Edited By Lata,Updated: 21 Jun, 2019 06:04 PM
बात उस समय की है जब संत शिबली की प्रसिद्धि बहुत बढ़ रही थी। एक बार वह अपने गुरु से मिलने उनके आश्रम गए। उस समय उनके गुरु अपने कुछ खास शिष्यों
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बात उस समय की है जब संत शिबली की प्रसिद्धि बहुत बढ़ रही थी। एक बार वह अपने गुरु से मिलने उनके आश्रम गए। उस समय उनके गुरु अपने कुछ खास शिष्यों के साथ आध्यात्मिक चर्चा में मग्न थे। गुरु जी ने शिबली के आने को अधिक महत्व न देते हुए चर्चा जारी रखी लेकिन आश्रम में शिबली के आने से उत्साह फैल गया। बहुत सारे शिष्य शिबली के आसपास इकट्ठा हो गए। वे तरह-तरह से संत शिबली के प्रति आदर और सम्मान प्रकट करने लगे। गुरु ने यह देखा तो बोले, ‘‘अरे, यह शिबली यहां कहां आ गया? इसका यहां क्या काम? यह इस आश्रम के योग्य नहीं है।’’
शिबली यह सुनकर वहां से चुपचाप चले गए। गुरु के इन कड़वे वचनों में भी उन्हें कुछ अच्छाई ही दिखाई दे रही थी। उधर शिष्यों ने सोचा, शिबली की बढ़ती लोकप्रियता से ईष्र्यावश ही गुरुजी ने शिबली का अपमान किया है मगर शिबली के जाने के बाद गुरु जी शिष्यों को सम्बोधित कर बोले, ‘‘गलती शिबली की नहीं, तुम सबकी है। तुम्हारी नासमझी की वजह से मुझे उससे अपमानजनक व्यवहार करना पड़ा, उसे कटु शब्द कहने पड़े और उसे जाने को बोलना पड़ा। तुम उसकी प्रशंसा कर उसे पतन और अहंकार में गिराने लगे थे। अगर वह अपनी प्रशंसा से गर्वित हो जाता तो उसकी सारी तपस्या नष्ट हो जाती। प्रशंसा वह मीठा जहर है जिसे बिरले ही पचा पाते हैं। अगर किसी का पतन करना हो तो उसकी प्रशंसा करो। मुझे इसीलिए शिबली का अपमान करना पड़ा। वर्ना तो शिबली मेरे जिगर का टुकड़ा है।’’
इस तरह गुरु जी ने अपने कड़वे बोल से दरअसल शिबली को अहंकार के जहर से बचाया था। यह समझकर आश्रम के शिष्य गुरुजी के प्रति आदर के भाव से भर उठे। उन्हें समझ आ गया कि सच्चा गुरु कड़वा घूंट पीकर भी अपने शिष्य को सन्मार्ग से डिगने नहीं देता।