Kabir Jayanti 2021: सुख सागर में गोते लगवाता है कबीर साहिब का मूल मंत्र

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Jun, 2021 07:50 AM

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आज की विषम परिस्थितियों में सामाजिक वैमनस्यता और संकीर्णता दूर करने के लिए सद्गुरू कबीर साहिब जी के जीवन दर्शन से लाभ उठाने की और भी अधिक जरूरत है। वि.स. 1456 ईस्वी

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2021 Sant Kabirdas Jayanti: आज की विषम परिस्थितियों में सामाजिक वैमनस्यता और संकीर्णता दूर करने के लिए सद्गुरू कबीर साहिब जी के जीवन दर्शन से लाभ उठाने की और भी अधिक जरूरत है। वि.स. 1456 ईस्वी 1398 की ज्येष्ठ पूर्णिमा को सोमवार के दिन भारत की पुण्य धरती वाराणसी के लहरतारा सरोवर में कमल के फूल पर प्रकट होकर सद्गुरु कबीर साहिब ने अपना जीवन अत्यंत सादगी से व्यतीत किया। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ उनके सम्पूर्ण जीवन का मूल मंत्र रहा है। उन्होंने निर्धन, किन्तु संत-महात्माओं में श्रद्धा भक्ति रखने वाले जुलाहा दम्पति को अपने माता-पिता तथा उस समय के प्रकांड पंडित रामानंद जी को अपना श्रद्धेय गुरु स्वीकार किया।

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उन्होंने उस समय के दो महान विरोधाभासों को एक स्थान पर, एक स्थिति में एकरूपता प्रदान की। असंभव की सीमा तक विपरीत दो ध्रुवों को संयुक्त करने का यह महान और उत्तम कार्य केवल दिव्यात्मा युग पुरुष सद्गुरू कबीर साहिब द्वारा ही संभव हो सका। कबीर जी ने समाज में फैली कुरीतियों और कुंठित हो चुकी परम्पराओं के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। तत्कालीन समाज असत्य और अज्ञानता के घोर अंधकार से जूझ रहा था, उन्होंने इस गहनतम तिमिर के मध्य अपने दिव्य ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित कर देश और समाज को नवजागृति प्रदान की। उन्होंने ‘सत्य’ की महिमा को भी सभी प्रकार की तप साधनाओं से बढ़कर माना। एक स्थान पर सत्य के बारे में उन्होंने कहा भी है :
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै सांच है, ताके हिरदै आप॥

सद्गुरू कबीर साहिब जी के जीवन में किसी भी प्रकार के झूठे आडम्बर, पाखंड और छद्म भाव का कहीं भी समावेश नहीं था। वह कृत्रिमता के घोर विरोधी थे। कृत्रिमता को वह मायाजनित एक त्रुटि मानते थे और इस त्रुटि का निवारण सद्गुरु की भक्ति से ही संभव है यह उनका दृढ़ विश्वास था। इस बारे में उन्होंने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए हैं :
भूले थे संसार में, माया के संग आय। सतगुरु राह बताइया, फेर मिलै ताहि जाय॥

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यह संसार जीव (मनुष्य) के लिए कर्मक्षेत्र है। इसमें जो जैसा कर्म करता है उसे परमात्मा की ओर से वैसा ही फल प्राप्त होता है। अज्ञानी जीव माया-मोह के वशीभूत होकर स्वयं को और स्वयं को बनाने वाले परमात्मा को भूल जाता है। इसी से अहंकार और क्रोध की उत्पत्ति होती है। जीव को माया-मोह से मुक्ति का सरल उपाय सद्गुरु ही बता सकते हैं। सद्गुरु ही जीव को भवसागर से पार उतरने का उपाय, परम आनंद प्राप्त करने और परमात्मा से मिलन की राह बता सकते हैं। कबीर जी कहते हैं :
यह जग विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीष दिए जो गुरु मिलै तो भी सस्ता जान॥

जगद्नियंता ने सृष्टि का सृजन अपने भक्तों के हित के लिए ही किया है और भगवद् भक्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। भक्ति नहीं तो शक्ति नहीं... शक्ति नहीं तो सृष्टि नहीं... अर्थात सृष्टि का मूल भक्ति ही है। यह भक्तों से है, भक्तों के लिए है और भक्तों के द्वारा है। कबीर साहिब जी भक्तों के बारे में कहते हैं कि जो व्यक्ति विषय वासना में लिप्त हो जाते हैं वे कभी भी सत्य भक्ति नहीं कर सकते क्योंकि मन में तो मद, मोह, क्रोध और लोभ के रंग ही चढ़े रहते हैं, भक्ति केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो काम, क्रोध, मद, लाभ से र्निवकार रहे :
कामी क्रोधी, लालची, इनते भक्ति न होय। भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय॥

कबीर साहिब जी ने जीवन के लगभग हर पक्ष को, जिसमें उन्हें तनिक भी ‘झोल’ नजर आया, अपनी अमृतवाणी से निखारा। उनकी दिव्य अमृतवाणी से चहुं ओर फैली किसी भी प्रकार की विषमता छिपी न रह सकी। अपने विचारों और अनुभवों को उन्होंने अपनी भाषा, अपने दृष्टिकोण और अपनी विशिष्ट शैली में जन समुदाय के सम्मुख रखा, जिसे सुनकर लोग अभिभूत हो उठे। कबीर साहिब की अमृतवाणी का जो व्यक्ति क्षणमात्र भी रसास्वादन कर लेता है वह जीवन के सुख सागर में गोते लगाने लगता है।

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