेकर बंधुओं के खून में विद्रोह की ज्वाला भड़का दी। 1857 के असफल विद्रोह की आग की दबी चिंगारी सुलगना चाहती थी जिसे चाफेकर बंधुओं ने अपने सर्वोच्च बलिदान से प्रचंड कर दिया। बाल गंगाधर तिलक की प्रेरणा से उन्होंने युवकों का एक संगठन ‘व्यायाम मंडल’ तैयार किया। 

What did chapekar brothers do: इसका लक्ष्य अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता में जागरूकता और क्रांतिकारी संघर्ष के विषय में सफल योजना बनाना था। अंग्रेजों के अत्याचार-अन्याय के संदर्भ में एक दिन तिलक जी ने चाफेकर बंधुओं से पूछा, ‘‘शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?’’ 

इसके बाद तीनों भाइयों ने क्रांति का मार्ग अपना लिया। 1894 से चाफेकर बंधुओं ने पूना में प्रति वर्ष तिलक जी द्वारा प्रवर्तित ‘शिवाजी महोत्सव’ तथा ‘गणपति महोत्सव’ का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। 

1897 में पुणे शहर प्लेग जैसी खतरनाक बीमारी से जूझ रहा था तो सरकार ने वाल्टर चाल्र्स रैंड तथा आयस्र्ट को जनता को सुविधाएं देने की जिम्मेदारी दी परन्तु इन अधिकारियों ने प्लेग पीड़ितों की सहायता की जगह लोगों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए चाफेकर बंधुओं ने प्रयास शुरू कर दिए। संयोगवश वह अवसर भी आया, जब 22 जून, 1897 को पुणे के ‘गवर्नमैंट हाऊस’ में महारानी विक्टोरिया के सम्मान में समारोह मनाया जाने वाला था। दामोदर और उनके भाई बालकृष्ण एक दोस्त विनायक रानाडे के साथ वहां पहुंच गए और अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। 

रैंड और आयस्र्ट निकले और अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर चल पड़े। योजना अनुसार दामोदर रैंड की बग्घी के पीछे चढ़ गया और उसे गोली मार दी, उधर बालकृष्ण ने भी आयस्र्ट पर गोली चला दी। आयस्र्ट तुरन्त मर गया और रैंड कुछ दिन बाद अस्पताल में चल बसा। पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर बंधुओं की जय-जयकार कर उठी। 

चाफेकर बंधुओं के क्लब के ही दो भाइयों गणेश शंकर और रामचंद्र ने पुरस्कार के लोभ में चाफेकर बंधुओं का सुराग पुलिस को दे दिया। दामोदर को बम्बई में गिरफ्तार कर लिया गया पर बालकृष्ण पुलिस के हाथ न लगे। दामोदर को फांसी की सजा सुना दी गई। कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें ‘गीता’ प्रदान की। 18 अप्रैल, 1898 को प्रात: वही ‘गीता’ पढ़ते हुए दामोदर फांसीघर पहुंचे और फांसी का फंदा बड़ी निर्भीकता से चूम कर इस नश्वर संसार को छोड़कर अमरत्व प्राप्त कर लिया। 

उधर बालकृष्ण ने जब यह सुना कि उसको गिरफ्तार न कर पाने से पुलिस उसके सगे-संबंधियों को सता रही है तो वह स्वयं पुलिस थाने में उपस्थित हो गए। कनिष्ठ भाई वासुदेव का हृदय अशांत हो गया। वह गद्दार साथियों को सजा देना चाहते थे। अंतत: 9 फरवरी, 1899 की रात को उन्होंने दोनों को गोली का निशाना बना डाला। उन्हें पकड़ लिया गया और मुकद्दमा चलाने का नाटक रचाया गया। 

अदालत में बालकृष्ण और वासुदेव के साथ ही उनके साथी रानाडे को फांसी की सजा सुनाई गई। इस कांड के सह-अभियुक्त श्री साठे को 10 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। वासुदेव को 8 मई को और बालकृष्ण को 12 मई, 1899 को यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई। भारत सरकार ने 2018 में दामोदर चाफेकर की स्मृति में 5 रुपए का डाक टिकट जारी कर इनके प्रति सम्मान व्यक्त किया था। 

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