Edited By Lata,Updated: 02 Oct, 2019 09:17 AM
बात उन दिनों की है, जब बापू वर्धा से सेवाग्राम चले गए थे। वहां उन्होंने आसपास के ग्रामीणों से सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया।
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बात उन दिनों की है, जब बापू वर्धा से सेवाग्राम चले गए थे। वहां उन्होंने आसपास के ग्रामीणों से सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह रोजाना उन लोगों को सफाई का महत्व बताते और नियमित रूप से वहां सफाई भी करते। कभी वहां की गलियों में झाड़ू लगवा देते तो कभी कुछ बच्चों को स्नान कराते। यहां तक कि बापू उनके गंदे कपड़ों को खुद अपने हाथों से धोने में भी संकोच नहीं करते थे। ऐसा करते हुए बापू को 3 महीने हो गए लेकिन वहां के लोगों में स्वच्छता और सफाई के प्रति कोई लगाव नजर नहीं आया।
वे मैले-कुचैले कपड़ों में घूमते रहते थे। बापू के साथ आए कार्यकत्र्ता यह सब देख रहे थे। एक दिन एक कार्यकत्र्ता ने कहा, ‘‘बापू! आपको इन लोगों की सेवा करते हुए महीनों बीत गए, पर कोई परिणाम दिखाई नहीं देता। अपनी सफाई तो छोड़ो, ये अपने बच्चों को भी साफ-सुथरा नहीं रखते। वे गंदा पहनते हैं, गंदा खाते हैं। यदि आपने खुद उन्हें साफ कपड़े पहना दिए या अच्छा भोजन करा दिया तो ठीक, वर्ना वे गंदगी में ही पड़े रहेंगे, वैसे ही खाएंगे। उन्हें जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता।’’
कार्यकत्र्ता की बात सुनकर बापू बोले, ‘‘बस! इतने में धैर्य खो दिया? अरे भाई जिन ग्रामीणों की हम सदियों से अपेक्षा करते आए हैं उनकी कुछ वर्षों तक तो नि:स्वार्थ सेवा करनी ही होगी। आपको धैर्य से काम लेना होगा। नवनिर्माण में किसी चमत्कार की आशा नहीं करनी चाहिए। आज भले ही स्वच्छता के प्रति उनके मन में उपेक्षा का भाव हो, पर एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब सफाई इनके जीवन का अंग बन जाएगी।’’
कार्यकत्र्ताओं ने गांधी जी की बात पर सहमति दिखाई और वे पूरी लगन, निष्ठा से नवनिर्माण का सपना संजोकर वहां सफाई अभियान में जुट गए। इसी का नतीजा रहा कि कुछ दिनों बाद उसका सकारात्मक परिणाम भी दिखने लगा।