Edited By Lata,Updated: 07 Aug, 2018 04:34 PM
दानवीरों की चर्चा में एक बार कृष्ण पांडवों से बोले कि उन्होंने कर्ण जैसा दानवीर नहीं देखा और न ही सुना है। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई।
ये नहीं देखा तो क्या देखा (देखें VIDEO)
दानवीरों की चर्चा में एक बार कृष्ण पांडवों से बोले कि उन्होंने कर्ण जैसा दानवीर नहीं देखा और न ही सुना है। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, कैसे?
कृष्ण ने कहा कि समय आने पर बताऊंगा लेकिन बात आई और गई हो गई। कुछ ही दिनों में सावन शुरू हो गया और वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, ‘महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला ब्राह्मण हूं। बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। मेरे पास हवन के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। आपके पास हो तो मुझ पर कृपा करें। अन्यथा मैं भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।’
युधिष्ठिर ने तुरंत कर्मचारी को बुलवाया और लकड़ी देने को कहा। कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया, मगर सूखी लकड़ी नहीं मिली। ब्राह्मण को हताश देख कृष्ण ने कहा, ‘मेरे साथ आइए।’ भगवान ने अर्जुन व भीम को भी इशारा किया तो वेश बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। ब्राह्मण ने वहां पहुंचकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई।
कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा पर वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ। ब्राह्मण निराश हो गया। तभी कर्ण ने कहा, ‘आप निराश न हों’। उसने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दिया। फिर ब्राह्मण से कहा, ‘आपको जितनी लकड़ी चाहिए कृपया ले जाइए।’
ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए। वापस आकर भगवान ने कहा कि साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है।
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