Motivational thought: धन-दौलत में जानें कहां निवेश करने से होगा लाभ

Edited By Jyoti,Updated: 15 Jan, 2022 01:03 PM

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धन-दौलत जीने के लिए आवश्यक साधन हैं परंतु साध्य नहीं। 21वीं सदी में यह मानव मात्र के जीवन का

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Motivational thought: धन-दौलत जीने के लिए आवश्यक साधन हैं परंतु साध्य नहीं। 21वीं सदी में यह मानव मात्र के जीवन का साध्य बनता जा रहा है। मनुष्य धन को पाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। उसका सम्पूर्ण सुख, समस्त अभिलाषाएं इसी में सिमट कर रह गई हैं। धन-दौलत पाने के लिए सैकड़ों निरीह प्राणियों की जीने की इच्छा को पैरों तले रौंदने के लिए तत्पर हो जाता है। उसके विचार में सत्कर्मों के फलस्वरूप ही उसको धनोपार्जन की शक्ति, बुद्धिमता मिली है।

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दो प्रकार के धनवान
दीन-हीन जरूरतमंद प्राणी अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं। उसमें यह भला क्या कर सकता है। वास्तव में आज के मानव के जीवन का लक्ष्य, उसका ईश्वर धन-दौलत ही है। इसके होने पर सब उसकी पूजा करते हैं, न होने पर सब उसको गालियां देते हैं। 
संसार में अधिकांश: दो ही प्रकार के धनवान दिखाई देते हैं- एक वह जो धनोपार्जन कर अपने लिए सब प्रकार की सुख-सुविधाएं जुटाने में व्यस्त रहते हैं। अपने परिवार के साथ पांच सितारा होटल में बैठ कर एक समय के भोजन पर लाखों रुपए खर्च कर देना उनके लिए मामूली-सी बात है। वे इस तथ्य के प्रति पूरी तरह से उदासीन होते हैं कि उन रुपयों में न जाने कितने निर्धन, भूखे, असहाय प्राणियों को भरपेट भोजन मिल सकता था। भरपेट भोजन मिलने पर उनके चेहरों पर जो संतुष्टि दिखाई देती, उसकी तुलना परिवार के पांच-सात सदस्यों के खाने से करना व्यर्थ है। 

दूसरे प्रकार के धनी वे लोग होते हैं जो केवल धन-दौलत के संग्रह में ही विश्वास करते हैं। वे न तो अपने व अपने परिवार के लिए धन का उपयोग करते हैं और न ही किसी अन्य प्राणी अथवा कार्य के लिए। उनका दिमाग दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि किस प्रकार धन का आधिकारिक संग्रह किया जाए। ऐसे व्यक्ति खर्च का नाम सुनकर इस प्रकार कांप उठते हैं मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो। वे इस बारे में न तो कुछ सोचना चाहते हैं और न ही सुनना कि उनकी मृत्यु के बाद उस धन का क्या होगा ? वे अपने धन का न सदुपयोग करते हैं न ही दुरुपयोग। 

शेख सादी ऐसे धनवान को महामूर्ख कहते थे। उनके विचार में ऐसे व्यक्ति का जीवन और मृत्यु दोनों ही अर्थहीन होते हैं। मृत्यु पर कोई दो बूंद आंसू बहाने वाला भी नहीं होता। 

संत कबीर ने तो कहा है : ‘‘साई इतना दीजिये जा में कुटुंब समाए, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।’ 

यह विचार तो एक संत, विरक्त पुरुष ने व्यक्त किए हैं जबकि महान विजेता, विश्व के महान सम्राट सिकंदर ने अपनी वसीयत में लिखा था कि मृत्यु के बाद उनके दोनों खाली हाथ ताबूत से बाहर दिखाई देने चाहिए ताकि लोगों को धन संग्रह की निरर्थकता का आभास हो सके।

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अंत में काम आती है अढ़ाई गज जमीन
टॉलस्टॉय ने इस संदर्भ में एक सुंदर कहानी लिखी है। एक बादशाह ने दरबार में धन प्राप्ति की इच्छा से आए एक प्रार्थी को कहा कि वह सुबह से शाम तक जितनी पृथ्वी अपने कदमों से नाप लेगा वह उसकी हो जाएगी। धन संपत्ति की चाह में वह व्यक्ति बहुत तेजी से दौड़ने लगा। अपनी इस चाह में शाम को वह थक कर गिर पड़ा और मर गया। मरने के बाद उसको जरूरत पड़ी केवल अढ़ाई गज जमीन की।

गांधी जी का ट्रस्टीशिप सिद्धांत व जैन स्मृतियों का अपरिग्रह सिद्धांत धनोपार्जन की उपयोगिता की सुंदर व्याख्या करते हैं। प्राणी मात्र के सम्यक जीवन की तीन प्रमुख आवश्यकताएं होती हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। ईश्वर प्रदत्त शक्ति, सामर्थ्य द्वारा धनोपार्जन कर क्यों न उसका उपयोग अपने साथ-साथ असहाय प्राणियों के लिए भी किया जाए? इससे मिलने वाली आत्मसंतुष्टि का स्वाद भी तो चख कर देख लेना चाहिए। सच तो यह है कि एक बार इसका रसास्वादन करने के बाद अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाएं बेस्वाद लगने लगती हैं।

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