Belgium में पैदा होकर भी इन्हें था भारतीय संस्कृति से असीम प्यार, जानें कौन ये?

Edited By Jyoti,Updated: 07 Mar, 2021 07:41 PM

even after being born in belgium he had infinite love for indian culture

फादर कामिल बुल्के एक ऐसा नाम है, जिन्हें अनेक व्यक्तित्वों के कारण सदा याद रखा जाएगा। वह बैल्जियम में पैदा होने के बावजूद भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा से इतने

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फादर कामिल बुल्के एक ऐसा नाम है, जिन्हें अनेक व्यक्तित्वों के कारण सदा याद रखा जाएगा। वह बैल्जियम में पैदा होने के बावजूद भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने हिन्दी साहित्य में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ विषय पर पी.एचडी. की। वह रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जी के बड़े प्रशंसक एवं भक्त थे क्योंकि इन्होंने जीवन की गूढ़ व आध्यात्मिक बातों को इनके ग्रंथ के माध्यम से जाना, समझा व सीखा।

इन्हें हिन्दी भाषा पर बड़ा ही गर्व था। कालेज मंच पर भाषण देते हुए एक बार उन्होंने कहा था, ‘‘संस्कृत राजरानी है तो हिन्दी बहू रानी और अंग्रेजी नौकरानी लेकिन नौकरानी के बिना भी तो काम नहीं चलता। इसलिए शायद लोग इसे इतना महत्व देते हैं। अब अपना महत्वपूर्ण स्थान पाने के लिए बहू रानी को ही मेहनत करनी पड़ेगी।’’

वह यह बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे कि लोग हिन्दी भाषा की अवमानना करें, हिन्दी बोलने की बजाय अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करें व अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझें। उन्होंने जीवन भर यह बताने का प्रयास किया कि लोगों को अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए। उसमें अपनी शान समझनी चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए।

बैल्जियम के एक छोटे से गांव रम्स कपैले में 1 सितम्बर, 1909 को इनका जन्म हुआ। इनके जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव इनकी मां का रहा। इनका कहना था कि बचपन में मां के दिए संस्कारों से ही उन्होंने अपने जीवन की दिशा निर्धारित की। जब वह दस वर्ष के थे तो पड़ोस में एक लड़की की मौत से द्रवित हो इनके मन में संन्यासी बन जाने का बीजारोपण हो गया।

बाद में उन्होंने मां से संन्यासी बनने की इच्छा जताई, जिसे सुनकर पहले तो मां सन्न रह गईं क्योंकि वह घर के बड़े बेटे थे और सबसे समझदार और सबके लाडले  व जिम्मेदार थे, पर बाद में मां ने उन्हें अनुमति दे दी।

डा. कामिल बुल्के फ्लैमिश भाषी बैेल्जियन थे। उन्होंने इंजीनियरिंग में ग्रैजुएशन की, पर उन्हीं दिनों उन्हें कहीं से ‘रामचरित मानस’ के एक दोहे का अंग्रेजी अनुवाद और तुलसीदास जी का चित्र देखने-पढ़ने को मिला जिसका अनुवाद पढ़ कर वह अत्यंत प्रभावित हुए।

इस तरह पहली बार उनका किसी भारतीय संत से परिचय हुआ और वह भारत की आध्यात्मिक संपदा की ओर आकर्षित हुए। उन्हें यहां की एक विशेष चीज ने सबसे ज्यादा प्रभावित व आकर्षित किया और वह थी हिन्दी भाषा। वह हिन्दी भाषा से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पसंदीदा विषय रामचरित मानस पर हिन्दी भाषा में ही पी.एचडी. की, शोध कार्य के लिए भवन का निर्माण कराया और आजीवन लोगों को प्रेरित व प्रोत्साहित करते रहे।

निश्चित रूप से संत तुलसीदास जी ही डा. कामिल बुल्के के आदर्श पुरुष थे। तुलसीदास जी द्वारा लिखित महाकाव्य रामचरित मानस के सामाजिक, नैतिक, व्यावहारिक व आध्यात्मिक सूत्रों को जीवन में धारण करने के लिए उन्होंने इसकी गहराई में जाने का प्रयास किया और इस तरह विदेशी नागरिक होने के बावजूद वह मानस के व्याख्याता बने। कई लोगों ने उनके मार्गदर्शन में शोध कार्य किया।

डा. बुल्के हिन्दी भाषा के इतने पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग पसंद नहीं करते थे। अपने देश बैल्जियम में बचपन से लेकर किशोरावस्था तक उन्होंने यह देखा कि वहां फ्लैमिश भाषा की जगह फ्रांसीसी भाषा को ऊंचा दर्जा दिया जाता है। अपनी मातृभाषा के प्रति यह अवमानना उनसे सहन नहीं होती थी और इसलिए वह किशोरावस्था से ही अपनी मातृभाषा के सम्मान के लिए लड़ने वाले सेनानी बन गए।

जब वह भारत आए तो उन्हें यहां भी भारतवासियों में अपनी मातृभाषा के अपमान व अवमानना का तीखा अहसास होने लगा। अंतर केवल इतना था कि भारत में फ्रांसीसी भाषा का स्थान अंग्रेजी भाषा ने ले लिया था और उनकी फ्लैमिश भाषा का स्थान हिन्दी ने ले लिया था इसलिए जीवन के शेष समय में उन्होंने भारतवासियों के मनों में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान की भावना जगाने का काम किया।

डा. कामिल बुल्के का व्यक्तित्व एक योगी-संन्यासी की तरह था। उनकी भावनाएं भी परहित से भरी हुई थीं। उनका विनोदी स्वभाव था इसलिए जो भी उनके संपर्क में आता, हंसी-खुशी से भर जाता। एक ज्ञानी व्यक्ति का गांभीर्य संत की तरह सरलता और एक ऋषि की तरह उदात्त गरिमा का संगम उनके व्यक्तित्व में समाया हुआ था। गांधी जी की प्रार्थना ‘वैष्णव जन तो तने कहिए जे पीर पराई जाने रे’ का एक-एक शब्द उनके ऊपर खरा उतरता था।

भारत और हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले फादर कामिल बुल्के ने अपने जीवन की अंतिम सांसें भारत भूमि में ही सन् 1982 में लीं। उनके इसी भारत प्रेम के कारण उन्हें पद्मभूषण के सम्मान से सम्मानित किया गया।

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