अपना वंश जानने के लिए मासूम ने हिला दिए देवताओं के सिंहासन...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 13 Sep, 2021 12:51 PM

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मां ने सोते हुए योगीश को उठाते हुए कहा, ‘‘उठो बेटा, पूरब में सूरज की लाली फूट रही है। हाथ-मुंह धोकर तैयार हो जाओ। पाठशाला जाने को देरी हो रही है।’’

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Religious Katha: मां ने सोते हुए योगीश को उठाते हुए कहा, ‘‘उठो बेटा, पूरब में सूरज की लाली फूट रही है। हाथ-मुंह धोकर तैयार हो जाओ। पाठशाला जाने को देरी हो रही है।’’
 
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योगीश कुछ देर तक करवट बदलता रहा। उसने कहा, ‘‘मां, मेरा मन पाठशाला जाने को नहीं कर रहा। आज मैं पढ़ने नहीं जाऊंगा।’’

‘‘क्यों आज क्या हुआ रे तुझे? तू जिद करके पाठशाला जाता था। जरा, हाथ दिखाना। तेरी तो आंखें लाल हो रही हैं।’’

कहते हुए मां ने योगीश का हाथ और माथा छूकर देखा। वह चौंक कर बोली, ‘‘अरे, तुझे तो तेज बुखार है। ठहर, थोड़ा-सा दूध पी ले। गाय का ताजा दूध मैंने अभी-अभी उबाला है। तूने रात को कुछ नहीं खाया। मैं अभी गुरु जी को बुलाकर लाती हूं।’’

‘‘मैं दूध नहीं पिऊंगा।’’

वह बोली, ‘‘अरे अभागे, इंकार क्यों करता है? तेरे लिए तो मैंने गाय पाली है। घर गृहस्थी का सारा झंझट खड़ा किया है।’’

‘‘मां तुमने मुझे फिर अभागा कहा। जाओ, मैं नहीं पीता दूध। अब मैं तुमसे बोलूंगा भी नहीं। मैं थोड़ा-बहुत व्याकरण सीख गया हूं। मैं जानता हूं अभागा कौन होता है। मैं कैसे हूं अभागा?’’ कहते-कहते योगीश का गला रुंध गया। उसकी बड़ी-बड़ी  आंखों में आंसू भर आए।

‘‘अरे तू रोने लगा। मैंने तो यूं ही कह दिया था। उठ, दूध पी ले।’’
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योगीश उठा।  दूध पीने का उसका मन नहीं था, फिर भी मां की बात टाल नहीं सका। चार घूंट भर कर लेट गया। मां तुरन्त गुरु जी के पास चली गई।
उस छोटे से गांव में एक पाठशाला थी।  बीस-तीस बच्चे पढ़ते थे। पढ़ाने वाले गुरु जी अध्यापक भी थे और वैद्य भी।

वह तुरन्त आए। बोले, ‘‘योगीश, क्या हो गया बेटा? ले दवाई खा ले। शाम तक ठीक हो जाएगा।’’

‘‘गुरु जी, आज के पाठ का क्या होगा?’’

‘‘अरे चिंता क्यों करता है।  पाठ तेरे लिए क्या मुश्किल है।  तूने तो वैसे भी सारी पढ़ाई पूरी कर ली है। अब तो तुझे गुरुकुल पढ़ने भेजेंगे।’’ वह दवाई देकर लौट गए।

कुछ ही दिन में योगीश ने गांव में पढ़ाई पूरी कर ली। समय बीतता गया। योगीश 15 वर्ष का हो गया। गुरुकुल में पढ़ने की उसकी इच्छा तेज होती गई। एक दिन गुरु जी उसे गुरुकुल में ले गए। गुरुकुल पहुंचते ही वह आचार्य के सामने गए। शीश नवाया। योगीश ने भी आचार्य के चरण छुए।

‘‘यह बच्चा आपको सौंपने आया हूं। बहुत कुशाग्र बुद्धि है। मैं जितना पढ़ा सका, पढ़ा दिया। यह और आगे पढ़ना चाहता है।’’ गुरु जी ने विनम्र हो कर कहा।
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‘‘ठीक है, बच्चा तेजस्वी लगता है। बेटा, तुमने जो पढ़ा है, याद है न?’’ आचार्य ने कहा और उससे प्रश्र पूछने लगे।

योगीश को सारी विद्या कंठस्थ थी। आचार्य ने जो पूछा, ठीक-ठीक बता दिया। आचार्य भी उसकी योग्यता देखकर दंग रह गए। बोले, ‘‘ठीक है, बच्चा प्रतिभाशाली है। मगर इसका वंश क्या है? माता-पिता का नाम क्या है?’’
गुरु जी सकुचाते हुए बोले, ‘‘बच्चे के पिता नहीं है। बूढ़ी मां है। मैं ही इसका अभिभावक हूं।’’

‘‘वंश क्या है?’’ ‘‘आचार्य ने फिर दोहराया।

‘‘मैं नहीं जानता, आचार्य। जानता होता तो पहले ही बता देता। क्या इसकी योग्यता परिचय के लिए काफी नहीं है?’’

‘‘यह गुरुकुल का नियम है। आप इसकी मां को यहां भेज दीजिए। मैं उसी से पूछ लूंगा।’’ आचार्य ने कहा।

‘‘मां को भेज दो। और अगर मां ही न हो।’’ कहते हुए पंडित जी रुक गए।
‘‘क्या कहा। मगर अभी तो आप ही कह रहे थे कि इसकी मां जीवित है।  सत्य बात बताइए।’’ आचार्य गंभीर हो गए।

योगीश ने सुना तो रुआंसा हो गया। बोला, ‘‘क्या मैं अनाथ हूं? क्या मां, मेरी मां नहीं है, गुरु जी?’’

‘‘है बेटा। पूरी बात सुन ले।’’
 
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‘‘आचार्य! एक दिन घने जंगल में एक स्त्री ने इसे देखा। उस समय यह सिर्फ तीन वर्ष का ही था। अपनी मां की लाश के पास बैठा रो रहा था। पास ही पिता का शव पड़ा था। दोनों के सिर गायब थे। विचित्र बात थी। जिन शत्रुओं ने इसके मां-बाप का वध किया था, वे इसे जिंदा कैसे छोड़ गए, मगर सत्य यही है। यह जिंदा था। वह स्त्री इसे उठा लाई। वही आज इसकी मां है। वह विधवा थी। इसके लिए  ही उसने अपना गांव छोड़ा, हमारे गांव में आकर रही, सिर्फ इसीलिए कि कोई यह न जान सके, यह उसका बेटा नहीं है। गांव में इस बात को मैं ही जानता हूं। आप इसे वापस लौटा देंगे तो इसकी मां का दिल टूट जाएगा। आचार्य क्या बुढ़िया के त्याग का मूल्य कुछ नहीं है?’’

‘‘है जरूर है। मगर गुरुकुल के नियम का क्या?’’

‘‘आचार्य! आपने ठीक कहा। बिना वंश जाने गुरुकुल में प्रवेश नहीं मिल सकता। मगर मैं पढ़ूं, इससे मेरे मां-बाप को क्या लेना?’’ योगीश ने कहा।
आचार्य उसे देखने लगे। गुरु जी चुप हो गए। वह उठा और गुरुकुल की सीमा से बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। गुरु जी उसे मनाने आए। उसने कहा, ‘‘गुरु जी, मैं बिना शास्त्र पढ़े, यहां से नहीं जाऊंगा। मैं देवताओं को प्रसन्न करूंगा। उनसे अपना वंश पूछूंगा।’’

मौसम आए, चले गए। समय बीतता गया। योगीश निश्चय से डिगा नहीं। कई वर्ष तक उसने तपस्या की। भूख-प्यास भी भूल गया। आखिर उसकी तपस्या से देवताओं के सिंहासन हिल उठे।

अग्रि देवता आए। योगीश को आशीर्वाद दिया और आचार्य से बोले, ‘‘यह मेरी तरह पवित्र है, इसीलिए मेरे वंश का है।’’

वायुदेव ने कहा, ‘‘यह मेरी तरह बाधाओं से लड़ने में समर्थ है, इसीलिए मेरे ही वंश का है।’’ जल देव वरुण आचार्य से कहने लगे, ‘‘यह मेरी तरह निर्मल है, इसीलिए इसे आप मेरे वंश का मानिए।’’

देवताओं की बात सुनकर आचार्य गद्गद् हो गए। उन्होंने योगीश को गले से लगा लिया। बोले, ‘‘मैं ही गलती पर था। विद्या प्राप्त करने के लिए योग्य विद्यार्थी की पहचान ही काफी है। आचार्य ने योगीश को अपना लिया। आगे चलकर यही योगीश शास्त्रों को रचने वाला महान ऋषि बना।’’    
 
 
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