कब मनाई जाती है महेश नवमी, जानिए क्या है इससे जुड़ी कथा

Edited By Jyoti,Updated: 11 Jun, 2021 01:27 PM

mahesh navami 2021

सनातन धर्म में भगवान शिव को कई दिन समर्पित हैं, जिनमें से मुख्य है महाशिवरात्रि, मासिक शिवरात्रि, प्रदोष व्रत आदि। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं

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सनातन धर्म में भगवान शिव को कई दिन समर्पित हैं, जिनमें से मुख्य है महाशिवरात्रि, मासिक शिवरात्रि, प्रदोष व्रत आदि। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं इसके अलावा एक अन्य व्रत व दिन है जो महादेव को समर्पित है। दरअसल हम बात कर रहे हैं महेश नवमी तिथि की। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार महेश नवमी की व्रत भगवान शंकर को समर्पित है, जो खासतौर पर माहेश्वरी समाज के लोग प्रमुख रूप से मनाते हैं। बता दें प्रत्येक वर्ष ये पर्व ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है। कहा जाता है माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति भगवान शिव के वरदान से हुई थी। यही कारण है इस दिन देवाधिदेव शिव व जगतजननी देवी पार्वती की आराधना की जाती है। आइए जानते हैं महेश नवमी से जुड़ी पौराणिक कथा- 

पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन समय में एक खडगलसेन नामक राजा हुआ करते थे, जिनकी प्रजा उनसे अधिक प्रसन्न थी। राजा व उनकी प्रजा धर्म कार्यों में संलग्न थे। परंतु राजा के लिए केवल एक की बात निराशाजनक थी कि राजा के कोई संतान नहीं थी, जिस कारण राजा अत्यंत दु:खी रहते थे। अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए राजा ने पुत्र प्राप्ति हेतु कामेष्टि यज्ञ करवाया। 

जिस दौरान राजा को ऋषियों-मुनियों ने वीर व पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया, परंतु साथ यह भी कहा कि 20 वर्ष तक उसे उत्तर दिशा में जाने से रोकना होगा। कथाओं के अनुसार नौवें माह में प्रभु कृपा से राजा को पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसके बाद राजा ने धूमधाम से अपने पुत्र का नामकरण संस्कार करवाया और उस पुत्र का नाम सुजान कंवर रखा। राजा का पुत्र बड़ा वीर व तेजस्वी था वह जल्द ही समस्त विद्याओं में निपुण हो गया।

एक दिन की एक जैन मुनि उस राजा के पुत्र को अपने गांव में ले गए। उनके धर्मोपदेश से कुंवर सुजान बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और प्रवास के माध्यम से जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। धीरे-धीरे लोगों की जैन धर्म में आस्था बढ़ने लगी। जगह-जगह जैन मंदिरों का निर्माण होने लगा।

एक दिन राजकुमार शिकार खेलने वन में गए और अचानक उत्तर दिशा की ओर जाने लगे। सैनिकों ने मना किया परंतु फिर भी वे नहीं माने। उत्तर दिशा में सूर्य कुंड के पास ऋषि यज्ञ कर रहे थे। वेद ध्वनि से वातावरण गुंजित हो रहा था। यह देख राजकुमार क्रोधित हुए और बोले- 'मुझे अंधरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने दिया' और उन्होंने सभी सैनिकों को भेजकर यज्ञ में विघ्न उत्पन्न किया। इस कारण ऋषियों ने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया और वे सब पत्थरवत हो गए।

राजा ने यह सुनते ही प्राण त्याग दिए तथा उनकी तमाम रानियां सती हो गईं। इस सब के बाद राजकुमार सुजान की पत्नी चन्द्रावती सभी सैनिकों की पत्नियों को लेकर ऋषियों के पास गईं और क्षमा-याचना करने लगीं। ऋषियों ने कहा कि हमारा श्राप विफल नहीं हो सकता, लेकिन अगर भगवान भोलेनाथ व मां पार्वती की आराधना करो, तो तुम्हें उनरी कृपा प्राप्त हो सकती है। 

जिसके बाद सभी ने सच्चे मन से भगवान की प्रार्थना की। भगवान महेश व मां पार्वती ने प्रसन्न होकर सुजान की पत्नी को अखंड सौभाग्यवती व पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। चन्द्रावती ने सारा वृत्तांत बताया और सबने मिलकर 72 सैनिकों को जीवित करने की प्रार्थना की। महेश भगवान पत्नियों की पूजा से प्रसन्न हुए और सबको जीवनदान दिया।

ऐसा कहा जाता है कि भगवान शंकर की आज्ञा से ही माहेश्वरी समाज के पूर्वजों ने क्षत्रिय कर्म छोड़कर वैश्य धर्म को अपनाया था। महेश नवमी के दिन माहेश्वरी समाज के सभी लोग विधि वत रूप से पूजा करते हैं। 
 

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